Groud Reprt Arrah: आरके सिंहवो तो वर्ग विशेष के लोगों में ही घिरे रहते थे!

भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और केंद्रीय मंत्री आरके सिंह को इस बार चुनाव में काररी हार झेलनी पड़ी है. वे बिहार की आरा लोकसभा सीट पर लगातार 2 बार से सांसद थे. उनकी हार पर हमने आरा के लोगों के साथ चौक-चौपाल पर चर्चा की. जानें क्या कहते हैं आरा के लोग-

Groud Reprt Arrah: आरके सिंहवो तो वर्ग विशेष के लोगों में ही घिरे रहते थे!
आरा में लोकसभा चुनाव के बाद बड़ा फेरबदल सामने आया है. यहां से दो बार सांसद और केंद्र सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे आरके सिंह ‘महागठबंधन’ के प्रत्याशी सुदामा प्रसाद से चुनाव हार गए. सुदामा प्रसाद ने कड़े मुकाबले में उनको 59,808 वोटो से हराया. सुदामा पांडेय को 5,29,382 और आर. के. सिंह को 4,69,574 वोट मिले. 23,635 वोट लेकर निर्दलीय प्रत्याशी वीरेंद्र कुमार सिंह तीसरे स्थान पर रहे. आरा लोकसभा में बीजेपी के कद्दावर नेता आर. के. सिंह के चुनाव हारने की वजह को जब हमने जानने का प्रयास किया तो कई ऐसी बातें सामने आईं जिनके कारण एनडीए को आरा सहित पूरे शाहाबाद में नुकसान उठाना पड़ा और एनडीए चारों सीट यहां से हार गया. आरा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पर सबसे ज्यादा मतदाता राजपूत समुदाय से आते हैं. अगर ये सभी एकसाथ एक जगह आ जाएं तो किसी भी उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित हो जाती है. यादव समुदाय का भी वोट तकरीबन राजपूत समुदाय के बराबर ही है. इसके अलावा भूमिहार ब्राह्मण वोटों की अगर बात करें तो यह आंकड़ा 2 लाख के ऊपर चला जाता है. इसके साथ-साथ कोइरी कुर्मी समुदाय का भी वोट 1,50,000 के आसपास है. दलित और महादलित वोटरों की संख्या भी यहां अच्छी-खासी है. वहीं अल्पसंख्यक वोटर भी भोजपुर जिले में काफी तादाद में है. इस बार का चुनाव 2019 के चुनाव के मुकाबले काफी रोचक रहा और जिस वोट की उम्मीद भाजपा को थी वह उसे नहीं प्राप्त हुआ. और उन सभी वोटरों ने काफी हद तक महा गठबंधन प्रत्याशी को वोट दिया, जिसके कारण आरके सिंह चुनाव हार गए. आरा लोकसभा से भाजपा के हारने की जो सबसे बड़ी वजह सामने आईं उनमें पहला कारण स्वर्ण समाज की जातियां जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार के अलावा कुशवाहा समाज के वोटरों ने भाजपा के खिलाफ वोट किया. चुनाव में स्वर्ण वोटरों को अपना वोटर समझ कर भाजपा लगातार उनको दरकिनार करती रही है. और दलित पिछड़ों के वोट पर उनकी निगाह थी. लेकिन वह वोट भी उनको प्राप्त नहीं हुआ. और जिन लोगों पर भारतीय जनता पार्टी और एनडीए गठबंधन ने उम्मीद की, वही उनके लिए गलत साबित हो गया. स्वर्ण वोटर को अपनी तरफ लाने में भाजपा के लोग सफल नहीं हो सके. भोजपुर जिले के संदेश प्रखंड के तीर्थ कॉल निवासी चर्चित किसान नेता प्रोफेसर देवेंद्र कुमार सिंह की मानें तो इस बार भाजपा की हार की सबसे बड़ी वजह स्वर्ण समाज के वोटर एवं किसानो की लगातार अनदेखी करना रहा है. नहर में सिंचाई का उचित प्रबंध नहीं करना, अन्य मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान नहीं देना बीजेपी की हार की बड़ी वजह रहे. सामाजिक कार्यकर्ता अभय विश्वास भट्ट मानते हैं कि आरा लोकसभा के वर्तमान सांसद को ‘विकास पुरुष’ के नाम से नवाजा लेकिन गठबंधन के साथियों को नहीं पूछना, प्रचार-प्रसार में आपसी एकता की कमी और एक विशेष वर्ग के कुछ खास लोगों के इर्द-गिर्द ही घिरे रहना पार्टी को भारी पड़ा. वही एक वर्ग विशेष पर ही विश्वास करने के साथ-साथ उसी पर निर्भर रहना भी हार की वजह बना. ग्रामीण इलाकों में प्रचार-प्रसार की कमी और सांसद के व्यवहार से क्षुब्ध लोगों की नाराजगी भी बड़ी वजह रही. आरा लोकसभा के संदर्भ में बातचीत करते हुए सुनील पाठक ने कहा कि काराकाट लोकसभा में पवन सिंह का चुनाव में उतरना भी आरा में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण रही. क्योंकि, प्रचार-प्रसार को लेकर लगातार यह भ्रम फैलाया गया कि पवन सिंह का कोई प्रभाव लोकसभा में पड़ने वाला नहीं है और लगातार सोशल मीडिया से लेकर जमीन पर भी राजनीतिक बयानबाजी आरा लोकसभा उम्मीदवार के लिए भारी पड़ी और उनको यह सीट गंवानी पड़ गई. साथ ही बक्सर में एक वर्ग द्वारा जाति के नाम पर राजद के साथ देना ब्राह्मण समुदाय को नागवार गुजरा. भोजपुर जिले के चर्चित चित्रकार कमलेश कुंदन की मानें तो सवर्ण वोटरों को लगातार भाजपा अनदेखी करती रही और उसका फोकस दूसरे समाज के वोटर पर था. इसके अलावा भाजपा प्रत्याशी को अति आत्मविश्वास था अपने किए गए काम पर कि लोग विकास के नाम पर वोट देंगे. लेकिन अंतिम समय में एक बार फिर से बिहार में जो पहले से जाति आधारित राजनीति होते आई है, उसका प्रभाव पड़ा और आरा सीट बीजेपी की झोली से निकल गई. एक विद्यालय के संचालक संजय राय की बताते हैं कि आरा लोकसभा ही नहीं शाहाबाद की चारों सीटों पर महागठबंधन के प्रत्याशी का जितना एनडीए के लिए एक बड़ा सबक है क्योंकि आरा के चुनाव में एनडीए के नेताओं में एकजुटता का अभाव दिखा. इसके अलावा जो कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर काम करते हैं उनको चुनाव प्रचार-प्रसार से दूर रखना भी भाजपा को भारी पड़ा. जातीय समीकरण का प्रभाव शाहाबाद की चारों सीटों के अलावे बगल की सीट पाटलिपुत्र और औरंगाबाद पर भी पड़ा. सामाजिक सरोकार से जुड़े नीलेश उपाध्याय ने बताया कि इस चुनाव में पूर्व विधायक सुनील पांडेय और पूर्व विधान पार्षद हुलास पांडेय ने काफी मेहनत की. उसका सकारात्मक रिजल्ट भी नजर आया. लेकिन भाजपा के अंदर गुटबाजी से कार्यकर्ता नेता से दूर रहे. आरा शहर के निवासी मोहम्मद शकील की मानें तो आरा लोकसभा में वैसे तो विकास के काम जरूर हुए लेकिन बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की समस्या को लगातार दरकिनार करना भाजपा प्रत्याशी को महंगा पड़ गया. इसके साथ-साथ एनडीए के नेताओं में अंदरूनी कलह भी भाजपा की हार की एक बड़ी वजह बनी. होटल व्यवसायी कुमार अभिषेक उर्फ बबलू सिंह ने बताया कि आरा की हार से यह साबित हो गया कि बिहार में आज भी जाति आधारित राजनीति लोगों के ऊपर हावी है. लोगों के लिए विकास और पार्टी कोई मायने नहीं रखती. चुनाव में सिर्फ जाति को देखकर वोट किया जाता है. इसके अलावा आरा शहर के कारोबारियों का एक बड़ा भाग भाजपा से अलग हो गया जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा. सामाजिक कार्यकर्ता मनोज उपाध्याय ने बताया कि जिस तरह से एनडीए की शाहाबाद की चारों सीट झोली से बाहर निकल गईं, उससे यह साबित होता है कि वोटिंग का मिजाज मतदाताओं का जरूर बदला है. इस पर समीक्षा करने की जरूरत है. वैसे तो एनडीए गठबंधन के लोगों ने स्वर्ण समाज के वोटरों को अपने साथ लाने का भरपूर प्रयास किया लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके. वहीं, दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा, अल्पसंख्यक समाज का वोट महागठबंधन के प्रत्याशी को मिला जिसके कारण 35 साल बाद एक बार फिर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आरा लोकसभा सीट पर काबिज हो पाई. जातीय समीकरण पूरी तरह से शाहाबाद के चारों लोकसभा क्षेत्र पर हावी रहा. FIRST PUBLISHED : June 5, 2024, 18:42 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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