दास्तान-गो : हरिशंकर परसाई… कहते थे ‘ज़िम्मेदारियों को ग़ैर-ज़िम्मेदारी से निभाओ’
दास्तान-गो : हरिशंकर परसाई… कहते थे ‘ज़िम्मेदारियों को ग़ैर-ज़िम्मेदारी से निभाओ’
Daastaan-Go ; Hari Shankar Parsai Birth Anniversary : अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने यह भी लिखा है, ‘गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है. क्योंकि मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं. मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता. इसलिए गर्दिश नियति है’. हालांकि, परसाई जी को जानने, समझने, चाहने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने उनके सितारे ग़र्दिश में पाए हों.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, पहले एक शे’र. अर्ज़ किया है, ‘रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं’. और अब मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शे’र का हिन्दी व्यंग्य जैसा तर्ज़ुमा (अनुवाद) देखिए, ‘परसाई, डरो किसी से मत. डरे कि मरे. सीने को ऊपर कड़ा कर लो, भीतर से तुम चाहे जो भी हो. जिम्मेदारियों को गैर-जिम्मेदारी से निभाओ’. अब कोई पूछ सकता है कि ये कैसा तर्ज़ुमा हुआ भला? अलबत्ता, यह सवाल दिमाग़ में लाने से पहले दोनों चीज़ों पर ग़ौर फ़रमाएं, ज़रा नज़दीक से. समझ आ जाएगा कि बातें अलबत्ता, दोनों एक ही हैं. बस, उसी बात को मिर्ज़ा ग़ालिब के कहने का तरीका एक है और हरिशंकर परसाई का दूसरा. हरिशंकर परसाई, जिनके कहने और करने के अंदाज़ में कोई बड़ा भेद नहीं रहा कभी. इस बात की कई मिसालें ख़ुद उन्होंने ही कई मर्तबा अपने इंटरव्यू वग़ैरा के दौरान दी हैं. ये छपे भी हैं और रेडियो पर भी प्रसारित हुए हैं.
ऐसा ही, क़रीब डेढ़ घंटे का एक इंटरव्यू परसाई जी ने ऑल इंडिया रेडियो के लिए दिया. यू-ट्यूब पर तीन किस्तों में है. इसमें अपनी सोच, अपने अनुभव, लेखन वग़ैरा के मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर उन्होंने खुलकर बात की है. सब बताया है. यह भी कि अगर वे यूं कहते हैं, ‘ज़िम्मेदारियों को ग़ैर-ज़िम्मेदारी से निभाओ’ तो उसके मायने क्या हैं. अस्ल में इसके मायने ग़ैर-ज़िम्मेदार होना नहीं. बल्कि इतना ही है कि अपने दुख, अपनी तक़लीफ़ और ज़िम्मेदारियों के बोझ के नीचे दबकर मरना नहीं है. उसे सहज भाव से लेते हुए आगे बढ़ते जाना है. अपना काम करते जाना है. वे बताते हैं, ‘मेरा जन्म 22 अगस्त 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ. ब्राह्मण परिवार में. लेकिन हमारे घरवाले पुरोहिताई नहीं करते थे. मालगुजार थे. खेती भी करते थे. हालांकि परिवार में मतभेद की वज़ह से पिताजी खानदान से बाहर आकर काम करने लगे’.
‘पिताजी (श्री जुमक लालू प्रसाद) ने जब गांव छोड़ा तो मेरी उम्र दो साल के क़रीब थी. बाहर आए तो पिताजी लकड़ी के कोयले का धंधा करने लगे. उसके लिए जंगल (ठेका) लेना पड़ता था. तो, उसी के पास के गांवों, क़स्बों में हम लोग रहा करते. मेरे दो भाई और तीन बहनें हुईं. हमसे सबसे नज़दीकी परिवार मेरी बड़ी बुआ का रहा. पिताजी के अलावा मेरी बुआ थीं, जिनका बचपन में मुझ पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा. पिताजी से मैंने संघर्ष करना और जीवट के साथ हर हालात का सामना करना सीखा और बुआ से धीरज, हिम्मत. कुछ भी हो जाए. किसी भी तरह के हालात हों, वे हमेशा कहा करती थीं- कोई चिंता नहीं. सब ठीक हो जाएगा. उससे बड़ा हौसला मिला करता था मुझे. ख़ास तौर पर उस वक़्त जब मैट्रिक पास करने के कुछ पहले से ही मेरे जीवन में संघर्ष का, मुश्क़िलात का दौर शुरू हो गया था. यह साल 1937-38 के आस-पास की बात रही होगी’.
‘मैं शायद आठवीं का छात्र था. हम टिमरनी में रहते थे. कस्बे में प्लेग फैला. मां (चंपाबाई) को चपेट में ले लिया उसने. पूरा गांव खाली हो गया. सिर्फ़ तीन-चार परिवार ही बचे थे. एक हमारा भी था. मां का इलाज़ कराते-कराते पिताजी का काम छूट गया. घर की माली हालात बिगड़ने लगी. मां की भी बिगड़ती गई. अंत समय में उनके सामने हम लोग आरती गाते थे. कभी-कभी, गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते. मां बिलखकर हम बच्चों को सीने से चिपटा लेती. हम भी रोने लगते. फिर ऐसे ही भयानक त्रासद वातावरण में एक रात तीसरे पहर मां का निधन हो गया. पांच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ सिर्फ़ मैं ही समझता था. हादसों से यह मेरा पहला बड़ा साक्षात्कार था. मां की मृत्यु के सदमे से एक-दो साल बाद पिताजी भी बीमार रहने लगे. इसी बीच, 1939 में जब मैं मैट्रिक पढ़ रहा था तो एक और हादसा मेरे सामने पेश आया. अलबत्ता वह समाजी था’.
‘स्कूल के मैदान में एक बार हम बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे. हमारे साथ रेलवे के स्टेशन मास्टर के दो बच्चे थे. उनमें से एक के हाथ से गेंद ग़ुम हो गई. लेकिन उन्होंने आरोप मुझ पर लगा दिया. स्कूल के खेल-शिक्षक ने भी उन्हीं की बात सुनी, मेरी नहीं. क्योंकि वे बड़े आदमी के बच्चे थे. मुझ पर एक रुपया का ज़ुर्माना लगाया गया. ज़ुर्माना न भरने पर मेरी परीक्षा का प्रवेश-पत्र रोक लिया गया. जबकि अगले दिन से परीक्षा शुरू होने वाली थी. उस रोज़ मैं शाम तक परेशान रहा. फिर डरते-डरते पिताजी को पूरी बात बताई. उन्होंने फटकार लगाने के बाद एक रुपया दिया, जो मैंने बतौर ज़ुर्माना अदा किया. इसके बाद मुझे प्रवेश-पत्र मिला. और यहीं इस अनुभव से पहली बार समाज में फैले वर्ग-भेद की चेतना ने मेरे भीतर प्रवेश किया. मैट्रिक पास करने के बाद मैं नौकरी की तलाश में लग गया क्योंकि पिताजी बीमार रहने लगे थे. परिवार की ज़िम्मा अब मुझ पर था’.
‘महज़ 17-18 बरस की उम्र में ही मैं जंगल-विभाग में नौकरी करते हुए परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने लगा. उस नौकरी के दौरान प्रकृति ने मुझे बड़ी सीखें दीं. जंगल में सरकारी टपरे पर रहा करता था. ईंटों की चौकी बनाकर, पटिए पर चादर बिछाकर सोता था. चूहों का आतंक रात भर चलता था. लेकिन वे चूहे बड़े उपकारी साबित हुए मेरे लिए. उन्होंने ऐसी आदत डाली कि आगे की ज़िंदगी में भी तरह-तरह के ‘चूहे’ (विपरीत परिस्थितियां, लोग) मेरे ऊपर-नीचे, अगल-बगल ऊधम करते रहे, सांप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिए बिछाकर, आराम से सोता रहा. इसी तरह, उन्हीं दिनों वर्ग-भेद की तरह भाषाई-भेद का भी अनुभव हुआ मुझे. मैं जंगल-विभाग की नौकरी के कुछ महीनों बाद ही खंडवा चला गया. वहां एक स्कूल में शिक्षक हो गया. लेकिन वहां से मुझे टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज भेज दिया गया. जबलपुर में तब एक ही इस तरह का कॉलेज होता था.’
‘अब तक 1941 का साल आ चुका था. जबलपुर में हॉस्टल में मेरा रहना-खाना होता. यहां मेरी ट्रेनिंग दो साल चली, 1943 तक. इस दौरान अक्सर मुझे काम और पिताजी के इलाज़ के सिलसिले में होशंगाबाद, इटारसी, इंदौर, खंडवा आदि जगहों पर जाना होता. जेब में पैसे नहीं होते थे. परिवार भी मुझ पर निर्भर था. तो मैं बे-टिकट यात्रा करता था, ट्रेन में. कभी पकड़ा जाता, तो ‘श्रेष्ठ समझी जाने वाली अंग्रेजी’ ज़बान काम आती. पढ़ने-लिखने में शुरू से मैं ठीक था. ठीक-ठाक अंग्रेजी और थोड़ी-बहुत उर्दू जानता था. तो अंग्रेज़ी बोलते ही टिकट चैक करने वाले बाबू मुझसे प्रभावित हो जाया करते. मैं उन्हें अपनी मुनासिब वज़हें बताता और वे मुझे दया दिखाकर कहते- लेट्स हैल्प द पुअर बॉय. इसके बाद छोड़ देते. यूं अंग्रेजी ज़बान की महिमा और उससे जुड़ी सोच से मेरा साक्षात्कार हुआ. इस तरह ज़िंदगी के अनुभव मेरा व्यक्तित्त्व तैयार कर रहे थे’.
‘जबलपुर में ट्रेनिंग पूरी होने के बाद वहीं मॉडल हाईस्कूल में नौकरी लग गई. मैं हमेशा से शिक्षक बनना चाहता था. ऐसा सोचा नहीं था कि लेखक बनूंगा और उसी से मेरी पहचान होगी. लेकिन जबलपुर में दो-तीन अनुभव पेश आए मेरे सामने. इनमें दो हादसों की शक्ल में और एक प्रेरणा की तरह. पहला ये हुआ कि इस नौकरी के बाद जैसे ही मुझे पहली तनख़्वाह मिली, पिताजी गुज़र गए. यह बड़ा सदमा था मेरे लिए. दूसरा यूं कि इसी शहर में एक मशहूर जगह है, बड़ा-फुहारा. वहां दीवाली की रात एक मर्तबा मैं सड़क पर घूम रहा था. तभी एक बडी सी चमचमाती कार के पास मैंने दो ग़रीब बच्चों को खड़े देखा. कार के प्रति उनके मन कौतुक था. उनका मन नहीं माना तो उन्होंने उसे छू कर देख लिया. मानिए ये कोई ग़ुनाह हो गया उनसे. पहले तो उन्हें ड्राइवर ने धकिया दिया. इसके बाद पीछे से आकर कार के मालिक ने उन्हें तमाचे जड़ दिए’.
‘मेरा ख़्याल है ये शायद 1947-48 के आस-पास की बात है. इस वक़्त तक मैं कार्ल मार्क्स जैसे विचारकों को पढ़ने लगा था. पढ़ना मेरी रुचि का विषय रहा हमेशा से. स्कूल के दिनों से ही मैं तरह-तरह की क़िताबें और नियमित रूप से अख़बार पढ़ा करता था. स्कूल में नौकरी के दौरान जब मुझे वक़्त मिलता या घर पर भी, तो कुछ-कुछ लिखता भी रहता था. हमेशा एक मोटी कॉपी मैं अपने साथ रखता रहा. जब कोई विचार, शब्द, घटना वग़ैरा ध्यान में आता, उसे तुरंत उस कॉपी में लिख लिया करता. यहां तक ये सब ऐसा ही था. हालांकि बड़े-फुहारे पर उन बच्चों के साथ हुई घटना ने लिखने के मेरे इस क्रम में नया मोड़ दिया. मैंने उसे जस का तस एक वाक़ि’अे की तरह लिख डाला. उन दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग होकर समाजवादी विचार वाले नेताओं की बड़ी ज़मात देशभर में सक्रिय हो चुकी थी. जयप्रकाश नारायण उसके अगुवा थे’.
‘जबलपुर में पंडित भवानी प्रसाद तिवारी इसी ज़मात के नेता थे. ये लोग क्रांति की भाषा बोलते थे. यह हमारे जैसे युवाओं को जल्द समझ में आती थी. तो तिवारी जी ने उन दिनों ‘प्रहरी’ साप्ताहिक अख़बार निकालना शुरू किया था. बड़ी ओजस्वी क़िस्म की सामग्री होती थी उसमें. उसे मैं नियमित पढ़ता था. उसी में मैंने बड़े-फुहारे की घटना वाला अपना लेख भेज दिया. अस्ल नाम नहीं लिखा. ‘उदार’ उपनाम से भेजा. यह उपनाम भी मेरी भावना की अभिव्यक्ति ही थी क्योंकि उस दौर में मुझे उदारता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत महसूस होती थी. तो वह रचना मेरी प्रकाशित हुई और काफ़ी पसंद की गई. उस के बाद तिवारी जी ने अपने एक परिचित की मदद से मुझे ढुंढवाया और अख़बार के लिए नियमित रूप से लिखने की पेशकश की. उसे मैंने मंज़ूर कर लिया’.
‘दरअस्ल, अब तक मेरे अंदर भाव और विचार दोनों परिपक्व होने लगे थे. व्यक्त होना चाहते थे. उस अभिव्यक्ति के लिए मैं क्रांति का झंडा बुलंद करने की स्थिति में तो था नहीं. सो, लिखने को ज़रिया बनाया. इस तरह मेरे लेखन की शुरुआत हुई. हालांकि, जल्द ही इसकी वज़ह से मुझे अपनी जमी हुई नौकरी भी छोड़नी पड़ी. क्योंकि धीरे-धीरे यह ज़ाहिर होने लगा कि ‘उदार’ के नाम से लिखने वाला मैं ही हूं. मेरा लिखा हुई अक्सर तीखा होता था. उसकी वज़ह से अख़बार और उसके संपादकों पर भी तमाम केस हुए. पर वे तो ठहरे समाजवादी, क्रांतिकारी. इसलिए सब झेल गए. लेकिन मेरे स्कूल के प्रिंसिपल मेरी लेखनी के इन तेवरों से घबरा गए. उन्होंने मेरा तबादला नज़दीक के एक क़स्बे में कर दिया. मैं वहां गया भी. लेकिन ज़्यादा दिनों तक फिर नौकरी हुई नहीं और पूरी तरह लेखन की विधा में आ गया. इसके बाद ‘वसुधा’ नाम से एक पत्रिका भी निकाली’.
‘अपनी उस पत्रिका को मैंने ख़ुद बेचा भी. सड़कों पर, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड पर. अलबत्ता वह भी एक अनुभव ही था, जिसमें मुझे हर बार अपने लेखन के लिए मुख़्तलिफ़ किरदार, मसले, वाक़ि’अे वग़ैरा मिल जाते थे. दरअस्ल, मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि सब कुछ अनुभवों से आता है. इसीलिए मैंने अपने किसी अनुभव को बेकार नहीं जाने दिया. उसे हासिल करने का कोई मौका नहीं छोड़ा. अपने अध्ययन, ज्ञान की कसौटी पर हर अनुभव का विश्लेषण किया. फिर वही किसी न किसी रचना के रूप में सामने आया. अपने दुखों के प्रति सम्मोहन भाव सब में होता है. हर कोई चाहता है कि उसके दुख को मान्यता मिले. लेकिन रचनाकार को यह मोहजाल काटना पड़ता है. मुझे लगता है, मैं इसमें कुछ हद तक सफल रहा. दूसरों के कष्ट को देखकर, महसूस कर, उसके प्रति संवेदनशील होने से मुझे सफलता मिली. मेरे दुख की भावना ने विस्तार पाया इससे’.
‘मैंने जब अपने से बाहर देखा तो पाया कि मेरी तरह तो तमाम लोग हैं. बल्कि मुझसे कहीं ज्यादा दुखी हैं. इस एहसास से मैं अपने दुख के सम्मोहन भाव से ऊपर उठ सका. उस भाव से धीरे-धीरे बाहर निकल पाया. समय के सींग को मैंने उल्टा मोड़ दिया. फिर एक प्रकार की मस्ती का भाव आ ठहरा मुझमें कि ठीक है जी, चल रहा है. चल जाएगा. इससे मैं कई बार फिर अपनी विसंगतियों, अपने हालात पर भी चोट करने में सफल रहा’. तो जनाब, इस तरह थे परसाई जी. अलबत्ता, अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने यह भी लिखा है, ‘गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है. क्योंकि मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं. मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता. इसलिए गर्दिश नियति है’. हालांकि, परसाई जी को जानने, समझने, चाहने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने उनके सितारे ग़र्दिश में पाए हों. साल 1995 की तारीख़ 10 अगस्त को, यह दुनिया छोड़कर अनंत आकाश में करोड़ों सितारों के बीच उनके समा जाने के बाद भी कभी नहीं.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 22, 2022, 09:19 IST