दास्तान-गो : सदाबहार देव-आनंद हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया!

Daastaan-Go ; Evergreen Dev Anand Birth Anniversary : ‘मैं रात 11:30 बजे सुरैया के घर पहुंचा. घर की छत पर सुरैया पहले से मौज़ूद थीं. वह दौड़कर मेरे सीने से लग गईं. रोने लगीं. हम दोनों आधे घंटे तक रोते रहे. उन आंसुओं में हमारी मोहब्बत भी बह गई. हमने हमेशा के लिए एक-दूसरे को भूल जाने का फ़ैसला कर लिया. वह अपने घर की ‘दहलीज़’ नहीं लांघ सकी. और मैं ‘मूव-ऑन’ कर गया.’

दास्तान-गो : सदाबहार देव-आनंद हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ———– जनाब, साल 1961 में एक फिल्म आई थी ‘हम दोनों’. हिन्दी सिनेमा की ये उन चुनिंदा फिल्मों में शुमार होती है, जो काले-सुफ़ेद दौर में फिल्माई गईं और आगे जाकर जिनको रंगीन किया गया. ये फिल्म हिन्दी सिनेमा में सदाबहार कहे जाने वाले देव-आनंद साहब ने बनाई थी. नंदा और साधना जैसी अदाकाराओं के साथ दोहरे किरदार में अदाकारी भी देव साहब की ही है. फिल्म का निर्देशन विजय आनंद ने किया है, जो देव साहब के सगे भाई होते थे. इस फिल्म के लिए नग़्मा-निगार साहिर लुधियानवी ने जितने ख़ूबसूरत और अब तक गुनगुनाए जाने वाले नग़्मे लिखे, मूसीक़ार जयदेव ने उनके लिए उतनी ही शानदार धुनें बनाई. कुछ मिसालें हैं, जैसे- ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’, ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं’, ‘कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया’ और ‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’. इन नग़्मों में ये जो आख़िरी है न, ‘मैं ज़िंदगी का साथ…’ वाला. मुमकिन है, देव-साहब की ही शख़्सियत को ध्यान में रखकर साहिर ने लिखा हो. हालांकि, साहिर ख़ुद भी कुछ-कुछ इसी तरह की तबीयत रखते थे. फिर भी देव-साहब पर इस नग़्मे के बोल पूरी तरह फिट बैठते हैं. क्योंकि उन्हें उनके जानने वालों ने उनकी पूरी ज़िंदगी में आख़िरी सांस तक लगातार काम करते देखा. हमेशा अपनी ख़ास अदा में रहते देखा. हमेशा मुस्कुराते हुए देखा. गोया, किसी चीज की कभी कोई फ़िक्र ही न रही हो. और अगर कभी रही भी हो तो ‘हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाते चले हों’. पुख़्ता तो नहीं कह सकते इस बारे में, पर बताते हैं कि ज़िंदगी में देव साहब सिर्फ़ दो ही बार रोए. एक बार उनकी आंखों से आंसू तब निकले जब उनकी बेटी देविना का तलाक़ हुआ. और इससे भी कई बरस पहले एक बार तब, जब उन्हें अपनी मोहब्बत और मशहूर अदाकारा सुरैया से अलग होना पड़ा. देव-साहब ने ‘रोमांसिंग विद-लाइफ़’ के नाम से अपनी सवानेह लिखी है. हिन्दी ज़बान में उसे ‘आत्म-कथा’ कहा करते हैं. इसमें उन्होंने अपनी शख़्सियत से जुड़े मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर रोशनी डाली है. मसलन- साल 1923 में आज ही की तारीख़ यानी 26 सितंबर को पंजाब में गुरदासपुर के शकरगढ़ में जब वे पैदा हुए तो बचपन वहां कैसे बीता. फिर कॉलेज की पढ़ाई के लिए लाहौर गए तो वहां गुज़री जवानी के क़िस्से. इसके बाद फिल्मों में काम करने का मंसूबा लिए जब बंबई आए तो वहां किस तरह के वाक़ि’ओं से गुज़रना पड़ा. बंबई आकर मशहूर फिल्मकार और अदाकार गुरु दत्त के साथ उनकी दोस्ती कैसी रही. राज कपूर और दिलीप कुमार के साथ उनके रिश्ते कैसे रहे, जिनके साथ मिलकर देव-साहब ने अपने दौर में ‘अदाकारी की त्रि-मूर्ति’ जैसी क़ायम की थी. कल्पना कार्तिक से शादी और सुरैया के साथ मोहब्बत के क्या, क्यूं, कैसे का ज़वाब भी किताब में है. बात 1947 के आस-पास की है. उस साल एक फिल्म बन रही थी ‘विद्या’. उस फिल्म में देव-साहब को तब की मशहूर अदाकारा सुरैया जमाल शेख़ के साथ लिया गया था. सुरैया की मशहूरियत तब यूं होती थी कि मरीन ड्राइव के पास उनके घर के सामने क़द्र-दानों की क़तारें लगा करती थीं. कभी-कभी तो मामला यहां तक पहुंच जाता कि भीड़ संभालने के लिए पुलिस बुलानी पड़ जाती. इसी चक्कर में सुरैया अपनी फ़िल्मों के प्रीमियर पर भी कम ही जा पाती थीं. साल 1943 में आई उनकी फिल्म ‘इशारा’ ने उन्हें ऐसी मशहूरियत दी थी. लोग उनकी अदाकारी, उनके चेहरे-मोहरे, उनकी आवाज़ (वे गायिका भी थीं), सब के दीवाने हुए जाते थे. ऐसी मक़बूल-ए-‘आम सुरैया के असर से, उनके जादू से, फिल्मी दुनिया में पैर ज़माने के लिए मुसलसल जद्द-ओ-जहद कर रहे नए-नवेले देव-साहब भी कैसे बचते भला. तो वे उसकी ज़द में आ गए और सुरैया को दिल दे बैठे. इस बारे में देव-साहब ही बताते हैं, ‘सुरैया मेरा पहला प्यार थीं. वह गाड़ियों में आया-जाया करती थीं. मैं ट्रेनों में सफ़र किया करता था. वह बहुत अच्छी थीं. उनके दोस्ताना रवैये का मुझ पर बहुत असर हुआ था. इतनी बड़ी अदाकारा होकर भी उनमें घमंड नहीं था. तो बस, ऐसे ही मिलते-जुलते उनसे मुझे मोहब्बत हो गई. बे-इंतिहा मोहब्बत. हालांकि शुरू में उनका रवैया मेरे साथ महज़ दोस्ती का ही रहा. फिर एक रोज़ फिल्म के सैट पर हादसा हो गया. एक गाना नाव पर फिल्माया जा रहा था. तभी शूटिंग के दौरान नाव पलट गई. सुरैया पानी में डूबने लगीं. मुझे कुछ सूझा नहीं और मैंने पानी में छलांग लगा दी. वह भले मुझे अब तक अपना दोस्त ही मानती थीं, पर मेरी तो वह पहली मोहब्बत थीं. उन्हें इस हाल में कैसे छोड़ सकता था. बाहर निकाल लाया उन्हें. उन्हें उनकी सांसें मिल गईं और मुझे मेरी मोहब्बत. इस हादसे ने मुझे उनके दिल के नज़दीक ला दिया’. बताते हैं, हादसे के बाद सुरैया ने एक बार किसी इंटरव्यू के दौरान कहा भी था, ‘देव सिर्फ पर्दे के ही हीरो नहीं हैं. अस्ल ज़िंदगी में भी दिलेर हैं’. तो इस तरह जनाब, दोनों की मोहब्बत परवान चढ़ने लगी. देव-साहब बताते हैं, ‘उस वक़्त हम दोनों को मिलने के लिए बहुत जद्द-ओ-जहद करनी पड़ती थी. वह बड़ी सितारा थीं. हमेशा लोगों से घिरी रहती थीं. बड़ी मुश्किल से उनसे मिल पाता था. ऐसे ही, एक दिन हम चुपके से एक पानी टंकी के पास मिले. सुरैया ने मुझसे लिपटकर ‘आई लव यू’ कहा. इसके बाद मेरे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. मैंने सोच लिया, अब ऐसे नहीं चलेगा. मैंने फ़ौरन फिल्म के सैट पर ही किसी से तीन हजार रुपए उधार लिए. उन पैसों से एक अंगूठी ख़रीदी. उसे लेकर सुरैया के सामने पहुंचा और शादी की पेशकश कर दी’. हालांकि इनकी मोहब्बत के बीच मज़हब की दीवार आ गई जनाब. और बताते हैं, यह दीवार खड़ी की थी सुरैया की सख़्त-मिज़ाज नानी ने. सुरैया का मां मुमताज़ बेगम, हालांकि देव-साहब को पसंद करती थीं. वह दोनों को हौसला देती थीं. उन्हें मिलने के मौके भी मुहैया कराती थीं. लेकिन सुरैया की नानी को देव-साहब शक़्ल तक पसंद नहीं थी. वे नहीं चाहती थीं कि उनकी नवासी का रिश्ता एक हिंदू लड़के से हो. आख़िरकार उन्हीं की चली और बावजूद इसके कि मज़हब की दीवार तोड़ने को सुरैया तैयार थीं, लेकिन जैसा देव-साहब अपनी किताब में लिखते हैं, ‘रिश्तेदारों के आगे यह मुमकिन न हुआ’. और फिर इसी किताब में इन दोनों की आख़िरी मुलाक़ात का ज़िक्र भी, ‘मैं एक आख़िरी बार उनसे मिलना चाहता था. उनसे अपने दिल की बात कहना चाहता था. एक आस थी भीतर कहीं कि शायद वह अपने रिश्तेदारों के दबाव को कंधों से झटक देंगी. लिहाज़ा, मैंने आख़िरी बार उनसे मिलने के लिए जब उन्हें फोन किया तो, ख़ुश-क़िस्मती से उनकी मां ने उठाया. उन्होंने हमें मिलने की इजाज़त दे दी’. ‘मैं रात 11:30 बजे सुरैया के घर पहुंचा. घर की छत पर सुरैया पहले से मौज़ूद थीं. वह दौड़कर मेरे सीने से लग गईं. रोने लगीं. हम दोनों आधे घंटे तक रोते रहे. उन आंसुओं में हमारी मोहब्बत बह गई. हमें हमेशा के लिए एक-दूसरे को भूल जाने का फ़ैसला करना पड़ा. वह ‘दहलीज़’ नहीं लांघ सकीं. मुझे ‘मूव-ऑन’ करना पड़ा.’ जी जनाब, यही सच है. सुरैया ने ज़िंदगी में फिर कभी किसी से शादी नहीं की और देव-साहब इस वाक़ि’अे के कुछ बरस बाद ही साल 1954 में कल्पना कार्तिक के हमराह हो गए. कल्पना ख़ुद अदाकारा रही हैं. पंजाबी ईसाई परिवार में उनकी पैदाइश हुई है. मोना सिंघा उनका अस्ल नाम है. साल 1954 की ही फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ की शूटिंग के दौरान वे देव-साहब के नज़दीक आईं और आनन-फ़ानन में दोनों ने शादी कर ली. सुरैया की तरह शायद देव-साहब उन्हें खोना नहीं चाहते थे. हालांकि शादी के बाद भी देव-साहब की ‘रोमांटिक इमेज़’ नहीं बदली. देव-साहब ख़ुद को ‘एटरनल रोमांटिक’ मानते रहे. उनके लिए रूमानियत का मतलब मोहब्बत पाना नहीं, बल्कि मोहब्बत करना और करते रहना रहा. इसीलिए वह हर किसी से मोहब्बत करते रहे. मोहब्बत बांटते रहे. जैसा वे ख़ुद कहा करते थे, ‘मैं सोचने-विचारने से त’अल्लुक़ रखने वाले परिवार से आया हूं’. तो इस सोच-विचार के नतीज़े में उन्होंने अपना एक अलग स्टाइल, अपनी अलहदा इमेज़ बनाई फिल्मी दुनिया में. अंग्रेजी-बाबू के जैसी पतलून, कमीज़. गले में ख़ास तरह से बांधा गया स्कार्फ. कंधे पर काला कोट या जैकेट. क्या कहने… बताते हैं, इस अदा पर लड़कियां वारी-वारी जाती थीं. छतों से कूद जाया करती थीं, उनके दीदार के लिए. इसी वज़ह से एक बार तो मामला अदालत में पहुंच गया. इस मांग के साथ कि देव-साहब के काले कोट, जैकेट पर प्रतिबंध लगाया जाए. इससे हादसे हो जाते हैं. और कहते हैं, प्रतिबंध लगा भी इस पर, कुछ वक़्त के लिए. अलबत्ता, मक़बूलियत की इस बलंदी के बावज़ूद वे कभी फूलकर कुप्पा नहीं हुए. ग़म के दौर गुज़रे, तो उनसे टूटे भी नहीं कभी. ‘मूव ऑन’ पर यक़ीन रखते थे वह. यानी आगे बढ़ते रहने पर. लिहाज़ा, आख़िरी वक़्त तक बढ़ते रहे. कुछ न कुछ गढ़ते रहे. ‘मूव-ऑन’ करते रहे. और फिर यूं ही एक रोज ‘ज़िंदगी का साथ निभाते-निभाते’ दुनिया से ‘मूव ऑन’ कर गए. साल 2011 के दिसंबर महीने की तीन तारीख़ थी वह. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी 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