इलाहाबाद में विरासत की लड़ाई क्या कांग्रेस वापस पा सकेगी अपनी सीट
इलाहाबाद में विरासत की लड़ाई क्या कांग्रेस वापस पा सकेगी अपनी सीट
Allahabad Loksabha Analisys: इलाहाबाद संसदीय सीट पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों के पिता राजनीति के दिग्गज रहे हैं. नीरज त्रिपाठी के पिता केशरीनाथ त्रिपाठी बीजेपी के बड़े नेता रहे, तो उज्ज्वल रमण के पिता रेवती रमण सिंह समाजवादी पार्टी के विधायक और सांसद रहे हैं. यानी दोनों विरासत की लड़ाई लड़ रहे हैं. ये सीट कभी कांग्रेस का गढ़ रही. अब राहुल प्रियंका ने यहां अपने विरासत की दावेदारी छोड़ दी है, लेकिन विरासत की लड़ाई में अगर उज्ज्वल जीतते हैं तो ये सीट फिर से करीब 35 साल बाद कांग्रेस के खाते में आ सकेगी.
हाइलाइट्स आंकड़ों में उज्ज्वल भारी, मगर नीरज को मोदी का साथ उज्ज्वल की लड़ाई का संचालन रेवती रमण सिंह कर रहे एमवाई समीकरण चला तो कांग्रेस को हो सकता है फायदा
प्रियंका गांधी ने रायबरेली को परिवार की सीट बताया था. इस पर विरोध भी हुआ और चर्चा भी. लेकिन एक सीट इस बार कुछ कम चर्चा में है, जो हमेशा सुर्खियों में रहती थी. वो सीट है इलाहाबाद. वही इलाहाबाद जो कांग्रेस के लिए कभी घर जैसा ही हुआ करती थी. पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाते. वही नेहरू जो प्रियंका की दादी के पिता थे. उन्हीं की विरासत के आधार पर प्रियंका रायबरेली को परिवार की सीट बता रही हैं. बहरहाल, हाल ये है कि यहां कांग्रेस को अपनी पार्टी में एक अदद प्रत्याशी नहीं मिला. समाजवादी पार्टी के नेता कुंवर रेवती रमण सिंह के बेटे उज्ज्वल रमण सिंह को ‘आयात’ किया गया. उन्हें टिकट देकर कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया गया. उनके सामने बीजेपी के दिग्गज नेता केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी हैं.
मुरली मनोहर जोशी को हरा चुके हैं रेवती रमण
विरासत की बात हो रही है तो फिलहाल अपनी विरासत के भरोसे उज्ज्वल रमण सिंह, नीरज त्रिपाठी को कड़ी चुनौती दे रहे हैं. इलाहाबाद के 18 लाख 7 हजार 886 मतदाताओं की जातिगत कमेस्ट्री के हिसाब से देखा जाय तो उज्ज्वल रमण का पलड़ा उन्हीं की ओर झुकता दिख रहा है. रेवती रमण सिंह खुद इस सीट से 2004 और 2009 में सांसद रह चुके हैं. उन्हें बीजेपी के शीर्ष तीन नेताओं में एक मुरली मनोहर जोशी को हराने का सेहरा भी उनके सिर है. केशरीनाथ त्रिपाठी की भी इलाहाबाद में बड़ी साख रही. लेकिन उनकी तमाम राजनीति शहर की एक विधान सभा तक महदूद रही. हालांकि ये भी सच है कि संगठन पर केशरीनाथ की संजीदगी से पकड़ थी, लेकिन वे चुनाव विधान सभा का चुनाव ही लड़ते थे. बाद के चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा और वे पश्चिम बंगाल के गवर्नर बना दिए गए थे.
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क्या कहते हैं जातिगत आंकड़े
विरासत से आगे बढ़कर अगर इस लोकसभा सीट के जातिगत गणित की बात करें तो वो भले ही कांग्रेस के हक में न दिख रहा हो, लेकिन समाजवादी पार्टी का वोट बैंक इलाहाबाद में ठीकठाक है. अगर राजनीतिक पंडितों के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो इस सीट पर साढ़े सात लाख से ज्यादा मतदाता पिछड़े समाज के हैं. इनमें करीब 1 लाख 85 हजार यादव जाति के बताए जाते हैं. मुसलमानों की बात करें तो यहां दो लाख 17 हजार वोटर इस समाज के हैं. दलित वर्ग के 3 लाख के करीब मतदाता बताए जाते हैं. उज्ज्वल रमण जिस भूमिहार समुदाय से आते हैं उसकी संख्या बहुत ज्यादा तो नहीं है, लेकिन ये वर्ग प्रभावी भूमिका निभाता है.
सवर्णों की स्थिति
अगर सवर्ण कही जाने वाली जातियों की चर्चा की जाए तो इनकी संख्या करीब सात लाख बताई जाती है. इसमें ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, कायस्थ और भूमिहार शामिल हैं. एक अनुमान के मुताबिक करीब 4.15 लाख ब्राह्मण, एक-एक लाख के आसपास राजपूत और कायस्थ मतदाता इस सीट पर बताए जाते हैं. इस हिसाब से कायस्थ मतों का भी इलाहाबाद में बहुत अधिक महत्व रहता है. इसे हासिल करने के लिए हर प्रत्याशी को जोर लगाना होता है.
वकीलों और छात्रों की भूमिका
इलाहाबाद लोकसभा सीट में विधानसभा की सात सीटें आती हैं. मेजा, करछना, बारा, कोरांव के अलावा शहर की इलाहाबाद पश्चिम, उत्तर, दक्षिण. शिक्षा का प्रमुख केंद्र होने के कारण शहर में छात्रों की संख्या भी बहुत अधिक होती है. इसका फायदा दोनों प्रत्याशियों को मिलेगा, क्योंकि दोनों प्रत्याशी युवा हैं. केशरीनाथ त्रिपाठी को वकीलों का ठीकठाक समर्थन मिलता था, क्योंकि वे हाईकोर्ट के बेहद सफल वकीलों में शुमार होते थे. उनके बेटे नीरज त्रिपाठी को भी इसका फायदा मिल सकता है. वे भी पेशे से वकील हैं. हाईकोर्ट होने के कारण इलाहाबाद वकीलों का भी गढ़ है. लेकिन वकीलों की दलगत प्रतिबद्धता भी कम नहीं होती. वैसे, बीजेपी का उम्मीदवार होने के कारण दूसरी बहुत सी सीटों की ही तरह नीरज को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थकों का भी कम भरोसा नहीं है.
दिग्गज सांसदों की सीट
आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाय तो ये सीट 1988 तक कांग्रेस के ही खाते में रही है. लेकिन 89 के बाद हवा कुछ ऐसी बदली कि ये सीट कांग्रेस के पाले में अब तक नहीं जा सकी. अब तक के सांसदों की बात की जाए तो पहले सांसद 1952 में श्रीप्रकाश और पुरुषोत्तम दास टंडन, 1957 और 62 में लाल बहादुर शास्त्री, 1967 में हरि कृष्ण शास्त्री, 1971 में हेमवती नंदन बहुगुणा, 1977 में जनेश्वर मिश्र, 1980 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सांसद रहे. कहने की जरूरत नहीं है कि जनेश्वर को छोड़ कर सभी कांग्रेस के ही थे. 1980 में ही वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के सीएम बना दिए गए और उपचुनाव में केपी तिवारी सांसद बने. जबकि 1984 में अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से जीते. उनके इस्तीफे के बाद से ये सीट कांग्रेस के हांथ से चली गई. हालांकि फिर वीपी सिंह ही सांसद बने लेकिन निर्दलीय. 1991 में सरोज दुबे, 1992 और 1996 में मुरली मनोहर जोशी ने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया. उसके बाद रेवती रमण सिंह 2004 और 2009 में यहां से सांसद चुने गए. 2014 में बीजेपी से उद्योगपति श्यामाचरण गुप्ता और 2019 में हेमवंती नंदन बहुगुणा की प्रोफेसर बेटी डॉक्टर रीता जोशी सांसद चुनी गईं.
सुर्खियों में न होने का मलाल
इस बार इलाहाबाद किसे दिल्ली भेजता है ये तो चार जून का काउंटिंग के बाद ही पता चलेगा. लेकिन इलाहाबाद से जुड़े लोगों को इस बात का मलाल है कि हमेशा हाई प्रोफाइल रहने वाली सीट इस बार सुर्खियों में नहीं है. दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार पुनीत शुक्ला इलाहाबाद के रहने वाले हैं. उन्हें इस बात से निराशा है कि अब तक इलाहाबाद से चोटी के नेताओं के लड़ने के कारण ये सीट हमेशा चर्चा में रहती थी. इस बार इस सीट को वीआईपी सीटों की सूची में जगह नहीं मिल रही है. हालांकि ये भी एक तथ्य है कि अगर उज्ज्वल रमण सिंह एसपी से कांग्रेस में आकर जीत जाते हैं तो ये सीट साढ़े तीन दशक बाद कांग्रेस की झोली में आ सकेगी.
Tags: BJP Congress, Loksabha Election 2024, Loksabha Elections, Samajwadi partyFIRST PUBLISHED : May 23, 2024, 15:13 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed