दास्तान-गो : एक थीं अमृता (प्रीतम) कहती थीं- मैं तैनू फिर मिलांगी

Daastaan-Go ; Amrita Pritam Birth Anniversary : अमृता कहती थीं, ‘कोई पुरुष जब महिला के अस्तित्त्व को नकारता है, तो वह अपनी आत्मा को नकारता है. क्योंकि मर्द का जो बाहरी आवरण है, वह पुरुष है. जबकि उसकी आत्मा स्त्री है. हमारे यहां अर्धनारीश्वर की अवधारणा है. इसका मतलब ये है कि जब दोनों मिलें, बराबरी से, तभी इंसान मुकम्मल होता है’.

दास्तान-गो : एक थीं अमृता (प्रीतम) कहती थीं- मैं तैनू फिर मिलांगी
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ———– जनाब, एक थीं अमृता. अमृता प्रीतम. हिन्दी, पंजाबी अदब की दुनिया में बड़ा नाम. कहा करती थीं… ‘मैं तैनू फ़िर मिलांगी. कित्थे, किस तरह, पता नईं. शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के, तेरे कैनवास ते उतरांगी. जा खोरे तेरे कैनवास दे उत्ते, इक रहस्म्यी लकीर बण के, खामोश तैनू तक्दी रवांगी. जा खोरे सूरज दी लौ बण के, तेरे रंगा विच घुलांगी. जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के, तेरे कैनवास नु वलांगी. पता नईं किस तरह, कित्थे. पर तेनू जरुर मिलांगी. जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी, ते जिवें झर्नियां दा पानी उड्दा. मैं पानी दियां बूंदा, तेरे पिंडे ते मलांगी. ते इक ठंडक जेहि बण के, तेरी छाती दे नाल लगांगी. मैं होर कुच्छ नईं जानदी. पर इणा जानदी हां, कि वक्त जो वी करेगा, एक जनम मेरे नाल तुरेगा. एह जिस्म मुक्दा है, ता सब कुछ मूक जांदा हैं. पर चेतना दे धागे, कायनती कण हुन्दे ने. मैं ओना कणा नु चुगांगी, ते तेनू फ़िर मिलांगी.’ जनाब, मतलब समझने में ज़ोर नहीं लगाना होगा. क्योंकि अदब से त’अल्लुक रखने वाला बच्चा भी इन लफ़्ज़ों के मायने जानता है. इनके पीछे की कहानी से वाबस्ता है. फिर भी, बताने का रिवाज़ है, तो थोड़ा बताते हैं. अमृता की एक मोहब्बत हुआ करते थे, इमरोज़. ख़ुद भी नामी-गिरामी लिखने वाले हुए. पेंटिंग्स भी बहुत बढ़िया बनाया करते थे. लेकिन ज़िंदगी में एक मर्तबा उनकी मुलाक़ात अमृता प्रीतम से क्या हुई. उनका हर फ़न उन्हीं के इर्द-गिर्द सिमट गया. बल्कि पूरी ज़िंदगी ही. आज अमृता प्रीतम की जितनी तस्वीरें नज़र आती हैं, कहते हैं, सब इमरोज़ की बनाई हुई हैं. और जनाब, ये तो गूगल का जमाना है. कोई चाहे तो सेकेंडों, मिनटों में आज़मा कर देख सकता है. गूगल पर इमरोज़ के बारे में कुछ खोजने की कोशिश कीजिए. सब अमृता के इर्द-गिर्द सिमटा मिलेगा. दोनों के संग-साथ के मायने ही कुछ इस तरह थे कि उन्हें अलग देख या समझ पाना, बहुत मुमकिन न हुआ. अमृता आज़ाद ख़्याल शख़्स थीं. मोहब्बत और आज़ादी को एक साथ घोलकर इससे बनने वाला गाढ़ा चटख रंग अपने साथ-साथ हर औरत की ज़िंदगी में चाहती थीं. कहती थीं, ‘कोई पुरुष जब महिला के अस्तित्त्व को नकारता है, तो वह अपनी आत्मा को नकारता है. क्योंकि मर्द का जो बाहरी आवरण है, वह पुरुष है. जबकि उसकी आत्मा स्त्री है. हमारे यहां अर्धनारीश्वर की अवधारणा है. इसका मतलब ये है कि जब दोनों मिलें, बराबरी से, तभी इंसान मुकम्मल होता है’. और इमरोज़? वे गोया, अमृता के इन ख़्यालों को, लफ़्ज़ों को मायने देने वाले हुए. सात बरस छोटे थे, अमृता से. पर क्या फ़र्क़? जानते थे कि अमृता उनसे पहले और शायद ज़्यादा भी, किसी को चाहती हैं. एक थीं अमृता…. अमृता और साहिर (मशहूर शा’इर साहिर लुधियानवी) की मोहब्बत से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे इमरोज़. लेकिन क्या फ़र्क़? अमृता की मोहब्बत में गोया, उन्हें कुछ भी दिखाई या सुनाई देना बंद हो गया. ‘अजब है! कहते हैं कि इमरोज़ जब भी अमृता को स्कूटर पर कहीं ले जाते, तो वे अक्सर उंगलियों से उनकी पीठ पर कुछ लिखा करती थीं. इमरोज़ जानते थे कि उनकी पीठ पर लिखा जा रहा यह लफ़्ज़ ‘साहिर’ है. फिर भी कुछ न कहते. अजब है! अमृता ने समझाया एक बार, ‘इमरोज़, एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ. फिर भी तुम मुझे अगर चुनोगे तो मुझे कोई उज़्र नहीं… मैं तुम्हें यहीं इंतजार करती मिलूंगी’. बताते हैं, अमृता के इस इसरार के जवाब में इमरोज़ ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए, जिसमें ये वाक़ि’आ घटा और फिर अमृता से कहा, ‘हो गया, अब तो…’ बचपने से अमृता इसी ‘ख़्वाबों के राजकुमार’ की खोज में तो रहीं. महज़ 16 बरस की उम्र में प्रीतम सिंह नाम के जिस शख़्स से शादी हुई, उनमें यह ‘राजकुमार’ नहीं मिला. जुदा-राह होना पड़ा उनसे. फिर साहिर से मिलीं. कब, कैसे? अमृता ने ही बताया था एक बार, ‘प्रीत नगर (लाहौर-अमृतसर के बीच क़स्बा) में सबसे पहले उन्हें देखा और सुना था. मैं नहीं जानती कि ये उनके लफ़्ज़ों का जादू था या उनकी ख़ामोश नज़रों का, मुझ पर एक तिलिस्म सा छा गया था उनका.’ अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में भी वे लिखती हैं, ‘मैं साहिर के साथ घंटों बैठती. उस दौरान वह कई सारी सिगरेट पी जाते थे. उनके जाने के बाद में उन जली हुई सिगरेट को संभाल कर रखती थी. उन्हें छूकर साहिर के स्पर्शों को महसूस करती थी.’ लेकिन जनाब, यह मोहब्बत भी परवान न चढ़ी. एक थीं अमृता… यह दौर था, जब एक तरफ़ हिन्दुस्तान की ज़मीन पर कोई सरहदी लक़ीर उसके दो टुकड़े किए जाती थी और दूसरी ओर अमृता का दिल दो टुकड़ों में बंटता जाता था. आख़िरकार टूट गया वह. मगर तभी इमरोज़ नाम के एक चित्रकार आए. उस टूटे दिल के टुकड़ों को जोड़ने. अमृता की ज़िंदगी में बिल्कुल अस्ल वाली मोहब्बत के रंग भरने. अपने गांव से आकर इमरोज़ दिल्ली की उसी कॉलोनी में रहने आए थे, जहां अमृता रहती थीं. उनके बीच जान-पहचान हुई और इमरोज़ स्कूटर से अमृता को आकाशवाणी के दफ्तर छोड़ने जाने लगे. अमृता आकाशवाणी दिल्ली में अनाउंसर हुआ करती थीं तब. अभी उनके बीच नज़दीकियां बढ़ ही रही थीं कि बताते हैं, एक रोज़ बंबई से मशहूर फिल्मकार गुरुदत्त ने इमरोज़ को बुला भेजा. अमृता ने रोका नहीं उन्हें. किसी को नहीं रोका कभी. मगर बताते हैं, इमरोज़ ने जब बंबई जाने की बात अमृता को बताई तो उन्होंने लिखा चुपचाप, ‘लगा, जैसे मेरे से कुछ छूट रहा है… एक बार इसी मुंबई ने मेरे साहिर को ले लिया था. अब वही मुंबई दूसरी बार.. आंखों का पानी संभल नहीं रहा था. कोई देख न ले, इसलिए उस दिन का अख़बार आंखों पर रख लिया था.’ लेकिन जनाब, इस बार बंबई अमृता के इमरोज़ को उनसे ले नहीं पाई. इमरोज़ का मन नहीं लगा बंबई में और वे तीन दिन में ही दिल्ली लौट आए. अब दोनों के बीच नज़दीकियों के किसी अनकहे रिश्ते में बदल जाने का वक़्त था. उनके बीच ख़त-ओ-किताबत ब-दस्तूर जारी रहने लगी. फिर एक रोज़ दोनों ने तय किया कि वे अब साथ रहेंगे. साल 1964 का वाक़ि’आ बताते हैं ये. इसी के आस-पास वह ‘कमरे के भीतर सात चक्कर’ वाला वाक़ि’आ भी घटा. लेकिन जनाब, उस दौर में दोनों का साथ वैसा था, जैसे समाज को सीधी चुनौती हो. क्योंकि उनके बीच समाजी तौर पर कोई नाता न था. शादी नहीं की थी उन्होंने. बस, मोहब्बत की थी. ऐसी, जिसमें किसी को भी एक-दूसरे से ‘एवज़ में कुछ नहीं चाहिए था. मुमकिन है, इसी मोहब्बत के लिए गुलज़ार ने लिखा हो, ‘हम ने देखी है इन आंखों की महकती ख़ुशबू. हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो. सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो. प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो’. हां, क्योंकि अमृता और इमरोज़ की मोहब्बत की गवाही देने वालों में एक गुलज़ार भी हुआ करते हैं. अमृता की तरह, गुलज़ार भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच टुकड़ों में बंटे दिखते हैं. अमृता की तरह, उनके सीने पर भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच की दरार अक्सर उभर आया करती है. अलबत्ता जनाब, अमृता और इमरोज़ की मोहब्बत के बीच कोई दरार न उभरी फिर. दोनों ने शिद्दत से उसे निभाया. मुमकिन है, इमरोज़ ने कुछ ज़्यादा. अमृता ही बताती हैं, ‘जब मैं रात को शांति में लिखती थी, तब धीरे से इमरोज़ मेरे बगल में चाय रख जाया करते थे’. इतना ही नहीं, कहते तो ये भी है कि अमृता को जब राज्यसभा का सदस्य बनाया गया, तो इमरोज़ उनके साथ संसद भवन जाया करते थे. घंटों बाहर बैठकर उनके लौटने का इंतज़ार किया करते. तब अक्सर लोग उन्हें अमृता का ड्राइवर समझ लेते थे. लेकिन क्या फ़र्क़? जिस इमरोज़ को अपनी पीठ पर मा’शूक़ (अमृता) की उंगलियों से उसकी पिछली मोहब्बत का नाम लिखवाने कोई ‘उज़्र (आपत्ति) न हुआ, उसे भला इस बात ये क्या फ़र्क़ पड़ने चला कि कोई उसके बारे में क्या कहता है. क्या समझता है. अमृता और इमरोज़ की मोहब्बत… इमरोज़ ने कहा था एक बार, ‘हम जीते हैं कि हमें प्यार करना आ जाए. हम प्यार करते हैं कि हमें जीना आ जाए’. फिर दिखाया भी उन्होंने जनाब, कि वे प्यार करना जानते हैं. और जीना भी. तो अब भला, इस शिद्दत कोई क्यूं ही महसूस न कर पाता. अमृता ने भी किया, हर लम्हा. कहा, ‘इमुवा, अगर कोई इंसान किसी का स्वतंत्रता दिवस हो सकता है, तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो…’ और यह भी, ‘अजनबी, तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले. मिलना था तो दोपहर में मिलते’. इतने पर भी मुतमइन न हुईं अमृता, तो इमरोज़ के नाम वह लिख डाला, जिसे आज तक मोहब्बत करने वाले किसी इबादत की तरह कहा करते हैं, ‘मैं तैनू फ़िर मिलांगी. कित्थे, किस तरह, पता नईं’. साल 2002 में अमृता प्रीतम की क़लम से निकली उनकी यह आख़िरी कविता थी. फिर साल 2005 का आया. तारीख़ 31 अक्टूबर की, जब अमृता की क़लम ठहर गई. सांसें रुक गईं. लेकिन वह गईं, कहीं नहीं. जा ही नहीं सकीं. तभी तो उस वक़्त इमरोज़ ने कहा था, ‘अमृता ने जिस्म छोड़ा है, साथ नहीं’. सच ही कहा. क्योंकि जब एक औरत समाज की दक़ियानूसियों के ऊपर ख़ुद को ला खड़ा करती है, तो वह ‘अमृता’ मालूम होती है. जब कोई औरत आज़ाद ख़्याली से ज़िंदगी बसर करती है, तो वह ‘अमृता’ मालूम होती है. जब कोई औरत मोहब्बत को खुलकर जीती है, जागते हुए उसे महसूसती है और दूसरों को महसूस कराती है, तो वह ‘अमृता’ मालूम होती है. और जब कोई औरत मोहब्बत में आज़ाद ख़्याली के रंग भर देती है, इन दो मुख़्तलिफ़ सिरों को जोड़कर अपने तईं, साथ ला खड़ा करती है, तो वह ‘अमृता’ हुआ करती है. ऐसी ‘अमृता’ मरा नहीं करती. उसकी सिर्फ़ पैदाइश होती है. जैसी, अमृता प्रीतम की हुई. आज ही के रोज, 31 अगस्त 1919 को. पंजाब के गुजरांवाला में. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Birth anniversary, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 31, 2022, 07:19 IST