दास्तान-गो : महाश्वेता देवी कहती थीं- हर आदिवासी मानो एक महादेश है!

Daastaan-Go ; Mahashweta Devi and her Literary Contribution : दास-मजदूर प्रथा के विरोध में जहां आंदोलन है, वहां अब ऐसा संभव नहीं. लेकिन व्यवसाय के लिए लड़कियों को बेचना तो चल ही रहा है. ‘दौलती’ आज भी सच है. भारत में सब जगह सच. इसलिए कहानी का अंत भी सोचकर लिखा. ‘दौलती’ का रक्ताक्त सड़ा शव भारत में सर्वत्र फैला हुआ है.

दास्तान-गो : महाश्वेता देवी कहती थीं- हर आदिवासी मानो एक महादेश है!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ————— जनाब, हिन्दुस्तान की अदबी (साहित्यिक) दुनिया में एक बहुत बड़ा नाम हुआ है, महाश्वेता देवी का. बांग्ला ज़बान में लिखा करती थीं. मगर उनकी लिखाई ऐसी असरदार हुई कि हिन्दी समेत मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) ज़बानों में उनके लिखे का ख़ूब तर्जुमा (अनुवाद) हुआ. करीब 100 उपन्यासें लिखीं उन्होंने. इसके साथ ही 20 से ज़्यादा कहानियों के संकलन छपे उनके. इनमें न होंगी तो कम से 100-150 कहानियां तो होंगी ही. और इन सबकी ख़ास बात ये है कि इनमें शायद ही कोई कहानी या उपन्यास ऐसा हुआ, जो ख़्याली हो. यानी कि काल्पनिक. सब ठोस हक़ीक़त के नज़दीक. ऐसी कि आज भी उन्हें पढ़कर ये नहीं लगेगा कि अरे, ‘हमारे समाजी दायरे में ऐसा कहां होता है’. हालांकि, हिन्दुस्तान का आदिवासी समाज उनकी लिखाई का सबसे अहम मसला रहा. इसके बारे में उन्होंने इस तरह लिखा कि गोया, वे ख़ुद उस समाज को अपने भीतर जी रही हों कहीं. महाश्वेता कहा करती थीं, ‘आदिवासियों में प्रकृति के सारे गुण मिलते हैं. जैसे पहाड़ों का धैर्य, नदियों की शांति. हर आदिवासी मानो एक महादेश है. लेकिन हम लोगों ने कभी उन्हें जानने का प्रयत्न ही नहीं किया. उनसे प्रेम करना नहीं सीखा. सभी आदिवासी क्षेत्रों में यह बात सत्य है कि हम लोगों ने उन्हें नष्ट करके रख दिया है’. इनके बारे में इन्हीं के लफ़्ज़ों के रास्ते से गुजरते हुए आगे की दास्तान कहें कि उससे पहले यह बताना लाज़िम होता है कि आज की तारीख़, यानी 28 जुलाई को साल 2016 में महाश्वेता देवी ने इस दुनिया से रुख़्सती ली थी. तब 90 साल की उम्र (14 जनवरी 1926 की पैदाइश) थी उनकी. और आज जब उनकी ये दास्तान लिखी जा रही है, तो एक नहीं बल्कि दो-तीन दिलचस्प इत्तिफ़ाक़ पेश आए हैं. एक तो ये कि अभी हफ़्ता भर पहले ही आदिवासी मुहतरमा (माननीया) द्रौपदी मुर्मू हिन्दुस्तान के सद्र (राष्ट्रपति) के ओहदे पर बैठी हैं. ग़ौर फरमाएं कि सिर्फ़ आदिवासी ही नहीं, औरतों के मसले भी महाश्वेता देवी की लिखाई के मरकज़ (केंद्र) रहे हैं. तिस पर 28 जुलाई को ‘विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस’ भी मनाया जाता है. इसके तहत जल, जंगल और ज़मीन के साथ ही जंगलों में रहने वाले आदिवासी समाज के संरक्षण की बात की जाती है. पूरी दुनियाभर में. जबकि यही तमाम बातें महाश्वेता अपनी लिखाई के ज़रिए बरसों तक लगातार बुलंद करती रही हैं. सिर्फ़ लिखाई के ज़रिए ही नहीं, जब भी कोई ख़बरनवीस उनसे बात करने आया, उन्होंने उन मौकों पर भी बेबाक़ी से अपनी बात रखी. इन मसलों पर और ज़ाती ज़िंदगी से जुड़े तमाम सवालों पर भी. उनके कुछ इंटरव्यू यू-ट्यूब जैसे कुछ प्लेटफॉर्म्स पर मिल जाएंगे जनाब. उनमें एक इंटरव्यू राजीव महरोत्रा ने लिया है. ये ख़ुद तो राइटर हैं ही. टेलीविज़न के लिए डॉक्यूमेंट्रीज़ वग़ैरा भी बनाया करते हैं. अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक भी महावेश्ता देवी से बातचीत कर चुकी हैं. इसी तरह ‘सीगल बुक्स’ के पब्लिशर नवीन किशोर ने उनसे बात की है. इस पब्लिकेशन के ख़ाते में उनकी कई किताबें आई हैं. जनाब, महाश्वेता देवी आज के बांग्लादेश की राजधानी ढाका में पैदा हुईं. वहां के एक मुसन्निफ़ (लेखक) हुए अख़्तर-उज़-ज़मान. उनके साथ भी महाश्वेता देवी की बातचीत हुई. इन सभी मौकों पर महाश्वेता देवी ने जो अपने मुख़्तलिफ़ ख़्याल सामने रखे, उनको उन्हीं के लफ़्ज़ों में जानना बेहतर होगा. मसलन नवीन कुमार के साथ बातचीत के दौरान वे बताती हैं, ‘मैं दूसरी बार विवाह बंधन में बंधने के बाद असित (गुप्त) के साथ रहने लगी थी. वहां माहौल बहुत अलग था. तिस पर, एक अकेलेपन की दीवार ने भी मुझे घेर रखा था. उस वक़्त सिर्फ़ लेखन ही था, जिसके दम पर मैं अपने आप को बचाकर रख रही थी’. आगे कहती हैं, ‘असित को लगता था, मेरा लेखन बहुत साधारण और औसत क़िस्म का है. मुझे ज़्यादा कुछ आता नहीं है. लेकिन मैं पढ़ती बहुत थी. घूमती भी ख़ूब थी. असित के साथ शादी में रहने के दौरान ही मैंने पलामू जाना भी शुरू कर दिया था. कई बार वहां गई. यही वह समय था, जब मुझे आदिवासियों के मसलों में अधिक दिलचस्पी जागी. इससे पहले आदिवासियों के बीच मैंने काम नहीं किया था.’ जनाब, यहीं बताते चलें कि ‘पलामू’ के नाम से भी महाश्वेता ने एक कहानी लिखी है. इस तरह के आदिवासी इलाकों में दिन, महीने गुजारने के बाद वे इस समाज के बीच की ज़िंदा कहानियां निकालकर लाया करती थीं. उनकी ज़ुबानी आगे, ‘मैंने 1975 में असित का घर भी छोड़ दिया. ज़िंदगी में इस मोड़ के बाद से मैं हर बंधन से आज़ाद थी. अब मुझे किसी को नहीं बताना था कि मैं कहां जा रही हूं. कब घर आ रही हूं. क्या कर रही हूं’. ऐसे ही महाश्वेता लेखन के बारे में बता रही हैं, ‘उन दिनों कलकत्ता का दक्षिणी इलाका उदार क्षेत्र माना जाता था. नक्सलपंथी और नक्सलविरोधी, दोनों वहां कुछ देर सांस लेने और आराम करने आते थे. इसी दौरान मेरे लेखन में नक्सल आंदोलन का ज़िक्र चल पड़ा. ‘पिंडदान’, ‘कन्हाई बैरागी की मां’, जैसी कहानियां मैं पूरी कर चुकी थी. एक शाम दो नौजवान मुझसे भेंट करने मेरे घर आए. उन्होंने मुझसे पूछा- आपने गांव-गिरांव के बारे में तो बहुत लिखा है, शहर के बारे में कौन लिखेगा? तब उन लोगों को ध्यान में रखकर मैंने ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, जो बांग्ला की फिल्मी पत्रिका ‘प्रसाद’ में छपा. इसमें मैंने एक ऐसी गैर-राजीनतिक मां की कहानी लिखी, जिसकी पूरी की पीढ़ी, अपनी अगली पीढ़ी, यानी अपने बच्चों के बारे में बिल्कुल अंधेरे में थी. उनके बच्चों ने मां-बाप के कम्युनिस्ट विचारों को झूठा, बनावटी कहकर ख़ारिज़ कर दिया था’. लेखन के ज़रिए नक्सलवाद के समर्थन के आरोपों पर महाश्वेता ज़वाब देती हैं, ‘वैसे, इस आंदोलन से मैं सीधे-सीधे कभी नहीं जुड़ी. वह तो ‘प्रसाद’ पत्रिका किसी तरह जेल तक भी पहुंच गई. नक्सल क़ैदियों ने वहां मेरी रचना पढ़ी और वे लोग ख़ुद को मेरा आत्मीय समझने लगे. हालांकि मुझे नहीं लगता कि मैंने उन लोगों के लिए ख़ास कुछ किया है. मुझे नक्सल आंदोलन के बारे में ‘ऑथोरिटी’ माना जाता है. लेकिन, आई एम नो ऑथोरिटी! मुझे नहीं पता, मैंने कोई थ्योरी भी नहीं पढ़ी. मुझे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओत्से तुंग पढ़ाने की बेहद कोशिश की गई. मगर मुझसे पढ़ा नहीं गया. मैंने सिर्फ इंसानों को पढ़ा है, उनसे ही सबक लिया है’. और किस तरह जनाब? वह भी बताती हैं महाश्वेता अपनी ही एक कहानी ‘शिकार’ की मिसाल देते हुए, ‘इस कहानी में सभी घटनाएं सच हैं. आदिवासियों में नारी बलात्कार, उसका अपमान करना बड़ा अपराध है’. वे बताती हैं, ‘कहानी में जिसे ‘उरांव’ कहा गया है, उसे मैंने देखा है. आदिवासी लोग लिखते नहीं. जब जो घटित होता है, उसे लेकर गाना बना देते हैं. वे लोग गानों के माध्यम से युद्ध, संघर्ष, प्राकृतिक विपदा आदि सारी स्मृतियों को बचाए हुए हैं. ऐसे ही, जाड़े की एक रात खुले आसमान के नीचे आग सेंकते-सेंकते मैंने कहानी सुनी. शिकार-उत्सव की. इसमें आदिवासी समाज की लड़कियां ‘अपराधी का शिकार’ करती हैं. उसे समाज के सामने लाकर दंडित करवाती हैं. इसे ‘जानी-परब’ भी कहा जाता है. जाड़े की उस रात भी ‘जानी-परब’ ही था. उसमें एक लड़की ने अपने ‘अपराधी का शिकार’ करवाया था. जिस व्यक्ति को मारा गया, वह एक तरह से भेड़िया था’. इसी तरह औरतों के मसलों पर वे बताती हैं, ‘तीन कहानियां दास-मजदूर को लेकर लिखीं. ‘दौलती’ इनमें पहली है. फिर ‘पलामू’, जिसमें एक लड़की की बुद्धिमत्ता से दास-मजदूरों के संगठित होने की बात है’. ‘तीसरी कहानी है, ‘गोहूंमनि’. इसमें लड़की प्रतिशोध लेती है. जो कर्ज़ के बदले उसे ले जाने के लिए आते हैं, उन्हें दंडित करती है. ऐसे ही, एक स्थानीय अस्पताल में कंकालकाय लड़की मिली. वह अपने गांव का नाम छोड़कर और कुछ न बोल सकी. उसे लेकर कहानी लिखी. गांव का नाम दिया ‘सेउरा’. ऐसा गांव सब जगह है. दास-मजदूर प्रथा के विरोध में जहां आंदोलन है, वहां अब ऐसा संभव नहीं. लेकिन व्यवसाय के लिए लड़कियों को बेचना तो चल ही रहा है. ‘दौलती’ आज भी सच है. भारत में सब जगह सच. इसलिए कहानी का अंत भी सोचकर लिखा. ‘दौलती’ का रक्ताक्त सड़ा शव भारत में सर्वत्र फैला हुआ है. हैदराबाद के एक विशेष इलाके में चारदीवारी के बीच ख़रीदार लोग विवाह के नाम पर लड़कियों को खरीदते हैं. माता-पिता वहां जाने के लिए बाध्य हैं. क्योंकि वे इतने गरीब हैं कि अपनी बेटी को अन्न-वस्त्र तक ख़रीदकर नहीं दे सकते’. इसके बाद महाश्वेता कहती हैं, ‘जब तक हिन्दुस्तान की आबादी के 80 फ़ीसद लोग गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे रहेंगे, तब तक ये सब बंद नहीं हो सकता. औपनिवेशिकतावाद से मुक्त होना गरीबों के भाग्य में नहीं’. ग़ौर कीजिए जनाब, क्या महाश्वेता देवी की लिखाई और कहन, दोनो में ही सौ फ़ीसद सच्चाई का अक्श नज़र नहीं आता? यक़ीनन कुछ न कुछ तो ज़रूर आया होगा. जबकि ये तो महज़ चंद लफ़्ज़ हैं, जो उनकी शख़्सियत के कुछ मुख़्तलिफ़ पहलू सामने रखने के लिए लिखे गए हैं. वर्ना, तो उनके जैसी शख़्सियत के बारे में असल जाइज़ा तो तभी मिलना मुमकिन है, जब ज़्यादा नहीं तो कम से कम उनके लिखे क़िस्सों, उपन्यासों के लफ़्ज़ी-ग़लियारों से होकर गुज़र आया जाए. क्योंकि सही मायनों में अज़ीम शख़्सियतों के काम ही उनकी दास्तान कहा करते हैं. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 28, 2022, 17:29 IST