दास्तान-गो : हिन्दी सिनेमा में ’ग़ज़ल का शाहज़ादा’ मदन मोहन कोहली!

Daastaan-Go ; Madan Mohan death Anniversary Special : मदन मोहन कहा करते थे, ‘धुनें बनाते वक़्त मेरा ज़ेहन सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात का ख़्याल रखता है कि वह धुन सुरीली है या नहीं. क्योंकि किसी भी धुन, किसी भी नग़्मे की रूह तो सुरों में, सुरीलेपन में ही समाई होती है.’

दास्तान-गो : हिन्दी सिनेमा में ’ग़ज़ल का शाहज़ादा’ मदन मोहन कोहली!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ——– जनाब, ये साल 1928 के आस-पास की बात है. इराक़ के शहर बग़दाद में एक हिन्दुस्तानी अकाउंटेंट जनरल हुआ करते थे- रायबहादुर चुन्नीलाल कोहली. उनका बड़ा बेटा उस वक़्त यही कोई चार बरस का रहा होगा. उसे खेलने के लिए कोहली साहब ने एक ड्रम लाकर दिया, बजाने वाला. वह बच्चा उस ड्रम की धुन में ऐसा रमा कि एक रोज़ जब इराक़ी पुलिस की बैंड-पार्टी उसके घर के बाहर से धुनें बजाती हुई निकली, तो वह भी उसमें जा मिला. अपना खिलौना-बैंड बजाते हुए पुलिसिया बैंड-पार्टी के आख़िरी पड़ाव तक पहुंच गया. इधर, रायबहादुर चुन्नीलाल और उनकी बेगम भगवंती देवी को जब पता चला कि बच्चा घर पर नहीं तो उनका दिल ही बैठ गया मानो. अफ़रा-तफ़री के आलम में घंटों तलाश की उसकी. तब कहीं जाकर वह बच्चा पुलिस के ठिकाने पर मिला. इस बच्चे से जुड़ा एक और वाक़िया है जनाब. बताते हैं, ये बच्चा उस छोटी उम्र से ही ‘धुनों का शौक़ीन’ हुआ करता था. इतना कि घर पर रखे क़रीब-क़रीब सभी एलपी (लोंग प्लेइंग) रिकॉर्ड उसने सुन डाले थे. इतना ही नहीं, उसे याद भी हो गया था कि किस रिकॉर्ड में किस तरह की धुन है. उसकी इस याददाश्त का चुन्नीलाल साहब अक्सर अपने जानने-पहचानने वालों के सामने मुज़ाहिरा (प्रदर्शन करना) किया करते थे. उनके सामने वे अपने बेटे से कहते, ‘ज़रा फ़लां रिकॉर्ड लाना तो’. और बेटा कुछ ही देर में एलपी रिकॉर्ड के ढेर से वही रिकॉर्ड चुनकर निकाल लाता, जो उसके वालिद ने लाने को कहा होता. देखने वाले यह देख अचरज में पड़ जाते कि जिस बच्चे को अभी पढ़ने, बोलने की भी समझ नहीं, वह इस तरह से गानों के रिकॉर्ड्स कैसे ढूंढ लाता है! जनाब, धुनों के पैदाइशी शौक़ीन इस बच्चे का नाम जानते हैं क्या हुआ? मदन मोहन. मदन मोहन कोहली. वही मदन मोहन, जिसे एक बार हिन्दुस्तान की अज़ीम गुलू-कार (गाने वाला) लता मंगेशकर साहिबा ने ‘हिन्दी सिनेमा में ग़ज़ल का शाहज़ादा’ कहा था. क्योंकि हिन्दी सिनेमा के यही वे मूसीक़ार (संगीतकार) हुए, जिन्होंने फिल्मों की मूसीक़ी (संगीत) में ग़ज़लों की गायकी को अलग पहचान दी. और दिलवाई भी. इन्हीं मदन मोहन साहब के बड़े साहबज़ादे हैं, संजीव कोहली. ये भी मूसीक़ार हैं. इन्होंने बीते सालों में एक वेबसाइट बनाई थी, ‘मदनमोहनडॉटइन’ के नाम से. उस पर ऐसे तमाम वाक़ियात दर्ज़ हैं. इनके अलावा अंग्रेज़ी ज़बान के दो नामी मुसन्निफ़ हुए हैं, विश्वास नेरुरकर और सुरेश राव. इनमें से विश्वास साहब ने एक किताब लिखी है, ‘मदन मोहन अल्टीमेट मेलोडीज़’. इसी तरह सुरेश साहब ने भी किताब लिखी, ‘मदन मोहन द अनफॉरगेटेबल कंपोज़र.’ इन किताबों का ज़िक्र संजीव साहब ने अपने वालिद के नाम से बनाई वेबसाइट में भी किया है. मदन मोहन साहब की यह दास्तान लिखने के लिए इसी क़िस्म के ज़रियों से मदद मिली है. सभी के शुक्रिया अदा के साथ. तो जनाब, इस तअर्रुफ़ के बाद अब सिलसिला बढ़ाते हैं, मदन मोहन साहब की धुनों से वाबस्तगी का. अभी अंदाज़ा हो गया होगा कि जिस इंसान ने बचपन में ही धुनों को अपना दोस्त, हमराह, हमसफ़र कर लिया हो, बड़ा होकर तो उसे उन्हीं को शरीक़-ए-हयात (जीवन-साथी) करना ही था. जो किया भी. अलबत्ता, ये आसानी से न हुआ. मदन मोहन अभी पांच बरस के हुए थे कि उनके वालिद को इराक़ की सरकार ने साफ़ फ़रमान सुना दिया, ‘या तो इराक़ के ही बाशिन्दे बन जाओ या हिन्दुस्तान चले जाओ’. ये बात है, साल 1929-30 के आस-पास की. इराक़ तब अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद (चार अक्टूबर 1932 को हुआ) हो रहा था. कार्यवाही जारी थी. मदन मोहन साहब के वालिद ने हिन्दुस्तान लौटने का रास्ता चुना. चकवाल में पुरखों के ठिकाने पर आ ठहरे. यह झेलम जिले का एक क़स्बा हुआ करता है. पहले हिन्दुस्तान में था, अब पाकिस्तान के हिस्से आया है. रायबहादुर चुन्नीलाल के वालिद यानी मदन मोहन साहब के दादा हुज़ूर ‘हकीम योगराज’ चकवाल में बड़े नामी हुआ करते थे. आलीशान कोठी थी उनकी वहां. उसे हिन्दी ज़बान में ‘योग आश्रम’ कहा करते थे लोग. तो, साहब यहां पहुंचने के बाद बात आई मदन मोहन की तालीम की. चकवाल, छोटा सा क़स्बा होता था. वहां इंतज़ामात पूरे न थे. लिहाज़ा, मदन मोहन को लाहौर के एक स्कूल में दाख़िल करा दिया गया. यहां उनकी मुलाक़ात हिन्दुस्तानी मूसीक़ी से जुड़ी शख़्सियत सरदार करतार सिंह से हो गई. धुनों से मोहब्बत तो थी ही मदन मोहन को. सो, करतार सिंह की सोहबत में मूसीक़ी का ककहरा सीखना शुरू कर दिया वहीं पर. इससे पहले, जैसा कि बताते हैं, एक-दो बरस जब चकवाल में रहे तो वहां भी अपने दादा हुज़ूर को मूसीक़ी की बारीकियों के बारे में उनके संगी-साथियों के साथ बातें करते सुना करते थे ये. अम्मा को भी मूसीक़ी का थोड़ा-बहुत इल्म था. इन सभी की सोहबत में मदन मोहन अपने क़स्बे के जलसों में गुलू-कारी भी करने लगे थे. हालांकि ये सिलसिला यहां आगे बढ़ता कि वालिद बंबई चले गए. रोज़गार की तलाश में. कुछ वक़्त बाद बीवी-बच्चों को भी वहीं ले गए. बताते हैं, बंबई में जब मशहूर अदाकारा देविका रानी और फिल्मकार हिमांशु राय ने ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के नाम से फिल्म कंपनी बनाई, तो उसमें रायबहादुर चुन्नीलाल भी उनके संग होते थे. तो साहब, बंबई आने के बाद मदन मोहन का दाख़िला बायकुला के सेंट मैरी कॉन्वेंट स्कूल में करा दिया गया. वहां से 17 बरस की उम्र में देहरादून भेज दिए गए. मिलिट्री स्कूल में पढ़ाई के लिए. वहां पढ़ाई पूरी होते ही फ़ौज में नौकरी लग गई. सेकेंड लेफ्टिनेंट बन गए. पर ‘धुनों के संगी’ को फ़ौज कहां रास आने चली आख़िर. बल्कि ये मदन साहब तो बंबई में ही अपने घर-वालों से छिपते-छिपाते घर के पड़ोस में ठहरे एक मकान में जद्दन बाई की बैठकों में शामिल हो जाया करते थे. जद्दन बाई, यानी अदाकार नरगिस की अम्मा और ख़ुद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की मशहूर गुलू-कार. यही नहीं, नौ-दस बरस की उम्र में मदन मोहन बंबई के रेडियो स्टेशन में जाकर गाने भी लगे थे. फ़ौज में ये सिलसिला टूटता लग रहा था. लिहाज़ा, दो साल में उससे छुट्‌टी पा ली. अबकी बार रेडियो की नौकरी की और लखनऊ में जा लगे. वहां नामी-मूसीक़ारों से वास्ता बना. मसलन- उस्ताद फ़ैयाज़ खां, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख़्तर, उस्ताद विलायत खान, पंडित रामनारायण, तलत महमूद वग़ैरा. इन सबकी सोहबत में मदन अब अपनी मूसीक़ी को, अपनी धुनों को परवान चढ़ा रहे थे. कि तभी उनका तबादला हो गया दिल्ली. अलबत्ता, दिल्ली उन्हें रास न आई और ये नौकरी भी छोड़ दी. इस वक़्त तक मदन मोहन के वालिद रायबहादुर चुन्नीलाल बंबई की फिल्मी दुनिया में अच्छी-ख़ासी जगह बना चुके थे. लेकिन वे इस बात बहुत ख़फ़ा हो गए कि उनके बेटे ने सरकारी नौकरी छोड़ दी है. गुस्से में उन्होंने बेटे को घर में दाख़िल होने की इजाज़त देने से मना कर दिया. मदन मोहन भी ठहरे ख़ुद्दार. तीन-चार बरस बंबई की सड़कों पर भटके, काम की तलाश में. लेकिन झुके नहीं. ये बात हुई, साल 1947 से 1950-52 के आस-पास तक की. इस दौरान ‘शहीद’ (1948) जैसी कुछ फिल्मों में अदाकारी करने की कोशिश. गाने गए. ग़ज़लें गाईं. ‘आंखें’ (1950), ‘शाबिस्तान’ (1951), ‘धुन’ (1953), ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ (1956), वग़ैरा फिल्मों में जो नग़्मे गाए, उनकी मूसीक़ारी भी ख़ुद की. इसके अलावा ‘दो भाई’ जैसी फिल्मों में उस दौर के बड़े मूसीक़ार सचिन देव बर्मन के असिस्टेंट भी बने. लेकिन बात बनी नहीं. आख़िर, पड़ाव ठहरा मुसीक़ार की हैसियत से ही. सुनने वाले लोग मूसीक़ी में उनकी तारीफ़ें तो शुरू से ही किया करते थे. वो तो मदन मोहन ही थे, जो लगातार तज़रबे किए जाते थे. हालांकि जब उन्हें भी एहसास हुआ तो माना उन्होंने, ‘मूसीक़ी मेरी रगों में थी. उसे बाहर आने से कोई रोक नहीं सकता था. किस्मत तय कर चुकी थी कि मुझे मूसीक़ी की समझ का जो तोहफ़ा कुदरत ने दिया है, उसे सुनने वालों के साथ बाटूं.’ और यक़ीन जानिए जब उन्होंने अपने इस फन को बांटना शुरू किया न, हिन्दुस्तान और उसकी सरहदों से बाहर भी, हिन्दी नग़्मे सुनने वाला कोई कान ऐसा न हुआ, जिसकी गहराई तक उनकी धुनें न पहुंची हों. कुछ धुनें याद दिला देते हैं, मिसाल के लिए. ‘लग जा गले से कि फिर ये हसीं रात हो न हो’, ‘दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन’, ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे’, ‘रुके-रुके से क़दम रुक के बार-बार चले’, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में’, ‘नैनों में बदरा छाए, बिजुरी से चमके हाय’, ‘कर चले हम ज़ुदा जान-ओ-तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो’. जनाब महज़ 51 बरस की ज़िंदगी जिए मदन मोहन. साल 1924 में जून की 25 तारीख़ को इराक़ के शहर बग़दाद में पैदा हुए. और आज, यानी 14 जुलाई की तारीख़ को, साल 1975 में इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहकर जाते रहे. इस दौरान यही कोई 27-28 साल का फिल्मी सफ़र तय किया. लेकिन, इतने वक़्त में ही क़रीब 95 फिल्मों के 700 से ज़्यादा नग़्मों की धुनें बना डालीं उन्होंने. कहा करते थे, ‘धुनें बनाते वक़्त मेरा ज़ेहन सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बात का ख़्याल रखता है कि वह धुन सुरीली है या नहीं. क्योंकि किसी भी धुन, किसी भी नग़्मे की रूह तो सुरों में, सुरीलेपन में ही समाई होती है.’ इस क़ायदे को ता-ज़िंदगी क़ायम रखा उन्होंने, अपनी मूसीक़ी में. अपनी धुनों को हिन्दुस्तानी राग-संगीत के दायरे से बाहर न जाने दिया कभी. यही वज़ह है कि मदन मोहन आज भी सुनने वालों के कानों के दायरे में पाए जाते हैं. अपनी धुनों के मार्फ़त वे मौज़ूदगी का, अपने साए का इर्द-गिर्द एहसास कराया करते हैं. आने वाली कई सदियों तक ऐसे ही कराते रहने वाले हैं. ठीक उसी तरह, जैसे उन्हीं की बनाई एक धुन पर ठहरे नग़्मे में लता मंगेशकर फ़रमाती हैं, ‘तू जहां जहां चलेगा मेरा साया साथ होगा’, राग ‘नंद कल्याण’. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 14, 2022, 19:08 IST