दास्तान-गो : ख़ूब करते थे तस्वीरों में कमाल फोटोग्राफी के उस्ताद ‘राजा’ दीन दयाल
दास्तान-गो : ख़ूब करते थे तस्वीरों में कमाल फोटोग्राफी के उस्ताद ‘राजा’ दीन दयाल
Daastaan-Go ;Raja Lala Deen Dayal Death Anniversary : कहते हैं, ‘राजा लाला दीन दयाल’ के कैमरों से, उनकी ज़िंदगी में क़रीब 30,000 यादगार तस्वीरें निकलीं. इनमें से कुछेक ही सहेजी जा सकीं क्योंकि सब को सहेज पाना मुमकिन न हुआ. इसके बावज़ूद जो बच रहीं (गैलरियों, म्यूज़ियम वग़ैरा में), वे यूं हैं कि गोया उन्हें देखते ही पुराना दौर आंखों से सामने सांसें लेते हुए ज़िंदा खड़ा दिख जाए.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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जनाब, पहले एक शे’र पर ग़ौर फ़रमाइए. अर्ज़ किया है, ‘अजब ये करते हैं तस्वीर में कमाल कमाल, उस्तादों के हैं उस्ताद राजा दीन दयाल.’ हैदराबाद के छठे निज़ाम हुए मीर महबूब अली खान. अपने एक दरबारी फोटोग्राफ़र दीन दयाल के इतने क़ायल हुए वे, कि उन्हीं की शान में उन्होंने एक मर्तबा ये शे’र कह दिया था. अलबत्ता, ‘दास्तान-गो’ ने शे’र को मौज़ूं (प्रासंगिक) बनाने की ग़रज़ (उद्देश्य) से इसमें मामूली रद्द-ओ-बदल किया है. गुस्ताख़ी मु’आफ़ हो. अब यूं कहा है, ‘ख़ूब करते थे तस्वीरों में कमाल, फोटोग्राफ़ी के उस्ताद ‘राजा’ दीन दयाल.’ हालांकि किसी के ज़ेहन में ये सवाल कुलबुला सकता है कि दीन दयाल अगर दरबारी फोटोग्राफ़र हुए तो फिर ‘राजा’ कैसे? तो जनाब, इसका ज़वाब यूं है कि उन्हीं निज़ाम मीर महबूब अली खान ने दीन दयाल को ‘राजा बहादुर मुसव्विर जंग’ का ये ख़िताब (उपाधि) बख़्शा (प्रदान करना) था. ये बात हुई साल 1894 की.
जनाब, ‘लाला’ दीन दयाल की सवानेह-हयात (जीवनी) को बखानती एक वेबसाइट है, ‘लाला दीनदयाल डॉट इन’ के नाम से. उसमें ऐसी तमाम बातें दर्ज़ हैं. अब यहां ‘राजा’ और ‘लाला’ के भरम में न पड़ जाया करे कोई, इसलिए बताते चलें कि ‘राजा’ तो हुआ ख़िताब, जो दीन दयाल को बख़्शा गया था. जबकि ‘लाला’ इनकी पैदाइश के साथ ही इनसे जुड़ गया था. आगरा और अवध के इलाके (आज का उत्तर प्रदेश) में एक जगह होती है, सरधना. मेरठ के नज़दीक. वहीं, एक जैन ख़ानदान में दीन दयाल की पैदाइश हुई. इनकी पैदाइश की तारीख़ तो कहीं ठीक-ठीक मिलती नहीं. मुमकिन है, पुख़्ता न हुई हो. मगर बरस ज़रूर मिलता है, 1844 का. सो, इस तरह दीन दयाल पैदाइशी ‘लाला’ कहलाए. फिर बात आई तालीम की. तो दीन दयाल डिग्री लेकर बने इंजीनियर. अंग्रेजों के दौर में एक कॉलेज होता था, रुड़की में. ‘थॉमसन कॉलेज ऑफ़ सिविल इंजीनियरिंग’. वहीं से.
इसके बाद सिलसिला हुआ नौकरी का तो ज़ाहिर तौर पर वह भी इंजीनियर की हैसियत से ही मिली. ये साल हुआ 1866 का. आज के मध्य प्रदेश का बड़ा शहर हुआ करता है इंदौर. वहीं पर, पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में. उस दौर में इस शहर पर होलकर राजा की हुकूमत चलती थी. लेकिन अंग्रेजों ने अपने एक अफ़सर को मुस्तक़िल (स्थायी) तौर पर शाही-दरबार में तैनात कर दिया था. इस तरह से तब राजा तो थे दूसरे-तुकोजी राव होलकर. मगर अंग्रेज उनको ज़रिया बनाकर ‘सरकार’ अपनी चलाते थे. राजा के दरबार में इस ज़िम्मेदारी को उस वक़्त अंग्रेजी फ़ौज के अफ़सर हेनरी डर्मोट डैली उठाया करते थे. बताते हैं, बड़े हंसमुख और मिलनसार हुआ करते थे, हेनरी डैली. नई पुरानी चीजों, तजरबात, आज़माइशों वग़ैरा में बड़ी दिलचस्पी रहती थी उनकी. लाला दीन दयाल का मिज़ाज भी कुछ ऐसा ही था. सो, सरकारी मुलाज़िम होने के नाते दोनों में जान-पहचान बन गई.
फोटोग्राफ़ी का सिलसिला हिन्दुस्तान में साल 1840 के आस-पास की दहाई (दशक) से शुरू हो चुका था. लेकिन इस काम में तब तक ज़्यादातर अंग्रेज फोटोग्राफ़र ही अगुवा रहा करते थे. वे पूरे मुल्क में घूम-घूमकर अहम जगहों की तस्वीरें निकाला करते. सरकारी जलसों, अफ़सरों के दौरों पर उनके साथ जाकर वहां से जुड़े मौकों की तस्वीरें वग़ैरा निकालने का काम भी उनके ही ज़िम्मे हुआ करता था. बताते हैं, ऐसे ही किसी मौके पर लाला दीन दयाल का वास्ता अंग्रेज फोटोग्राफ़रों और फोटोग्राफ़ी के कैमरों से हो रहा. उन्हें भी इस काम में ख़ास दिलचस्पी महसूस हुई. लिहाज़ा, उन्होंने पहले-पहल शौकिया तौर पर ही सही, अपने हाथ में कैमरा थाम लिया. कुछ तस्वीरें निकालीं और उन्हें हेनरी डैली को दिखाया. उन्हें भी वे तस्वीरें बहुत पसंद आईं. सो, उन्होंने लाला दीन दयाल को बढ़ावा दिया कि वे फोटोग्राफ़ी के अपने शौक़ को आगे बढ़ाएं. इस पर और काम करें.
इसी बीच, एक मर्तबा वायसराय लॉर्ड नॉर्थब्रुक का सेंट्रल इंडिया (मध्य भारत) के दौरे पर आना हुआ. तब लाला दीन दयाल ने उनकी कुछ तस्वीरें खींची जो बहुत पसंद की गईं. इसके बाद साल 1876 में इंग्लैंड के शाहज़ादे ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ का इंदौर आना हुआ. ये मार्च का महीना था. उनके उस दौरे पर हेनरी डैली ने ख़ास तौर पर लाला दीन दयाल को तस्वीरें खींचने का ज़िम्मा सौंपा. इसे उन्होंने बख़ूबी निभाया भी और तस्वीरों की ख़ासी तारीफ़ हुई. यह वाक़ि’आ पेश आने के कुछ वक़्त बाद हेनरी डैली जब बुंदेलखंड के दौरे पर गए तो वे लाला दीन दयाल को अपने साथ ले गए. वहां उन्होंने यादग़ार तस्वीरें खींची. अब तक लाला दीन दयाल को एहसास हो चला कि वे फोटोग्राफ़ी की दुनिया के ‘राजा’ बन सकते हैं. लेकिन तब चूंकि ये महंगा शौक़ था. उसकी कमाई से पेट नहीं भर सकता था. लिहाज़ा लाला दीन दयाल को सरकारी मदद और सरपरस्ती की ज़रूरत पड़ी.
लाला को तब सरकारी मदद और सरपरस्ती मिली भी. उन्होंने फोटोग्राफ़ी की तालीम और तजरबा हासिल करने के लिए जब सरकारी नौकरी से दो साल की छुट्टी मांगी तो वह तुरंत ही मंज़ूर हो गई. इतना ही नहीं, वे निश्चिंत होकर यह काम कर सकें, गुज़र-बसर की फ़िक्र न रहे, इसलिए इंदौर के राजा से कहकर हेनरी डैली ने इसका भी इंतज़ाम करा दिया. बताते हैं, तब राजा की तरफ़ से लाला दीन दयाल एक जायदाद दी गई, जिसकी कमाई से उनका ख़र्च चलता रहे. इसी बीच हेनरी डैली का तबादला हो गया. लेकिन उनकी जगह इंदौर के दरबार में अंग्रेज सरकार की नुमाइंदगी के लिए जो नए अफ़सर आए, वे लाला दीन दयाल के लिए हेनरी डैली से भी बड़े मददगार साबित हुए. लीपल ग्रिफिन नाम हुआ उनका. उन्होंने भी साल 1882-83 के दौरान जब बुंदेलखंड-बघेलखंड के इलाकों का दौरा किया तो फोटोग्राफ़ी के लिए लाला दीन दयाल का ही साथ चुना.
लाला दीन दयाल की फोटोग्राफ़ी के चर्चे लीपल ग्रिफिन के कानों में पहले से थे ही. दौरे के बीच उन्होंने उनके हुनर को देख-परख भी लिया. बताते हैं, इस सफ़र के दौरान लाला दीन दयाल ने इन इलाकों की 100 से कुछ ज़्यादा तस्वीरें खींची. इनमें से 86 तस्वीरों को लीपल ग्रिफिन ने अपनी किताब ‘फेमस मॉन्यूमेंट ऑफ़ सेंट्रल इंडिया’ में शामिल किया. यह किताब साल 1886 में पेश हुई, लंदन में. इस तरह अब लाला के ज़ेहन में कोई भरम न रहा. उनके हुनर का चर्चा हिन्दुस्तान के बाहर भी होने लगा था. सरकारों के साथ राजे-रजवाड़े, नवाब-निज़ाम भी उनके लिए लाल कालीन बिछाने को राज़ी थे. साल 1874-75 के आस-पास यानी शुरुआती दौर में ही इंदौर में अपना एक स्टूडियो खोल लिया था. वह भी चल निकला था. लिहाज़ा लाला ने अब बड़ा फ़ैसला किया, सरकारी नौकरी छोड़ने का. और मार्च 1887 में नौकरी छोड़ भी दी आख़िर.
इस तरह पैदाइश से जो दीन दयाल ‘लाला’ हुए, वे तालीम से इंजीनियर होते हुए पेशे से फोटोग्राफ़र बन गए अब. हालांकि ‘राजा’ होना अभी बाकी था उनका. और ये मौका आया 1890 के आस-पास की दहाई में. हैदराबाद के छठे निज़ाम दुनियाभर की आलातरीन चीज़ें ही नहीं बल्कि शख़्सियतों को भी अपने आस-पास देखा करने का शौक़ रखते थे. लिहाज़ा जब वे लाला दीन दयाल की मशहूरियत से वाक़िफ़ हुए तो उन्हें बुलवा भेजा. लाला जब उनके पास पहुंचे तो निज़ाम ने उन्हें अपने दरबार में इज़्ज़त-ओ-ओहदा बख़्शने की पेशकश की. लाला ने इस पर हामी भर दी. इस तरह इंदौर के बाद अब हैदराबाद उनका अगला ठिकाना हुआ. और यहीं फिर ‘लाला’ बन गए ‘राजा’. ‘राजा लाला दीनदयाल’. या ‘राजा बहादुर मुसव्विर जंग’. कहते हैं, इस हैसियत से राजा दीन दयाल को यही कोई 2,000 घुड़सवारों की फ़ौज रखने का हक़ मिला था, निज़ाम की ओर से.
अलबत्ता, लाला ठहरे हुनरमंद फोटोग्राफ़र. सो, वे उसी पेशे को अगले पायदानों पर ले जाने में दिमाग लगाते रहे. जिस साल नौकरी छोड़ी, उसी बरस निज़ाम की सल्तनत के शहर सिकंदराबाद में लाला ने दूसरा स्टूडियो खोल लिया था. यहां उनका पेशा और हुनर दोनों बहुत फला-फूला. अंग्रेज सरकार ने तो उन्हें अपना मुस्तक़िल फोटोग्राफ़र ही बना लिया. वायसराय से लेकर अंग्रेजों के तमाम बड़े अफ़सरों के जलसों, दौरों वग़ैरा तक की तस्वीरें लाला दीन दयाल के कैमरों से होकर निकला करती थीं. यहां तक कि साल 1897 में तो उन्हें ब्रितानिया सल्तनत की मल्लिका ‘महारानी विक्टोरिया’ ने अपना शाही फोटोग्राफ़र ही तैनात कर लिया. यानी इस हैसियत से अब महारानी से जुड़े तमाम मसलों की तस्वीरें हिन्दुस्तान में, लाला दीन दयाल को ही खींचनी थी. इस बढ़ती शोहरत का ही सरमाया था कि साल 1896 में लाला तीसरा स्टूडियो बंबई शहर में भी खोल चुके थे.
लाला दीन दयाल की सोच अपने हुनर में कितनी आगे की हुई, इसका एक अंदाज़ लगाइए. यूं कि जब उन्हें किसी बड़े इलाके को कैमरे की ज़द में लाना होता, तो वे उसे टुकड़ा-टुकड़ा तस्वीरों से नहीं जोड़ा करते. बल्कि ऊंचा मचान-सा बनवाकर उस पर चढ़ते और वहां से एक ही फ्रेम में पूरी तस्वीर खींचते थे. लाइट का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे हो, इसका ख़ास ख़्याल रखते. बड़े ओहदेदार हों या आम आदमी, उनकी तस्वीरें खींचते वक़्त उन्हें यह भी बताया करते कि क्या पहनें, कैसे और कहां बैठा करें कि उनकी तस्वीरें अच्छी आएं. औरतों की तस्वीरों के लिए ख़ास इंतज़ामात किए थे उन्होंने. बताते हैं, सिकंदराबाद में ही औरतों के लिए अलग स्टूडियो बनवाया था. हिन्दुस्तान का शायद पहला. इसमें हर काम औरतें ही किया करती थीं. और हां, बताते हैं कि तीनों स्टूडियो में एक वक़्त पर 50 से ऊपर लोगों को काम पर रखा हुआ था लाला दीन दयाल ने.
इतना ही नहीं, लाला आम आदमियों से तस्वीरों की कीमत तो लिया करते लेकिन उतनी कि उन्हें कोई दिक़्क़त न आए. बिना फ्रेम में मढ़ी हुई ‘आठ गुणा पांच’ इंच की एक तस्वीर महज़ 12 आने (75 पैसा) में. और सुनिए. तस्वीरें के निगेटिव तब कांच पर बना करते थे. छोटे बच्चे जब तस्वीरें खिंचवाने के लिए लाए जाते तो बड़ी दिक़्क़त हुआ करती. उनकी कारगुज़ारियों से कई मर्तबा ऐसा होता कि एक बार में तस्वीर ठीक आती ही नहीं. निगेटिव बिगड़ जाते. लेकिन इसके बावज़ूद लाला ने क़ायदा तय कर दिया था, ‘बच्चों के मामले में निगेटिव ख़राब होने पर भी किसी से कोई अलग पैसा न लिया जाए.’ और स्टूडियो की सुविधाएं, माशा अल्लाह. कहते हैं, जब बंबई का स्टूडियो खोला लाला ने, तो हिन्दुस्तान के बड़े अंग्रेजी अख़बार ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने तब इसे ‘पूरब के देशों में सबसे ज़्यादा साज़-ओ-सामान वाला स्टूडियो करार दिया था.’
बताते हैं, विदेश से आने वाले अंग्रेजी अफ़सरान में शायद ही कोई ऐसा होता हो उस वक़्त, जो लाला के बंबई स्टूडियो में आकर तस्वीरें न खिंचवाना चाहे. भले लाला ख़ुद उनकी तस्वीरें खीचें या नहीं. ये सिलसिला तब तक चला, जब तक पांच जुलाई 1905 को लाला ने बंबई में आख़िरी सांस न ले ली. उनकी हैसियत का अंदाज़ा इसी से लग सकता है कि उनके इंतक़ाल के दो दिन बाद यानी सात जुलाई, शुक्रवार के रोज़ अंग्रेज सरकार ने ‘बॉम्बे गजट’ (राजपत्र) में इस मसले पर तफ़सील से एक पूरा आर्टिकल छापा था. यह भी लाला दीन दयाल की वेबसाइट पर दर्ज़ है, जिसका ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है. कहते हैं, ‘राजा लाला दीन दयाल’ के कैमरों से, उनकी ज़िंदगी में क़रीब 30,000 यादगार तस्वीरें निकलीं. इनमें से कुछेक ही सहेजी जा सकीं क्योंकि सब को सहेज पाना मुमकिन न हुआ. इसके बावज़ूद जो बच रहीं (गैलरियों, म्यूज़ियम वग़ैरा में), वे यूं हैं कि गोया उन्हें देखते ही पुराना दौर आंखों से सामने सांसें लेते हुए ज़िंदा खड़ा दिख जाए.
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Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 05, 2022, 15:44 IST