दास्तान-गो : आरएसएस का पहला ‘संगी-आरएसएस’ जिसकी नींव लक्ष्मीबाई केलकर ने डाली
दास्तान-गो : आरएसएस का पहला ‘संगी-आरएसएस’ जिसकी नींव लक्ष्मीबाई केलकर ने डाली
Daastaan-Go ; Laxmi Bai Kelkar Birth Anniversary Special : फिर नींव डाली गई दूसरे ‘आरएसएस’ यानी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की. इस तंज़ीम में सब कुछ तो आरएसएस की तरह हुआ. बस, तीन नज़रियात (सिद्धांत) लक्ष्मीबाई ने अलहदा पेश किए. एक- मातृत्त्व, दूसरा- कर्तत्त्व और तीसरा- नेतृत्त्व. यानी औरतें पहले मां की तरह किरदार अदा किया करें. फिर समाजी कार्रवाइयों में हिस्सा लें और इसके बाद अगुवाई (लीडरशिप) के लिए ख़ुद को तैयार करें.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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जनाब, आरएसएस का पूरा नाम हिन्दुस्तान क्या, उससे बाहर भी किसी से पूछ लिया जाए. जवाब एक ही मिलेगा, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’. ग़लत नहीं है. लेकिन इससे जुड़ा दूसरा पहलू भी है अलबत्ता. यूं कि ‘आरएसएस’ के ही नाम से एक दूसरी तंज़ीम (संगठन) भी होती है. पूरा नाम है इसका, ‘राष्ट्र सेविका समिति’. आरएसएस के ही कुनबे से जुड़ी पहली संगी-तंज़ीम (आनुषंगिक संगठन). नागपुर की एक बड़ी लीडर हुईं हैं लक्ष्मीबाई केलकर. उन्होंने इस दूसरे ‘आरएसएस’ की बुनियाद रखी थी. साल 1936, 25 अक्टूबर की तारीख़ और दशहरे के मौके पर. आज यानी छह जुलाई की तारीख़ उन्हीं लक्ष्मीबाई से त’अल्लुक़ रखती है. क्योंकि इसी तारीख़ पर 1905 के साल में उनकी पैदाइश हुई थी. वहां एक सरकारी मुलाज़िम हुआ करते थे भास्कर राव दाते. ऑडिटर जनरल के दफ़्तर में काम करते थे. उन्हीं के घर पैदा हुईं कमल, जो लक्ष्मीबाई कहलाईं आगे.
कुछ वज़ा से कमल की स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई. हालांकि उनकी मां यशोदाबाई मिज़ाज से घरेलू होने के बावजूद फुर्सत के वक़्त उस दौर के अख़बार और मैगज़ीन वग़ैरा पढ़ा करती थीं. सिर्फ़ पढ़ती नहीं, बताते हैं, मोहल्ले की औरतों को साथ बिठाकर उन्हें देश-दुनिया के हालात का जाइज़ा दिया करती थीं. पूरा हाल बताती थीं. इस तरह दो चीजें कमल के ज़ेहन और शख़्सियत में बचपन से ही जगह पा चुकी थीं. किसी ख़ास मक़सद से लोगों को जुटाना और पढ़ना-पढ़ाना. आगे चलकर इन्हीं दो चीज़ों ने उनकी शख़्सियत को बड़ा करने में सबसे अहम किरदार अदा किया. हालांकि इसमें वक़्त था अभी. कमल 14 बरस की थीं, 1919 में, जब उनका ब्याह हो गया. नागपुर के पास एक जगह है, वर्धा. वहां के बड़े वकील पुरुषोत्तम राव केलकर के साथ. हिन्दुस्तानी घरों की रिवायत के मुताबिक ससुराल में कमल का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रख दिया गया.
लक्ष्मीबाई ससुराल में पुरुषोत्तम राव की दूसरी पत्नी थीं. उनकी पहली पत्नी का इंतिक़ाल हो चुका था. उनसे हुईं दो बेटियां अभी छोटी थीं. लिहाज़ा लक्ष्मीबाई पर पहली ज़िम्मेदारी उन बच्चियों को पालने-पोषने की आन पड़ी. इसे उन्होंने बख़ूबी निभाया भी. साथ ही उनके अपने जो छह बच्चे हुए, उन्हें भी सही परवरिश दी. उस दौर में हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई अपने उरूज पर पहुंचती जाती थी. लक्ष्मीबाई इसमें हिस्सा लेना चाहती थीं लेकिन ससुरालवाले इसके लिए राज़ी न थे. हालांकि अधिकांश लोग पढ़े-लिखे थे उस घर में. फिर भी घर से बाहर औरतों के निकलने पर कुछ अंदेशे थे उन लोगों को. लेकिन लक्ष्मीबाई ने अपनी ननदों की मदद से ये सब अंदेशे दूर किए और धीरे-धीरे मीटिंग, प्रभात-फेरी वग़ैरा में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. इस तरह जब वे घर की दहलीज़ से बाहर निकलीं तो आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें मुख़्तलिफ़ तजरबे होने लगे.
मसलन, लक्ष्मीबाई देख रही थीं कि अंग्रेजी तालीम तेजी से हिन्दुस्तान में अपना दायरा बढ़ा रही है. इससे औरतों आज़ाद-ख़्याल हो रही हैं और इसके असर से घर-बार, समाज की कई अच्छी रिवायतों को भी बेड़ियों की तरह महसूस करने लगी हैं. उनकी मुख़ालिफ़त करने लगी हैं. इसी बीच, लक्ष्मीबाई के बड़े होते बेटों ने आरएसएस की कार्रवाइयों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था. उसके असर से उनमें भी कुछ बदलाव महसूस किए लक्ष्मीबाई ने. मिसाल के तौर पर ज़ब्त-ओ-नज़्म (अनुशासन) में रहना. मौके आने पर समाज के लोगों की मदद-गारी के लिए आगे आना. हिन्दुस्तान की पुरानी और बेहतर रिवायतों (परंपरा) और सक़ाफ़त (संस्कृति) को जिंदा रखने, क़ायम रखने की कोशिश करना. उनकी अहमियत समझना. उसे दूसरों को समझाना. कहते हैं, लक्ष्मीबाई हिन्दुस्तान की औरतों को भी यह सब समझाने की मंशा रखती थीं. ये इरादा कर लिया था उन्होंने.
अपने इरादे को अमल में लाने के लिए अब उन्हें एक राह भी नज़र आने लगी थी, जो आरएसएस से होकर गुजरती थी. लिहाज़ा वे इस कोशिश में लग गईं किसी तरह उनकी मुलाक़ात डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार से हो जाए. यह हेडगेवार ही थे जिन्होंने 27 सितंबर 1925 को नागपुर में दशहरे के रोज़ आरएसएस की बुनियाद डाली थी. अब वे पूरे मुल्क में उसका दायरा बढ़ाने में लगे थे. लिहाज़ा लक्ष्मीबाई को पूरा भरोसा हो चला था कि उनके ज़रिए वे अपने मंसूबे को पूरा कर सकती हैं. हालांकि इसी बीच साल 1932 में लक्ष्मीबाई को बड़ा झटका लगा, जब उनके पति का इंतिक़ाल हो गया. इससे कुछ वक़्त के लिए उन्हें घर-बच्चों की देख-भाल के लिए समाजी-मंसूबा किनारे रखना पड़ा. साल-दो साल का वक़्त उसी में लगाया पहले. इसके बाद उनकी ज़िंदगी में बड़ा साल आया 1934 का, जब महात्मा गांधी और डॉक्टर हेडगेवार दोनों वर्धा में आ मिले.
लक्ष्मीबाई ने दोनों नेताओं को सुना. मगर मुलाक़ात का मौका मिला डॉक्टर हेडगेवार से. आरएसएस के एक लीडर अप्पाजी जोशी इस मुलाक़ात का ज़रिया बने. वे डॉक्टर हेडगेवार को पहले ही लक्ष्मीबाई के समाजी-कामों और मंशा के बारे में बता चुके थे. बातचीत हुई तो लक्ष्मीबाई ने भी डॉक्टर हेडगेवार के सामने अब तक हुए अपने तजरबों को तफ़्सील से बताया. साथ ही ज़रूरत गिनाई कि आरएसएस जैसी तंज़ीम में औरतों को भी जगह दी जानी चाहिए. कहते हैं, डॉक्टर हेडगेवार इस पहली मुलाक़ात में ही लक्ष्मीबाई की शख़्सियत को अच्छी तरह भांप गए थे. लिहाज़ा उन्होंने अपनी तरफ़ से उन्हें मशविरा दिया कि वे औरतों के लिए आरएसएस के ही दायरे में उसी के तरह की अलग तंज़ीम बनाएं. और इसकी अगुवाई भी ख़ुद संभालें. लक्ष्मीबाई को यह बात जंच गई और उन्होंने उसी साल से इस जानिब काम करना शुरू कर दिया. शुरुआत हुई मेल-जोल बढ़ाने से.
कहते हैं, लक्ष्मीबाई अपनी कुछ संगी-साथिनों को लेकर क़रीब-क़रीब रोज़ ही घर-घर जाकर औरतों से मिला करतीं. उन्हें अपना मंसूबा बतातीं. उनको अपने साथ जोड़ने की कोशिश किया करतीं. इस तरह की कोशिशों के बाद जब एक ठीक-ठाक तादाद में औरतें उनसे जुड़ गईं तो फिर नींव डाली गई दूसरे ‘आरएसएस’ यानी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की. इस तंज़ीम में सब कुछ तो आरएसएस की तरह हुआ. बस, तीन नज़रियात (सिद्धांत) लक्ष्मीबाई ने अलहदा पेश किए. एक- मातृत्त्व, दूसरा- कर्तत्त्व और तीसरा- नेतृत्त्व. यानी औरतें पहले मां की तरह किरदार अदा किया करें. फिर समाजी कार्रवाइयों में हिस्सा लें और इसके बाद अगुवाई (लीडरशिप) के लिए ख़ुद को तैयार करें. उसके लिए आगे आएं. ये तीनों चीज़ें वही थीं, जो लक्ष्मीबाई ने अब तक कर के दिखाई थीं. सब के सामने इसकी मिसाल पेश की थी. इस तरह लक्ष्मीबाई अब एक समाजी-तंज़ीम की मुखिया हो गईं.
जनाब, आरएसएस के बड़े लीडर होते हैं सुनील आंबेकर. उनकी किताब है, ‘आरएसएस रोडमैप्स फॉर ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’. इसमें वे बताते हैं कि आरएसएस की तरह ही इस दूसरे ‘आरएसएस’ में भी दो तरह की मेंबर हुआ करती हैं. पहली- जो पूरी ज़िंदगी इसी तंज़ीम को दे चुकी (पूर्णकालिक) होती हैं. दूसरी- जो थोड़े वक़्त के लिए इसके साथ जुड़ती हैं. हर साल मई और जून में 15-15 दिन के लिए इस तंज़ीम के ट्रेनिंग-कैंप हुआ करते हैं. तीन साल, तीन तरह की ट्रेनिंग होती है. इसके अलावा पूरे मुल्क में करीब 5,000 शाख़ें (शाखाएं) चला करती हैं. साथ ही समाज की मदद और भलाई के लिए 900 से ज़्यादा मंसूबे (योजनाएं) इस तंज़ीम ने अपने हाथ में ले रखे हैं. तालीम और सेहत से लेकर तमाम मसलों पर इसकी मेंबर लगातार काम किया करती हैं. हिन्दुस्तान के बाहर मुल्कों में भी इस तंज़ीम की शाख़ें हैं. इनमें हजारों की तादाद में मेंबर जुड़ी हुई हैं. जो ‘मौसीजी’ (लक्ष्मीबाई केलकर) के इंतिक़ाल (27 नवंबर 1978) के बाद उनके कामों को आगे बढ़ा रही हैं.
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Tags: Hindi news, up24x7news.com Hindi Originals, RSSFIRST PUBLISHED : July 06, 2022, 15:48 IST