दास्तान-गो : ब व कारंत… कहते थे- जब तक ज़िंदा रहूंगा थिएटर करता रहूंगा

Daastaan-Go ; B.V. Karanth Death Anniversary : पहले दिन रिकॉर्डिंग रूम में पहुंचे, तो वहां का दरवाजा खोलकर आगे बढ़े ही थे कि पीछे से आवाज आई- चूंssssss ठक्क. इसे सुनते ही वे ठिठक गए. पलटकर फिर दरवाजा खोला. वह दोबारा वैसी ही आवाज के साथ बंद हुआ. यह सुनते ही उन्होंने मजाकिया लहजे में दरवाजे को हाथ जोड़ते हुए कहा- आप तो पूरे सुर में हैं. वहां मौजूद लोगों को लगा कि यह मजाक है. मगर सब लोग तब अचरज में पड़ गए, जब....

दास्तान-गो : ब व कारंत… कहते थे- जब तक ज़िंदा रहूंगा थिएटर करता रहूंगा
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… ———– जनाब, साल 2002 की बात है यह. शायद जुलाई या अगस्त महीने की. बेंगलुरू के एक अस्पताल प्रोस्टेट (पौरुष ग्रंथि) कैंसर से जूझता एक मरीज़ लेटा हुआ है. हालत दिन-पर-दिन बिगड़ती जा रही है. सिरहाने उसकी पत्नी बैठी हुई हैं. हालांकि रिश्ते अब वे इस मरीज़ की पत्नी नहीं रहीं. लेकिन नाते से प्रेमिका हैं. दोस्त हैं. इस लिहाज़ से मरीज़ की तीमारदारी में कसर नहीं छोड़ रही हैं. और यह मरीज़ है कि पलंग से उठ-उठकर बच्चों की सी ज़िद किए जाता है, ‘मुझे जाने दो, थिएटर करना है. मुझे जाने दो’. डॉक्टर और नर्स उसे संभालने के लिए कई बार उसके हाथ बांध देते हैं. यह देख उसकी कोई पुरानी टीस उभर आती है और कहने लगता है, ‘फिर बे-क़ुसूर मेरे हाथ बांधे. फिर बे-क़ुसूर मेरे हाथ बांधे’. वक़्त बीतते शांत होता है तो ‘बीबी’ से कहता है, ‘प्रेमा (यही नाम था उनका) तुम कुछ करो न. कुछ करो. देखो, तुम ऐसा करो, बच्चों के लिए एक नाटक लिखो. उसमें कुछ गीत भी हों. उन गीतों का संगीत मैं बना दूंगा. देखो, मैं यूं निष्क्रिय मरना नहीं चाहता’. हां जनाब, यह मरीज़ मौत की दहलीज़ पर है इस वक़्त. तक़लीफ़ में है, बीमारी की वज़ह से. लेकिन तड़प उसकी नहीं, बल्कि थिएटर के लिए, रंगमंच के लिए कुछ करने की है. दवाएं चल रही हैं. इलाज़ हो रहा है. लेकिन प्रेमा जानती हैं कि इस शख़्स पर इन दवाओं से, इलाज़ से ज़्यादा असर होने वाला नहीं है. उसकी दवा तो उसका सृजन-कर्म है. उसके नाटक. उनका मंच. लिहाज़ा वे जल्द ही बच्चों के लिए एक नाटक तैयार करती हैं, ‘कॉकेशियन चॉक सर्किल’ यानी ‘खड़िया का घेरा.’ इस नाटक के लिए 12 गीत लिखे जाते हैं. और वह मरीज डॉक्टरों के मना करने के बावजूद अस्पताल के पलंग पर लेटे-बैठे ही उन गीतों के लिए संगीत रच डालता है. रूह को सुकून मिलता है और इस वाक़ि’अे के कुछ दिन बाद वह मरीज़ मौत की आधी नींद में खो जाता है. कोमा में चला जाता है. इससे भी पांच रोज़ बाद मौत पूरी तरह उसे अपने आग़ोश में ले लेती है. तारीख़ आज की, यानी एक सितंबर. इस मरीज़ का नाम जानते हैं क्या हुआ जनाब? ब.व. कारंत. बाबूकोड़ी वेंकटरमण कारंत. पूरा नाम उनका. अंग्रेजी वाले इन्हें बीवी कारंत कहा करते हैं. और थिएटर वाले तमाम शाग़िर्द ‘बाबा’. लेकिन नाम में क्या रक्खा है. बात तो इनके काम है. क्योंकि यह कारंत ही हैं, जिन्हें भारतीय रंगमंच का ‘रंग-चिंतक’ और ‘रंग-मनीषि’ कहा जाता है. कारंत ही हैं, जिनसे ‘हिन्दुस्तान में मौलिक रंगमंच की शुरुआत होती है’. कारंत ही हैं, जिन्होंने पूरे हिन्दुस्तान में घूमकर रंगमंच के लिए देश में सबसे ज्यादा काम किया. कारंत हैं, जिनके बारे में कहते हैं, ‘उन्होंने पूरे देश की नाट्य-परंपरा को जैसे अंतस्थ कर रखा था’. क्या असम, मणिपुर और क्या राजस्थान, गुजरात. क्या दिल्ली, पंजाब और क्या आंध्र चेन्नई या कर्नाटक. बंगाल, बिहार, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश भी. मतलब, मुल्क का ऐसा कोई कोना नहीं रहा, जहां की नाट्य-परंपरा को कुछ देने या वहां से कोई सार-तत्त्व लेने के लिए जीवन-काल में कारंत उस तक पहुंचे न हों. कारंत अक़्सर कहते थे, ‘जब तक जिंदा रहूंगा, थिएटर करता रहूंगा. थिएटर करता रहूंगा, तभी तक ज़िंदा रहूंगा.’ और जनाब, शुरू में अस्पताल के जिस सच्चे वाक़ि’अे का ज़िक्र हुआ, उससे दो-चार होने के बाद क्या ऐसा लगता है कि कारंत की कथनी-करनी में फ़र्क़ रहा होगा? जनाब, सितंबर का ही महीना था. तारीख़ 19, साल 1929 का, जब कारंत की पैदाइश हुई. कर्नाटक में दक्षिण कन्नड़ जिले के मांची गांव में. और ये पैदाइश थिएटर के लिए ही हुई थी गोया. अभी तीसरी कक्षा में पढ़ते थे कि नाटकों ने उन्हें अपनी तरफ़ खींच लिया. एक बड़े थिएटर डायरेक्टर पीके नारायण ‘नन्ना गोपाल’ नाटक की तैयारी कर रहे थे. उसी में काम करने का मौका मिला और बाकी ज़िंदगी की राह भी. इस पर चलने के लिए छुटपन में ही घर छोड़ दिया. पीछे मुड़कर नहीं देखा. ‘गुब्बी थिएटर’ में शामिल हो गए. यह उस दौर की नामचीन थिएटर कंपनी होती थी. गुब्बी वीरन्ना नाम के तब एक बड़े रंगकर्मी होते थे. कर्नाटक-रंगमंच को हिन्दुस्तान और दुनिया के नक़्शे पर लाने पर श्रेय दिया जाता है उन्हें. उन्हीं की नाटक कंपनी थी ‘गुब्बी थिएटर’. बड़े पारखी आदमी थे. जल्द समझ गए कि कारंत सिर्फ़ कन्नड़ थिएटर ही नहीं, हिन्दुस्तानी रंगमंच पर भी बड़े सितारे की तरह चमकने वाले हैं. लिहाज़ा, उन्होंने उस ‘कच्ची मिट्‌टी’ को संवारना शुरू किया. पढ़ाई-लिखाई का बंदोबस्त किया. थिएटर के साथ साहित्य, संगीत की ट्रेनिंग का भी इंतज़ाम किया. उसी सिलसिले में कारंत को भेजा गया बनारस. यहां हजारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गजों से हिन्दी साहित्य पढ़ा उन्होंने. पंडित ओंकारनाथ जैसे संगीत-शास्त्री से सांगीतिक-शिक्षा ली. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से नाटक की भी विधिवत् शिक्षा हुई. इस तरह तैयार हुआ संगीत, साहित्य, नाट्य-परंपरा की समझ रखने वाले ‘मुकम्मल कारंत’. लेकिन जनाब, इतना कुछ सीख-समझ लेने के बाद भी कारंत ने सीखने, सीखते रहने का सिलसिला छोड़ा नहीं. कहते थे, ‘कला एक गतिशील परंपरा है. रुक गई तो सड़ जाएगी’. और नाटक तो उनके लिए ‘जीवन की व्याख्या’ थे मानो. ऐसी व्याख्या जो ख़ुद उन्हें गतिशील बनाए रखती थी. जनाब, कारंत जी के एक शाग़िर्द हैं. मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में रहते हैं, आलोक चटर्जी. अभी कुछ महीने पहले तक आलोक जी मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय (एमपीएसडी) के निदेशक हुआ करते थे. वे बताते हैं, ‘भारत के हर राज्य की संस्कृति, खान-पान, परंपरा को ‘बाबा’ ने नज़दीक से देखा, समझा, महसूस किया. फिर नाटक किए. क्योंकि उनके लिए नाटक का मतलब यह नहीं था कि कुछ लोगों को इकट्ठा कर लिया, उन्हें भूमिकाएं दे दीं और बस, हो गया. हमेशा नई चुनौतियां लेने और नया करने की छटपटाहट रही उनमें’. आलोक जी मिसाल देते हैं, ‘जिस इलाके में ‘बाबा’ पैदा हुए, वहीं से ‘यक्षगान’ का जन्म माना जाता है. इसे वे बचपन से सुनते आए हैं. पर रंगमंच के पूरे करियर में सिर्फ एक बार (‘बरनम बन’ नाटक में) ही ‘यक्षगान’ का इस्तेमाल करते हैं. क्योंकि वे मानते हैं कि यह हमें आता है. इसमें कोई चुनौती नहीं है. इसी तरह, लोक परंपरा से सीधा त’अल्लुक होने के बावजूद वे सिर्फ़ उसके सारतत्त्व लेते हैं. पूरी तरह, कॉपी नहीं करते. उदाहरण- ‘हयवदन’ में भागवत का किरदार. यह यक्षगान-परंपरा से लिया गया है. बस, ‘यक्षगान’ का इस नाटक में इतना ही दख़ल है.’ आलोक चटर्जी करीब सात साल तक कारंत जी के साथ उनके नाटकों में बतौर अभिनेता काम कर चुके हैं. उस दौर के तज़रबात को वे याद करते हैं, ‘नाटक के लिए प्रभावोत्पादक सारतत्व ‘बाबा’ कहीं से भी खींच लेते थे. लगता था, जैसे पशु-पक्षी सहित प्रकृति, पास-पड़ोस की हर ध्वनि से वे परिचित हैं’. ‘एक वाक़ि’आ बताता हूं. साल 1999 के आख़िर या 2000 के शुरुआती महीनों की बात है शायद. दिल्ली स्थित महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय ने ‘बाबा’ से सुमित्रानंदन पंत जी की कविताओं के लिए संगीत तैयार करने का आग्रह किया था. पंत जी का जन्म शताब्दी समारोह होने वाला था. मगर तभी, ‘बाबा’ को कैंसर की बीमारी का पता चला. ऑपरेशन के लिए बेंगलुरू जाना पड़ा उन्हें. ऑपरेशन होने के कुछ दिन बाद ही हालांकि, वे दिल्ली लौट आए. रिकॉर्डिंग के लिए. पहले दिन रिकॉर्डिंग रूम में पहुंचे, तो वहां का दरवाजा खोलकर आगे बढ़े ही थे कि पीछे से आवाज आई- चूंssssss ठक्क. इसे सुनते ही वे ठिठक गए. पलटकर फिर दरवाजा खोला. वह दोबारा वैसी ही आवाज के साथ बंद हुआ. यह सुनते ही उन्होंने मजाकिया लहजे में दरवाजे को हाथ जोड़ते हुए कहा- आप तो पूरे सुर में हैं. वहां मौजूद लोगों को लगा कि यह मजाक है. मगर सब लोग तब अचरज में पड़ गए, जब ‘बाबा’ ने रिकॉर्डिंग की शुरुआत ही दरवाजे की उस आवाज के साथ की’. कारंत जी की एक और ख़ासियत पर आलोक रोशनी डालते हैं, ‘आम तौर पर ज्यादातर नाट्य निर्देशक पहले दृश्य सोचते हैं. मगर ‘बाबा’ पहले संगीत सोचते थे. कितने लड़के-लड़कियों की आवाज लगेगी, साज कौन से होंगे, ध्वनि प्रभाव, आदि. पूरा साउंड ट्रैक तैयार होने के बाद वे दृश्यों पर काम करते थे. कहते थे- नाटक श्रव्य-दृश्य है. यानी ऑडियो-विजुअल, तो इसे उसी तरह तैयार करना चाहिए. वे गाते भी बहुत अच्छा थे. उन्होंने अपने किसी भी नाटक के लिए 1970 की दहाई में पहली बार गाया. ‘हयवदन’ के लिए ‘गजवदन हेरंभा…’ इसे सुनकर पूरा सभागार मंत्रमुग्ध हो गया. और फिर यह इतना लोकप्रिय हुआ कि बाद में उनके हर नाटक, नाट्य-संगीत या अन्य आयोजन की शुरुआत हमेशा ‘गजवदन हेरंभा’ से ही हुई’. इसी तरह, मध्य प्रदेश के साहित्यकार उदयन वाजपेयी जी हैं. वे भी कारंत जी को नज़दीक से जानने वालों में शुमार होते हैं. उदयन जी बताते हैं, ‘नाटक, संगीत, साहित्य, सब कारंत जी की हद और ज़द में थे. साहित्य के मामले में उनका दायरा इतना फैला हुआ है कि वे एक तरफ भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘अंधेर नगरी’ करते दिखते हैं. ऐसा नाटक, जिसे शायद स्कूल का बच्चा भी डायरेक्ट कर ले. क्योंकि भारतेंदु की रचनाएं बेहद सहज-सरल हैं. वहीं दूसरी तरफ जयशंकर प्रसाद की ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’ जैसी जटिल और चुनौतीपूर्ण नाट्य रचनाओं को भी कारंत मंच पर उतारते हैं. जबकि प्रसाद गंभीर हैं. वे सटीकता की मांग करते हैं. उनकी रचनाओं को मंच पर उतारने के लिए सूक्ष्म साहित्यिक तत्त्वों का ज्ञान होना चाहिए. इसीलिए प्रसाद की नाट्य रचनाओं को एनएसडी का निर्देशक भी निर्देशित कर ले, ये जरूरी नहीं. प्रसाद के लिए तो उन्हें उनके पूरे दायरे में समझने वाला नाट्य-निर्देशक ही चाहिए. साथ ही, इन चीजों को समझने वाले 40 कलाकार भी, जो आसान नहीं है.’ यही नहीं जनाब, फिल्में भी. कारंत जी ने अलबत्ता, फिल्में बनाई नहीं ज़्यादा. दो ही बनाईं. लेकिन इन दो में ही ऐसा असर छोड़ा कि उन्हें दूसरा ‘सत्यजीत रे’ कहा जाने लगा. उन्होंने एक फिल्म बनाई ‘वंशवृक्ष’ (1972), जो राष्ट्रीय पुरस्कार जीत लाई. दूसरी बनाई ‘चोमना डुडी’ (‘चोमना’ आदमी का नाम और ‘डुडी’ यानी बाजा), 1975 में. यह लंदन फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म/बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड ले आई. जबकि इस फेस्टिवल ख़ुद सत्यजीत रे की भी एक फिल्म शामिल थी. बताते हैं, तब फिल्म समीक्षक ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा था, ‘भारत में एक और सत्यजीत पैदा हो गया है’. हालांकि, कारंत जी को फिल्म-निर्माण में चुनौती लगी नहीं, इसलिए छोड़ दिया इसे. बजाय उन्हें ‘मृच्छकटिकम्’ जैसे नाटकों को करने में ज़्यादा चुनौती महसूस हुई और वही किया उन्होंने. यह नाटक कारंत जी ने मालवी भाषा में ‘गारा की गाड़ी’ के नाम से किया. कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ को बुंदेली ज़बान में तैयार करना कारंत जी को चुनौती लगा, तो वह कर डाला. चार से लेकर 400 तक बच्चों के समूह के साथ गंभीरता से नाटक खेलना उन्हें चुनौती लगा. उन्होंने वह भी कर लिया. उन्होंने ‘दिशांतर’ नाम का समूह बनाकर पहली बार हिन्दी में रंग-आंदोलन खड़ा किया. भोपाल में भारत-भवन के रंग-मंडल को बरसों तक सांसें दीं. बेंगलुरु लौटे तो वहां के कलाकारों को मिलाकर समूह बनाया, ‘बेनका’ (बेंगलुरू नगर कलाकार). इस समूह ने कन्नड़ नाटकों पर तज़रबे किए. मैसूरू में ‘रंगायन’ की स्थापना कर कन्नड़ रंगमंच को फिर जीवंत किया. हैदराबाद की इक़लौती पारसी थिएटर कंपनी ‘सुरभि’ को अपने सुपरहिट नाटक ‘बस्सी यम्मा यादम्मा’ से नया जीवन दिया. कितना कुछ गिनाया जाए. कारंत जी जैसी शख़्सियत जितना कुछ करने में पूरी ज़िंदगी खपाती है, उसे कुछ लफ़्ज़ों में समेट पाना मुमकिन है क्या? ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 01, 2022, 07:09 IST