दास्तान-गो : जो सुनने वालों का राग से अनुराग करा दें वे हैं पंडित छन्नूलाल मिश्र
दास्तान-गो : जो सुनने वालों का राग से अनुराग करा दें वे हैं पंडित छन्नूलाल मिश्र
Daastaan-Go ; Pt Chhannu Lal Mishra : पंडित शब्दों को सुरों से सजाते हुए ‘रूम-झूम’ का भाव खोल रहे हैं. बीच-बीच में बताते जा रहे हैं. ‘संगीत का मतलब है कि स्वर द्वारा शब्दों को सजाना. न कि शब्द अलग हों और स्वर अलग. बंदिश के बोल और स्वर-आलाप, तान आदि में कोई साम्य न हो तो सुनने वालों में अरुचि हो जाती है’. ख़ास बनारस की यह ठुमरी अब दादरा (ताल) में रस बना-बनाकर बढ़ाती और बिखेरती जाती है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, कभी संगीत को साहित्य और साहित्य को संगीत की परतें खोलते देखा है क्या? या बनारस को अपना रस बनाते, बढ़ाते और बांटते हुए? या लोक-गीतों को शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीयता को लोक-गीतों में बड़ी ख़ूबसूरती से गुत्थम-गुत्था होते हुए? या फिर काशी के दिगंबर महादेव को ‘मसाने की होरी’ खेलते हुए, वह भी आधुनिक सभागार के भीतर? यक़ीन कीजिए जनाब, जिस किसी ने भी पंडित छन्नूलाल मिश्र को सुना है, उसने यह सब देखा है. महज़ घंटे-डेढ़ घंटे के भीतर उसकी आंखों के सामने से यह सब कुछ यूं गुज़रा है गोया, कि कोई जीती-जागती फिल्म चल रही हो. और अब भी यक़ीन न हो, तो इस लफ़्ज़ी सफ़र से गुज़रते हुए वह सब पढ़, सुन और देखकर ख़ुद महसूस कर लीजिए. अलबत्ता, इधर सवाल हो सकता है कि लफ़्ज़ों को पढ़ना तो ठीक मगर सुना और देख कैसे जा सकता है? तो आगे पढ़ते, बढ़ते चलिए, ज़वाब मिल जाएगा.
ख़्याल कीजिए कि आपके सामने पंडित छन्नूलाल मिश्र गा रहे हैं. उनके साथ वाले तानपूरा, तबला मिलाते हैं और फिर अपने स्वर-मंडल पर पंडित जी एक झनकार देकर माहौल को बांधना शुरू कर देते हैं. शुद्ध शास्त्रीयता के साथ शुरुआत हो रही है. राग ‘नंद-कल्याण’, ‘भूपाली’, ‘खमाज’, ‘मिश्र-तोड़ी’, ‘पीलू’ या दक्षिण-भारत से उत्तर में आया ‘हंसध्वनि’. कोई भी. ‘नंद-कल्याण’ ही सोच लीजिए. शुरू में यही कोई पांच-सात मिनट आलाप-चारी हुई है. फिर एक पारंपरिक बंदिश, ‘पिया नाहीं आए मोरी आली, उन बिन कछु न सुहाए’. बंदिश का ख़ूबसूरती से विस्तार हो रहा है. आहिस्ता से राग खुलता जाता है. तानें लगनी शुरू हुई हैं. हालांकि सभागार में अभी कुछ चेहरे सपाट दिख रहे हैं. शायद उन्हें संगीत की शुद्ध शास्त्रीयता से जुड़ने में कुछ ज़्यादा कोशिश करनी पड़ रही है. तभी पंडित जी अचानक अपनी प्रस्तुति को एक ख़ूबसूरत मोड़ दे देते हैं.
अब वे सुनने वालों को बता रहे हैं, ‘इस राग को फिल्मों में भी लिया है’. और बंदिश के बीच में साल 1966 की फिल्म ‘मेरा साया’ का मशहूर गीत गाने लगते हैं, ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’. राग वही है. पंडित जी की शास्त्रीयता भी क़ायम है. लेकिन सुनने वालों की भीड़ में मौज़ूद सपाट से नज़र आने वाले चेहरों पर अचानक रौनक दिखाई देने लगी है. अब तानों, तिहाईयों के बाद पंडित जी के सम पर आते ही उनके हाथ भी झटके से उठ रहे हैं. बाकी जानकार सुनने वालों की तरह उनके मुंह से वाह-वाह निकल रही है. ताल के ठेके के साथ उनके पैर लय दे रहे हैं. अब वही ‘नंद-कल्याण’ उनके लिए ‘आनंदी-कल्याण’ (इस राग का दूसरा नाम) हो गया है. उसकी शास्त्रीयता उन्हें अब आनंद देने लगी है. पहले जिस राग से उन्हें ‘विराग’ हुआ जाता था, उसी से ‘अनुराग’ हो रहा है. ये हैं पंडित छन्नूलाल मिश्र, जिनका आज जन्मदिन है.
अलबत्ता, पंडित जी ने अभी तो बनारस का रस बनाना ही शुरू किया है. उसे बढ़ाकर बांटना बाकी है. अपनी पेशकश को फिर ख़ूबसूरत मोड़ दिया है उन्होंने. तबले पर ताल का ठेका जारी है. लेकिन पंडित जी गाने के बजाय बता रहे हैं, ‘राग उतना ही अच्छा जितने से अनुराग बना रहे. विराग न होने पाए. गाने के लिए बहुत सी चीजें हैं. हमारी काशी की प्रसिद्ध ठुमरी, कजरी, चैती, होरी, दादरा. इन सब चीजों का जवाब नहीं है. सब धरोहर हैं, हमारी काशी की. साहित्य और संगीत दोनों का केंद्र हमारा काशी है.’ इस तरह संगीत में बनारस का रस घोलना शुरू किया है उन्होंने. हॉल तालियों से गूंज उठा है क्योंकि सब इसी बनारस को तो सुनने आए हैं. तभी ‘ठुमरी’, ‘दादरा’, ‘भजन’ जैसे उप-शास्त्रीय स्वरूपों के लिए चिह्नित किए गए ‘राग खमाज’ पर आ जाते हैं पंडित जी. बनारस की ठुमरी का रस अब बिखरना शुरू हुआ है, ‘बांसुरिया अब न बजाओ श्याम’.
शुरुआत ख़ास बनारस अंग से हुई है कि बीच में वे बता रहे हैं, ‘देखिए, इसी बोल को बनारस, पंजाब और गया वाले किस तरह कहते हैं’. और फिर वे उन प्रकारों को गाकर बता रहे हैं. इस तरह उन्होंने बनारस, पंजाब और गया की ठुमरियों की ख़ासियतें आम सुनने वालों के नज़र कर दी हैं. वह भी बहुत आसानी से. इतनी कि बार-बार तालियों की गड़गड़ाहट के साथ भरे हॉल में वाह-वाह जारी है. लय, ताल का सिलसिला रुका नहीं है कि पंडित जी अब संगीत में साहित्य की अहमियत बता रहे हैं, ‘योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:। रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।। अर्थात्- स्वर और वर्ण से विभूषित ध्वनि, जो सुनने वाले के चित्त को आकर्षित करे, वही राग है. स्वर भगवान का रूप है. आनंद अगर नहीं मिला संगीत से, तो बेकार है. सत् चित और आनंद, ये तीनों स्वर के स्वरूप हैं. इसीलिए ईश्वर का एक नाम सच्चिदानंद भी है’.
ठुमरी जारी है. सुनने वालों का आनंद भी चरम पर पहुंचता जाता है. कि वे फिर बहुत सहज तरीके से ज्ञान की घुट्टी देते हैं, ‘निराकार ब्रह्म जहां साकार रूप से विराजमान है, वह है संगीत. एक बार नारद जी ने भगवान से पूछा कि प्रभु आपका निवास अस्ल में है कहां? तो भगवान बोले- नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च। मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। अर्थात्- हे देवर्षि! मैं न वैकुण्ठ में निवास करता हूं, न ही योगीजनों के ह्रदय में. मेरा निवास वहां होता है, जहां मेरे भक्त भक्ति में लीन और तन्मय होकर मेरे नामों का गायन, संकीर्तन करते हैं’. इस तरह, पंडित जी अपनी विशिष्टताओं के साथ ‘खमाज’ की बंदिश को चरम पर ले जाकर छोड़ते हैं. मगर मंच ने उन्हें नहीं छोड़ा है. सावन का महीना है. इसलिए उनकी मशहूर कजरी सुनने का आग्रह किया जा रहा है. पंडित जी लोगों का उत्साह देख गद्गद् हैं. उनका आग्रह स्वीकार कर लेते हैं.
राग ‘मिश्र-खमाज’ में अब वे कजरी शुरू कर रहे हैं. लेकिन ख़ास बात देखिए. छोटे आलाप के बाद वे रामचरित मानस का ज़िक्र कर रहे हैं. वह रामचरित मानस जो हिन्दुस्तान के जन-मन में बसा है. जो सबसे जुड़ा है और जिससे सब जुड़ते हैं. वे बता रहे हैं, ‘गोस्वामी (तुलसीदास) जी ने ज़िक्र किया है कजरी का- बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास। राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।। अर्थात्- तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की भक्ति वर्षा-ऋतु है. उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं और राम नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादों के महीने हैं. मतलब जिस तरह वर्षा-ऋतु के दो महीनों, सावन और भादों में धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्तिपूर्वक श्री राम नाम का जप करने से भक्तों को अत्यंत सुख मिलता है’. लोग भक्ति-भाव से भर गए हैं. उनके इसी भाव से जुड़ते हुए कजरी शुरू हुई है अब, ‘बरसन लागी बदरिया रूम-झूम के’.
पंडित शब्दों को सुरों से सजाते हुए ‘रूम-झूम’ का भाव खोल रहे हैं. बीच-बीच में बताते जा रहे हैं. ‘संगीत का मतलब है कि स्वर द्वारा शब्दों को सजाना. न कि शब्द अलग हों और स्वर अलग. बंदिश के बोल और स्वर-आलाप, तान आदि में कोई साम्य न हो तो सुनने वालों में अरुचि हो जाती है’. ख़ास बनारस की यह ठुमरी अब दादरा (ताल) में रस बना-बनाकर बढ़ाती और बिखेरती जाती है. उसके हर बोल के साथ बनाव. एक अद्भुत भाव है. इस भाव-बनाव का जो रस है, उसके बारे में भी पंडित ने बताया है, ‘ये जो रस है न. इसी का नाम बनारस है. यहां के संगीत का रस हमेशा बना ही रहता है, बिगड़ता नहीं है’. ठुमरी ठुमकती चली जा रही है, ‘आयो सावन अति मन भावन, रूम झूम के, सखियां गावें कजरिया घूम घूम के, बोलन लागी कोयलिया रूम झूम के’. लय-ताल के बीच ही पंडित जी अब बदले वक़्त के बदलाव से जुड़ी चीजों पर रोशनी डाल रहे हैं.
‘लोग आज-कल मेहनत नहीं करना चाहते. जबकि गोस्वामी तुलसीदास जी कह गए हैं- बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा। मतलब- जैसे जल के बिना रस नहीं, वैसे ही तप के बिना तेज नहीं. लेकिन आजकल की पीढ़ी छह महीने में सीखकर बड़ा कलाकार बनना चाहती है. इसी कारण बहुत सी चीजें उसके हाथ से छूटती जा रही हैं. उसे पता ही नहीं है कि कजरी चार-पांच प्रकार की है. आजमगढ़ की कजरी. मिर्ज़ापुर की कजरी. बनारस की कजरी. छपरा की कजरी. सबका रूप अलग-अलग है. इसी तरह बनारस और उसके आस-पास के इलाकों में ही चैती के तीन स्वरूप हैं. चैता, चैती और घाटो. जब भगवान का जन्म होता है. तो चैता गाते हैं. ये पुरुष है. ऊपर के सुरों में गाया जाता है. फिर चैती, जो स्त्री है. नीचे के सुरों में गाई जाती है. चैता ज्ञान है. चैती भक्ति है. इनमें तीसरा स्वरूप ‘घाटो’ जो बैराग है. उसमें जोग-बियोग दोनों है’.
फिर वे सवाल करते हैं, ‘बताइए, कितने लोग जानते हैं इन स्वरूपों को? कितने लोगों के ध्यान में है कि सृष्टि का पहला संगीत लोक-संगीत है? जन्म के समय तीन सुरों- सा, रे, ग को लेकर जो ‘सोहर’ गाया जाता है, वह संगीत की शुरुआत है. शास्त्रीयता तो बाद में आई.’ इस तरह सावन की कजरी अब भक्ति, आध्यात्म की तरफ़ मुड़ गई है, ‘झूलत हरि संग राधे पलना, पहिने कुसुम रंग चूनरिया रे, बरसन लागी बदरिया’. पंडित जी अपने सुरों और भाव से राधा जी को झूला झुलाते हुए दिखाई दे रहे हैं. यह देख अब तक उनके साथ गा रहे, झूम रहे लोगों के गले अवरुद्ध हो गए हैं. आंखों में आंसू छलक आए हैं. वे राधा-कृष्ण को साक्षात् झूला झूलते हुए देख रहे हैं. भाव-विभोर हैं सब. अंत में पंडित जी ‘मियां-मल्हार’ का एक हिस्सा जोड़कर कजरी को उसके उत्कर्ष पर ले जाते हैं. हालांकि सुनने वालों का मन अभी भरा नहीं है. मौसम नहीं है. लेकिन ताड़ियों की गड़गड़ाहट के बीच अनुरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं, ‘पंडित जी, होरी. पंडित जी, एक बार. एक बार सुना दीजिए. दिगंबर खेलें मसाने में होरी’. और पंडित जी थोड़े से आग्रह के बाद सहज मुस्कान के साथ मान जाते हैं. संगीत, साहित्य, भक्ति, आराधना के बाद अब बारी ‘जोग’ की आई है.
बनारस के ‘जोगिया महादेव का जोग’. पंडित जी की पेशकश का ये चरम है, ‘दिगंबर खेलें मसाने में होरी। गोप न गोपी, श्याम न राधा। न कोई रोक, न कौनऊं बाधा।। न साजन न गोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी।।’ पंडित जी इसके बीच-बीच में भी हर शब्द का भाव, उसका अर्थ बताते जाते हैं. कहते हैं, ‘काशी के महादेव तीनों विधाओं में माहिर हैं- गीतं वाद्यं तथा नृत्यं, त्रयं संगीतमुच्यते. काशी का संगीत का घराना ख़ुद शिव से शुरू होता है’. यह सब बताते हुए पंडित जी दिगंबर को होरी खिलाए जा रहे हैं, ‘नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प गरल पिचकारी।। पी गए प्रेत थपोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी।।’ फिर बताने लगते हैं, ‘भूतनाथ की होरी देखकर ब्रज की छोरियां भी ईर्ष्या किया करती हैं. ‘भूतनाथ की मंगल होरी, देखि सिहाएं बिरज की छोरी, धन-धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी।।’ इस तरह पेशकश का समापन हो रहा है.
उठते-उठते पंडित जी फिर एक काम की बात बताते हैं, ‘अच्छे कलाकार का कर्त्तव्य है कि वह बेसुरा को सुरीला बनाए. उसे सुर का ज्ञान कराए. शास्त्रीय संगीत को ऐसा सरल कर के गाए बजाए कि साधारण जनता को भी समझ में आ जाए. वह जान जाए कि शास्त्रीय संगीत अस्ल में होता क्या है, उसका महत्त्व क्या है’. पंडित जी ऐसी अपनी हजारों सजीव पेशकशों के जरिए यह काम कर चुके हैं. और करते जा रहे हैं. क्या आप को अब भी कोई शुबहा (संदेह) है, जनाब?
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