सबसे चतुर खिलाड़ी हैं नीतीश कुमार वरना जिसने भी थामा कमल उसकी टूट गई कमर!

देश में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत 1989 के लोकसभा चुनाव के साथ हुई थी लेकिन बावजूद इसके भाजपा लगातार मजबूत होती गई. दूसरी तरफ कांग्रेस लगातार कमजोरी हुई. लेकिन, इसमें एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि इस गठबंधन की राजनीति में एनडीए के अधिकतर पुराने सहयोगी कमजोर हो गए. एकमात्र अपवाद नीतीश कुमार रहे हैं.

सबसे चतुर खिलाड़ी हैं नीतीश कुमार वरना जिसने भी थामा कमल उसकी टूट गई कमर!
करीबी एक दशक बाद देश गठबंधन की राजनीति के दौर में आ गया है. बीते दो चुनावों 2014 और 2019 में केंद्र में भाजपा को अपने दम पर बहुमत मिला था और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार चली थी लेकिन 2024 में स्थित बदल गई है. भाजपा बहुमत से काफी पीछे है और उसे एनडीए के सहयोगियों के भरोसे सफर पर चलना होगा. इसी बहाने गठबंधन की राजनीति का एक नजर डालते हैं. यह पूरी कहानी करीब साढ़े तीन दशक पहले शुरू होती है. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी 404 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. लेकिन, अगले चुनाव में यानी 1989 में देश की पूरी राजनीति बदल गई. उस चुनाव में कांग्रेस जरूर सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन देश गठबंधन की राजनीति के दौर में प्रवेश कर गया. 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में भाजपा और वाम दलों के सहयोग से संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी. उसके बाद से देश में 2014 तक किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. 1989 के बाद 1991, 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 यानी लगातार सात लोकसभा चुनावों में किसी भी दल को कभी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. देश की राजनीति करीब-करीब दो ध्रुवीय हो गई. एक धुरी का नेतृत्व भाजपा और दूसरे का नेतृत्व कांग्रेस करने लगी. गठबंधन की राजनीति और भाजपा गठबंधन की राजनीति करने के बावजूद भाजपा लगातार मजबूत होती गई और उसके सहयोगी कमजोर पड़ते गए. अटल बिहार वाजपेयी के दौर में एनडीए की नीव पड़ी थी और उसके कुछ सबसे पुराने सहयोगियों में नीतीश कुमार की जदयू, आकाली दल, शिवसेना, हरियाणा की इनेलो जैसी पार्टिंयां थीं. आज नीतीश कुमार को छोड़कर भाजपा के ये पुराने सहयोगी अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश कर रहे हैं. पंजाब में आकाली दल का भाजपा के साथ गठबंधन टूट चुका है. इस चुनाव में आकाली दल केवल एक सीट पर सिमट गई है. हरियाणा में कभी ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाली इनेला के नेतृत्व में भाजपा ने वहां अपना पैर जमाया लेकिन आज इनेलो खत्म हो चुका है. महाराष्ट्र में कभी शिवसेना भाजपा का बड़ा भाई हुआ करती थी. बाला साहेब ठाकरे गठबंधन के शीर्ष नेता थे लेकिन आज वहां शिवसेना दोफाड़ होने के बाद मूल शिवसेना का ठप्पा लेने वाला शिंदे गुट काफी कमजोर हो गया है. दक्षिण में एनडीए दक्षिण भारत पर नजर डालें तो तमिलनाडु में भाजपा की सहयोगी रही एआईएडीएमके काफी कमजोर हो गई है. जयललिता के वक्त इस पार्टी की राष्ट्रीय स्तर पर धाक थी. उसी के समर्थन वापस लेने की वजह से 1998 में केंद्र की वाजपेयी सरकार मात्र एक वोट से गिर गई थी. आंध्र प्रदेश में भाजपा के मौजूदा सहयोगी टीडीपी के साथ बीते 10 सालों का सफर बहुत अच्छा नहीं रहा है. वाजपेयी के वक्त एनडीए का हिस्सा रही टीडीपी समय रहते मौजूदा एनडीए से दूर हो गई थी. हालांकि इस लोकसभा चुनाव से ऐन पहले वह फिर एनडीए के खेमे में आ गई और आंध्र के विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया. पूर्वी भारत अब पूर्वी भारत की ओर बढ़ते हैं. एक वक्त पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी भी वाजपेयी के एनडीए की हिस्सा थीं. लेकिन, फिर वह उनसे दूर हो गईं. वह करीब दो दशक से देश की राजनीति में अपनी हैसियत बनाए रखने में कामयाब हैं. पश्चिम बंगाल से लगे ओडिशा की भी बात कर लेते हैं. यह वही ओडिशा राज्य है जहां 1999 में ऑस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टेन और उनके दो बच्चों को जिंदा जला दिया गया था. उससे पहले 1998 में ही बीजद एनडीए के खेमे में आ गई थी. फिर 2000 के विधानसभा चुनाव में ओडिशा में भाजपा-बीजद गठबंधन को शानदार जीत मिली. दोनों ने मिलकर सरकार बनाई और नवीन पटनायक पहली बार मुख्यमंत्री बने. फिर 2009 में यह गठबंधन टूट गया, लेकिन 2024 के चुनाव के पहले तक भाजपा और बीजद के रिश्ते बेहद सहज रहे. आज स्थिति यह है कि ओडिशा में बीजद की राजनीति ही करीब-करीब खत्म होने के कागार पर पहुंच गई है. पश्चिमी भारत अब आते हैं राजीतिक रूप से देश के दूसरे सबसे बड़े सूबे पर. यह है महाराष्ट्र. महाराष्ट्र में 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद उसके सबसे भरोसेमंद सहयोगी शिवसेना ने उसका साथ छोड़ दिया. कारण जो भी लेकिन, बाद में वही शिवसेना दोफाड़ हो गई और एकनाथ शिंदे गुट को मूल शिवसेना का तगमा मिला. इस चुनाव में इस शिवसेना की स्थिति बेहद बुरी हो गई है. वह केवल सात सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब हुई. महाराष्ट्र में ही एनडीए को एक और सहयोगी मिला. वह एनसीपी को दोफाड़ करने के बाद बनी थी. अजित पवार एनसीपी को तोड़ भाजपा के साथ चले गए और इस चुनाव में उनका करीब-करीब सफाया हो गया है. उन्हें केवल एक सीट पर जीत मिली है. नीतीश सबसे चतुर खिलाड़ी एनडीए के इस पूरे इतिहास में नीतीश कुमार एक सबसे चतुर खिलाड़ी बनकर उभरे हैं. अटल-आडवाणी के दौर की भाजपा में वह बिहार में एनडीए के शीर्ष नेता थे. एक वक्त नीतीश कुमार गुजरात के सीएम रहे नरेंद्र मोदी की बिहार में एंट्री बैन करवा दी थी. लेकिन, मोदी-शाह की भाजपा में वह सहज नहीं रहे, फिर राजनीतिक मजबूरी में वह इस गठबंधन के साथ आते-जाते रहे. बीते 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश काफी कमजोर हो गए थे. राजनीति के जानकारों का कहना है कि उनको कमजोर करने के पीछे कहीं न कहीं भाजपा थी. लेकिन, इस चुनाव में नीतीश ने भाजपा की पूरी रणनीति को फेल कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. वह एनडीए में रहते हुए भाजपा से कम सीटों पर चुनाव लड़कर भी भाजपा के बराबर जीत हासिल की है. Tags: CM Nitish Kumar, Loksabha Election 2024, Loksabha ElectionsFIRST PUBLISHED : June 5, 2024, 12:45 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed