दास्तान-गो : प्रेमनाथ की ‘मधुबाला’ और मधुबाला से पहले वाली ‘अनारकली’… बीना राय!
दास्तान-गो : प्रेमनाथ की ‘मधुबाला’ और मधुबाला से पहले वाली ‘अनारकली’… बीना राय!
Daastaan-Go ; Bina Ray Birth Anniversary Special : ‘अपना घर, अपनी कहानी’ बीना राय के फिल्मी सफ़र का आख़िरी पड़ाव बनी. हालांकि इससे दो बरस पहले, 1966 में आई फिल्म ‘दादी मां’ (ये फिल्म बीना को भी ख़ूब पसंद थी) का ज़िक्र ज़्यादा मौज़ूं (उपयुक्त) जान पड़ता है. आज ‘गुरु पूर्णिमा’ है न, इस लिहाज़ से. इस फिल्म में मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा एक नग़्मा है, ‘उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी. ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.’ इंसान की पहली गुरु, पहली उस्ताद उसकी मां ही तो होती है न, इसलिए.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, आज फिर ‘अनारकली’ की बात करते हैं. शहंशाह अकबर के शाहज़ादे सलीम की मोहब्बत अनारकली को तमाम लोग जानते हैं. तारीख़ में दर्ज़ है वह. फिर लाहौर (अब पाकिस्तान में) के रहने वाले उर्दू अदब के बड़े मुसन्निफ़ (लेखक) इम्तियाज अली ताज़ ने साल 1922 में अफ़साने (नाटक, उपन्यास) की शक़्ल में जिस ‘अनारकली’ को सूरत दी, उसका डंका भी दुनिया में बजा. क्योंकि अस्ल में यही वह ‘अनारकली’ थी, जिसकी मोहब्बत में करीमुद्दीन आसिफ़ (के आसिफ़) आ जकड़े थे. वह भी इस तरह कि बाद वक़्त उन्होंने सिनेमाई पर्दे पर ‘मुग़ल-ए-आज़म’ (1960 में) की सूरत में मुग़लिया दौर ही तामीर (नए सिरे से मकान बनाना या आबाद करना) कर दिया. यहां से सबको ये भी अच्छी तरह याद ही रहा कि वे मुमताज़ जहां बेगम देहलवी उर्फ़ मधुबाला थीं, जिन्होंने शाहज़ादा सलीम और के आसिफ़ की ‘अनारकली’ को पर्दे पर जीया था. उसे नई ज़िंदगी दी थी.
इसके साथ ये भी सबका जाना-समझा ही है कि मधुबाला को ‘करीम की अनारकली’ की सूरत में पर्दे पर आने में करीब आठ साल (1952 से, जब मधुबाला, दिलीप कुमार जैसे फ़नकारों को साथ लेकर दूसरी बार मुग़ल-ए-आज़म बनना शुरू हुई) लगे थे. हालांकि ये जानने वाले कम हैं कि इसी बीच साल 1953 में एक और ‘अनारकली’ फिल्मी पर्दे पर नमूदार (प्रकट) हुई थी. मधुबाला से पहले वाली. तब नंदलाल जसवंतलाल नाम के एक फिल्मकार हुआ करते थे. उन्होंने ‘अनारकली’ के नाम से ही तुरत-फुरत एक फिल्म बनाकर सिनेमाघरों में पेश कर दी थी. वैसे, इस फिल्म के बारे में ज़्यादा याद न आता हो तो इसके कुछ अब तक मशहूर नग़्मों पर ग़ौर फरमाइए. मसलन- ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है, जो समझाई नहीं जाती, ज़ुबां पर दिल की बेचैनी कभी लाई नहीं जाती’, ‘जाग दर्द-ए-इश्क़ जाग, दिल को बेकरार कर’, ‘ये ज़िंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया’. याद आया कुछ?
यक़ीनन बहुत कुछ याद आया होगा. क्योंकि इस ‘काली-सफ़ैद’ फिल्म के नग़्मों ने मुख़्तलिफ़ रंग सुननों वालों के कानों में घोले थे, उस वक़्त. इस फिल्म में उस दौर की मशहूर अदाकारा बीना राय ने ‘अनारकली’ का किरदार अदा किया था. बात पुरानी है. ऐसे में इनका चेहरा यूं ख़्याल में न आता हो तो साल 1963 की फिल्म ‘ताज-महल’ के कुछ मशहूर नग़्मे याद कर लीजिए. यूं हुए, ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, रोके ज़माना चाहे रोके ख़ुदाई तुमको आना पड़ेगा’, ‘जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं तेरी तस्वीर में नहीं’, ‘पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी वर्ना हमको नहीं इनको भी शिक़ायत होगी’. अब रंगीन ख़्यालों में एक हंसता मुस्कुराता चेहरा याद आया न? वे ही बीना राय हैं. जो आज यानी 13 जुलाई को ही पैदा हुई थीं, लाहौर में. साल 1931 की बात है ये. पंजाबी हिंदू परिवार में पैदाइश हुई थी इनकी. जहां बचपन का नाम हुआ कृष्णा. कृष्णा सरीन. हालांकि बीना राय के जन्म तारीख को लेकर दूसरा मत भी है जो दावा करता है कि उनका जन्म 4 जून को हुआ था.
वालिद अविनाश राम सरीन रेल महकमे में ऊंचे ओहदे पर हुआ करते थे. जबकि मां लाजवंती घर संभाला करती थीं. बताते हैं, फिल्मों की शौक़ीन तो बचपन से ही थीं कृष्णा. और फिल्मों में जाने का मंसूबा भी बांध लिया था. मगर बड़े-बुज़ुर्गों के कहने पर पहले पढ़ाई पूरी की. लाहौर से स्कूली तालीम हासिल करने के बाद लखनऊ के इज़ाबेला थोबर्न कॉलेज में आर्ट की डिग्री के लिए दाख़िला लिया. लेकिन यहां पहले बरस की पढ़ाई ही कर रही थीं कि तभी अख़बार में एक इश्तिहार पर उनकी नज़र जा टिकी. तब के मशहूर फिल्मकार, अदाकार किशोर साहू को अपनी अगली फिल्म के लिए तीन नई लड़कियों की ज़रूरत थी. इसके लिए उन्होंने हुनर-मंद लड़कियों का एक मुक़ाबला रखा था बंबई में. सो, अब यहां से ख़ुद को रोक न पाईं कृष्णा. ठान लिया कि बंबई जाकर वे इस मुक़ाबले में हिस्सा लेंगी. कॉलेज में ड्रामे वग़ैरा तो किया ही करती थीं. जीता का भरोसा था.
ये बात है साल 1950 की. हालांकि अभी कृष्णा लखनऊ से रेलगाड़ी में बैठतीं कि उससे पहले ही उन्हें इल्म हुआ कि उन्हीं के कॉलेज की दो प्रोफेसर भी उनके साथ बंबई के मुक़ाबले में उतरने का मंसूबा बांध चुकी हैं. अब इनकी उनसे कोई अदावत तो थी नहीं. सो, तीनों एक साथ बंबई के लिए निकल पड़ीं. इनमें एक का नाम था- इंदिरा पांचाल (कारोबारी आनंद महिंद्रा की मां) और दूसरी- आशा माथुर. और इत्तिफ़ाक़ देखिए कि ये तीनों उस मुक़ाबले में अव्वल तीन रहीं. हालांकि बाज़ी हाथ लगी कृष्णा सरीन के और वे अगले साल, यानी 1951 में किशोर साहू के साथ बतौर अदाकारा ‘काली घटा’ फिल्म में नुमूदार हुईं. जबकि इंदिरा और आशा ने इस फिल्म में दूसरे किरदार अदा किए. हालांकि किशोर साहू ने कृष्णा का नाम इस फिल्म से ‘ग़ायब’ कर दिया. उन्होंने ‘बीना राय’ के नाम से पेश कि कृष्णा को. लिहाज़ा कृष्णा का फिल्मी सफ़र इसी नाम से आगे बढ़ा.
हालांकि ये सफ़र अभी शुरू हुआ था कि इसमें दो ख़ूबसूरत मोड़ आए एक के बाद एक. दोनों 1952 के आस-पास. पहला वाक़िया तो ‘अनारकली’ फिल्म की शक़्ल में पेश आया, जो बड़ी तेज-रफ़्तारी से बनी और उतनी ही तेजी से उसने बीना राय को हिन्दुस्तान के घर-घर में पहचाना जाने वाला चेहरा बना दिया. दूसरा वाक़िया ‘औरत’ फिल्म की शूटिंग के दौरान हुआ. इस फिल्म में बीना राय के साथ उस दौर के मशहूर अदाकार प्रेमनाथ काम कर रहे थे. लेकिन वे इस तरह साथ आए कि फिल्म पूरी होने से पहले ही पूरे के पूरे बीना राय के साथी बन गए. शरीक-ए-हयात (जीवन-साथी) हो गए. इस तरह मधुबाला से पहले जो ‘अनारकली’ फिल्मी पर्दे पर आई, वह असल जिंदगी में ‘प्रेमनाथ की मधुबाला’ बन गई. ‘प्रेमनाथ की मधुबाला’ यूं कि बीना से पहले प्रेमनाथ अस्ल में मधुबाला के इश्क़ की ग़िरफ़्त में हुआ करते थे. वह भी इस हद तक कि दोनों शादी भी करने वाले थे.
ख़ुद बीना रॉय ने एक इंटरव्यू के दौरान इस बात को माना था. उन्होंने बताया था कि मुमताज़ जहां बेगम देहलवी उर्फ़ मधुबाला के वालिद अताउल्ला खां को इस बात पर सख़्त एतिराज़ गुज़रा कि उनकी बेटी किसी ग़ैर-मुस्लिम से निकाह करे. लिहाज़ा उनका रिश्ता न हो सका. हालांकि उनके बीच दोस्ताना तअल्लुक़ात बाद वक़्त भी बने रहे फिर. और मधुबाला की बीमारी के वक़्त भी प्रेमनाथ लगातार उनकी मिज़ाज पुर्सी करते रहे. इस पर बीना राय को भी कभी कोई एतिराज़ न हुआ. क्योंकि उनके बीच भी तअल्लुक़ात मियां-बीवी से ज़्यादा एक अज़ीज़ दोस्त के हुआ करते थे. जो बड़े नज़दीक से एक-दूसरे को समझ लिया करते थे. यही तो वज़ह रही कि शादी के बाद भी बीना लंबे वक़्त तक फिल्मों में काम करती रहीं. और प्रेमनाथ ने भी उन्हें रोका-टोका नहीं कभी. हालांकि साल 1968 के आस-पास जब घर और बाहर का ताल-मेल बिठाना उनके लिए मुश्किल होने लगा तब बीना ने ख़ुद अपने फिल्मी सफ़र पर ठहराव ला दिया फिर.
‘अपना घर, अपनी कहानी’ बीना राय के फिल्मी सफ़र का आख़िरी पड़ाव बनी. वैसे इससे दो बरस पहले, 1966 में आई फिल्म ‘दादी मां’ (ये फिल्म बीना को भी ख़ूब पसंद थी) का ज़िक्र ज़्यादा मौज़ूं (उपयुक्त) जान पड़ता है. आज ‘गुरु पूर्णिमा’ है न, इस लिहाज़ से. इस फिल्म में मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा एक नग़्मा है, ‘उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी. ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी.’ इंसान की पहली गुरु, पहली उस्ताद उसकी मां ही तो होती है न, इसलिए. बीना राय भी अगर अपने शरीक़-ए-हयात प्रेमनाथ के लिए उनकी ‘मधुबाला-सी’ हुईं तो अपने बच्चों के लिए उनकी उम्दा-उस्ताद (श्रेष्ठ गुरु) हुईं. दो बेटे हुए बीना राय और प्रेम नाथ के. बड़े- प्रेम किशन और छोटे- कैलाश मोंटी नाथ. इन दोनों, इनके बाल-बच्चों और अपने तमाम चाहने वालों, अज़ीज़ों को पीछे छोड़कर साल 2009 में बीना इस दुनिया-ए-फ़ानी (नश्वर जगत) को अलविदा कह गईं. वह छह दिसंबर की तारीख़ थी उस बरस.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 13, 2022, 17:38 IST