Pasmanda Muslims: समय-समय पर गठित होने वाले आयोगों जैसे काका कालेलकर आयोग, मण्डल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर कमिटी तक ने मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को स्वीकार किया है.
डा० फैयाज अहमद फैजी
नई दिल्ली. पिछ्ले दिनों भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं को मुस्लिम समाज के वंचित तबके देशज पसमांदा के लिए काम करने का निर्देश दिया गया, जिसके बाद मुस्लिम समाज में नस्लगत/जातिगत विभेद पर राष्ट्रव्यापी चर्चा हो रही है. अब तक मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज ही माना जाता रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम समाज कोई समरूप समाज नहीं, बल्कि स्पष्ट रूप से विदेशी अशराफ (शासक वर्गीय उच्च वर्ग) और देशज पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित और पिछड़े) समाज में विभक्त है. यह सर्वविदित है कि क़ुरान में ऐसी कोई पंक्ति नहीं है जिसे जातिवाद के समर्थन में उद्धरित किया जाए, लेकिन एक अजीब बात है अशराफ़ उलेमा ने क़ुरान की उन पंक्तियों को जो जातिवाद और नस्लवाद की कड़ाई से विरोध करती है, की व्याख्या में जातिवाद का रंग चढ़ाने का पूरा प्रयास किया है.
इस्लामी इतिहास पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि प्रथम खलीफा का चयन नस्लीय आधार पर होता है यानी कि खलीफा कुरैश जनजाति (सैय्यद, शैख) का होना चाहिए. कुछ एक-दो अपवादों को छोड़कर आज भी इस्लामी दुनिया में कुरैश (सैयद, शैख) को ही राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेतृत्व प्राप्त होता रहा है. इस्लाम के अन्य आधिकारिक स्रोतों हदीस और इस्लामी फीक्ह (विधि) में खलीफा के चयन से लेकर शादी विवाह तक में जातिवाद/ नस्लवाद के आधार पर भेदभाव को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान किया गया है. भारत में प्रचलित इस्लामी शरिया कानून में शादी-विवाह के लिए “कूफु” नामक सिद्धांत है जिसने जाति, नस्ल, धन, पेशा और क्षेत्र (अरबी-अजमी) आदि के आधार पर भेदभाव को वैधता प्रदान किया है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रकाशित “मजमूये कवानीने इस्लामी” जिसे बोर्ड मुस्लिम समाज के पर्सनल लॉ के मामले में एक वैधानिक दस्तावेज की मान्यता देता है, उक्त बातों का खुलकर समर्थन करता है. हालांकि कुछ हदीसें ऐसी भी मिल जाएंगी, जो जातिवाद का बड़ी कड़ाई से विरोध भी करती हैं. अरब और अन्य मुस्लिम देशों के भी मुस्लिम समाज में नस्लवाद और जातिवाद के किसी-ना-किसी रूप में विद्यमान होने का प्रमाण मिलता है. जहां आज भी सैय्यद जाति के लोगो को ही काले रंग का इमामा (पगड़ी) पहने का विशेषाधिकार है. यमन के अखदाम समुदाय के लोग जो स्वच्छकार होते हैं उनके साथ भेदभाव और छुआछूत आम तौर से पाया जाता है. जॉर्डन देश का पूरा नाम “जॉर्डन का हाशमी साम्राज्य” है जो जाति आधारित नाम है. ज्ञात रहे कि हाशमी, सैय्यद जाति का टाइटल है जो भारत में भी आम तौर से पाया जाता है.
मुसलमानों के तीन बड़े देश तुर्की, तुर्क जनजाति के द्वारा… सऊदी अरब, अरबी बद्दू जो अन्य अरब ट्राइब की अपेक्षा कमतर माने जाते हैं, के द्वारा और ईरान सैयद द्वारा शासित है. अफगानिस्तान की मौजूदा सत्ताधारी तालिबान पख्तून पठान वर्चस्व वाली जमात है. भारत के मुस्लिम शासन काल में भी नस्लीय और जातीय भेदभाव आम था. उस समय के शासन व्यवस्था में “निकाबत” नामक एक विभाग हुआ करता था जो शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करता था और पहले से नियुक्ति हुए संदिग्ध लोगो की भी जांच करता था. इस प्रकार अल्तमश ने 33 रजील (भारतीय मूल के मुसलमान) को शासकीय पदों से यह कहते हुए बर्खास्त कर दिया कि उनका सम्बन्ध किसी उच्च वर्ग के परिवार (तथाकथित अशराफ वर्ग) से नहीं है.
बलबन ने निचले स्तर के मुसलमानों (भारतीय मूल के मुसलमान) को सरकारी पदों से बर्खास्त करते हुए कहा था कि मैं जब नीच परिवार के किसी सदस्य को देखता हूं तो मेरा खून खौलने लगता है. उसके दरबार में तथाकथित नीच जाति के हिन्दू और मुसलमानों का प्रवेश वर्जित था और अगर कुछ विशेष परिस्थितियों में इसकी अनुमति थी, तो इस शर्त के साथ कि मुंह पर रुमाल बांधना होगा और सजदा करना होगा. बादशाह अकबर ने कसाईयों और मछुआरों के लिए राजकीय आदेश जारी किया था कि उनके घरों को आम आबादी से अलग कर दिया जाये और जो लोग इस जाति से मेलजोल, आना जाना रखें उनसे जुर्माना वसूला जाए. उसने यह भी आदेश दिया था कि रज़ील लोगों (नीची जाति) को शिक्षा प्राप्त करने से रोक दिया जाय क्योंकि इन जातियों से फसाद बरपा होता है.
अकबर के राज्य में अर्थदंड भी सामाजिक ऊंच-नीच के आधार पर था जैसे अगर नीच श्रेणी का व्यक्ति किसी उच्च श्रेणी और उच्च परिवार के किसी व्यक्ति को अपशब्द कहे, तो उससे अर्थदण्ड के रूप में साढ़े बारह दिरहम लिए जाएंगे. अगर बराबर श्रेणी के लोग एक-दूसरे को गाली दें, तो उसका आधा और अगर उच्च श्रेणी वाला किसी को गाली दें, तो उससे चौथाई वसूल किया जाएगा. अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने नवाब सैयद हामिद को 500 लोगों की एक विषेश सेना तैयार करने का आदेश दिया. उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि इसमें केवल कुलीन और बहादुर जाति शेख, सैयद और पठान होनी चाहिए. रज़ील जाति (निम्न जाति) के लोगों को इससे दूर रखा जाय.
पूरे मुस्लिम शासन काल में सैय्यद को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था. ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल इसका अपवाद था और इस दौरान बहुत से सैय्यद सुफियों और अन्य सैय्यदों को मौत की सजा दी गई. मुहम्मद बिन तुगलक जिसका असल नाम जऊना था, जिसके नाम पर जौनपुर का नाम रखा गया था, ने तथाकथित नीच जाति के हिन्दू और मुसलमानों को उनकी योग्यता के आधार पर शासन प्रशासन में नियुक्त किया था. अंग्रेज़ो के आने के बाद बदली हुई परिस्थिति में अशराफ मुस्लिमों (सैयद, शेख़, मुगल, पठान) ने अपनी सत्ता एवं वर्चस्व को बनाए रखने के लिए द्विराष्ट्र सिद्धांत, खिलाफत आंदोलन और देश के बंटवारे तक का खेल खेला.
इस पूरे काल में देशज पसमांदा मुस्लिमों (इस्लामी धर्मावलंबी आदिवासी, दलित, पिछड़े) को अशराफ वर्ग ने धर्म और धार्मिक एकता के भ्रम में रखा. हालांकि आसिम बिहारी के नेतृत्व में प्रथम पसमांदा आंदोलन ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता, जातिवाद और द्विराष्ट्र सिद्धांत का जबरदस्त प्रतिरोध किया और अंतिम समय तक देश के बंटवारे का विरोध करते रहे. बंटवारे के बाद भारत में बचे हुए अशराफ कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन के माध्यम से अपने सत्ता और वर्चस्व को बनाय रखा.
समय-समय पर गठित होने वाले आयोगों जैसे काका कालेलकर आयोग, मण्डल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर कमिटी तक ने मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को स्वीकार किया है. मण्डल आयोग के लागू होने के बाद से ही देशज पसमांदा मुस्लिम जातियों को शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिल रहा है जिस कारण पसमांदा मुसलमानों (मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी,दलित और पिछड़े) की स्थिति में पहले की अपेक्षा सुधार दिखाई भी पड़ रहा है. बात साफ हो जाती है कि ना सिर्फ सामाजिक, बल्कि धार्मिक आधार पर भी मुस्लिम समाज जातियों एवम् जनजातियों में बंटा हुआ है, जहां बन गुजर, भील, सेपिया, बकरवाल जैसे आदिवासी, मेहतर, नट, धोबी, हलालखोर जैसी दलित और धुनकर, डफाली, तेली, बुनकर जैसी पिछड़ी जातियां स्पष्ट रूप से पायी जाती हैं.
पूर्व सांसद अशफाक हुसैन अंसारी अपनी किताब “बेसिक प्रॉब्लम्स ऑफ ओबीसी एंड दलित मुस्लिम” में प्रथम से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक के सांसदों का ब्योरा देते हुए लिखते हैं कि अब तक चुने गए कुल मुस्लिम सांसदों की संख्या 400 है, इन में 340 अशराफ वर्ग और पसमांदा समाज से केवल 60 सांसद ही चुने जा सके हैं. यह तो सिर्फ लोकसभा का डाटा है, विधानसभाओं और नगर पालिकाओं एवम् पंचायतों में स्थिति कमोबेश यही है. विधायिका की तरह न्यायपालिका एवम् कार्यपालिका में पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के आधार पर न्यूनतम है, जबकि अशराफ समाज की भागीदारी सभी क्षेत्रों में लगभग दोगुनी है.
अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम से संबंधित प्रतिष्ठानों और शिक्षण संस्थानों में भी लगभग यही स्थिति है. यहां एक बात बड़ी अजीब है कि स्वयं मुस्लिमों द्वारा संचालित संस्थाओं में भी जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमाते इस्लामी, जमीयतुल उलेमा, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मशावरत, वक़्फ़ बोर्ड, बड़े स्तर के मदरसे, इमारते शरिया आदि जो पुरे मुस्लिम समाज के नुमाइंदगी का दावा करती हैं, की स्थिति इससे भिन्न नहीं है. यहां भी सिर्फ चंद विशेष अशराफ परिवारों के ही लोग देखने को मिलते हैं. और शायद यही एक बड़ा कारण रहा है कि मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले विभिन्न पसमांदा आंदोलन पहले मुस्लिमों द्वारा संचालित संस्थानों में भागीदारी को लेकर अधिक मुखर रहें हैं.
मीडिया को, सरकार में बैठे लोगो को, विपक्ष को और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ये सोचने और समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि मुस्लिम समाज भी ऊंच-नीच, पिछड़ा और दलित वर्ग में बंटा है और इनके अंदर यह भेद हिन्दू समाज से भी ज्यादा गहराई से बैठा हुआ है. अतः सिर्फ मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात नहीं, बल्कि उसके अंदर मौजूद दबा कुचला पिछड़ा दलित पसमांदा की भागीदारी की बात करना न्यायसंगत होगा.
(डा० फैयाज अहमद फैजी : लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए up24x7news.comHindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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Tags: BJP, MuslimFIRST PUBLISHED : July 09, 2022, 20:56 IST