हर बार पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश होकर बहुमत की सरकार का रिकॉर्ड बना गए मोदी
हर बार पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश होकर बहुमत की सरकार का रिकॉर्ड बना गए मोदी
नरेंद्र मोदी आज तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने जा रहे हैं. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों और करीब आठ हजार अतिथियों की मौजूदगी में मोदी और उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाएंगी. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ये एक मील का पत्थर साबित होने जा रहा है, जब कोई नेता पहली से लेकर तीसरी बार, लगातार, पीएम बना लोकसभा चुनावों में आधिकारिक तौर पर पीएम पद का उम्मीदवार घोषित होने और अपनी पार्टी या गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिलाने के बाद.
जवाहरलाल नेहरू जब 1947 में पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तो महात्मा गांधी की कृपा से. गांधी ने सरदार पटेल के पक्ष में कांग्रेस का बहुमत होने के बावजूद नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया, मई 1946 में. उस समय देश में कांग्रेस की पंद्रह प्रदेश समितियां थी, उनमें से बारह ने पटेल के लिए समर्थन दिया था, एक भी प्रदेश कांग्रेस समिति ने नेहरू को समर्थन नहीं दिया था. लेकिन गांधी की इच्छा के कारण सरदार पटेल ने अध्यक्ष की रेस से खुद को बाहर किया और गांधी की योजना के मुताबिक नेहरू को अध्यक्ष की कुर्सी पर औपचारिक तौर पर बिठाया गया जुलाई 1946 में.
ये सबको पता था कि जो भी व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर उस समय बैठेगा, वही सितंबर 1946 की अंतरिम सरकार में वायसराय की एक्जक्यूटिव काउंसिल का सदस्य होगा और फिर स्वतंत्रता हासिल होने पर देश का प्रथम प्रधानमंत्री. हुआ भी यही, इसी कारण 15 अगस्त 1947 को नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने.
पटेल का हक मारते हुए नेहरू को बनवाया गया कांग्रेस अध्यक्ष
सवाल उठता है कि आखिर गांधी ने पटेल का वाजिब हक मारते हुए क्यों नेहरू को जबरदस्ती कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया और फिर इसी नाते देश का पहला प्रधानमंत्री भी बनवाया. इसका कारण भी खुद गांधी ने ही बताया है. सरदार पटेल तो गांधी की बात मानते हुए देश और पार्टी हित में नेहरू का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार हो सकते थे, लेकिन नेहरू सरदार पटेल के लिए ऐसा नहीं कर सकते थे, वो कांग्रेस छोड़कर विपक्ष की कोई पार्टी ज्वाइन करने से भी परहेज नहीं करते. गांधी की आशंका निर्मूल भी नहीं थी. गांधी और पटेल के देहांत के बाद, पीएम की कुर्सी पर मजबूती से जम गये नेहरू ने अपने से जुदा राय रखने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार नहीं किया. कांग्रेस के चुने हुए अध्यक्ष टंडन को पीएम नेहरू के विरोध के कारण इस्तीफा देना पड़ा, और टंडन के इस्तीफे के बाद खुद नेहरू को पीएम के साथ कांग्रेस अध्यक्ष का पद हथियाने में भी संकोच नहीं हुआ.
ये वही नेहरू थे, जिन्होंने आजादी के समय कहा था कि प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद किसी एक व्यक्ति के पास नहीं होना चाहिए. लेकिन गांधी और सरदार के मरते ही नेहरू अपने पहले के स्टैंड से पूरी तरह पलटी मारते हुए खुद कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे. यही नहीं, उन्हीं की इच्छा के मुताबिक इंदिरा गांधी को उनके जीवनकाल में ही कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, परिवारवाद की शुरुआत वहीं से हुई, शासन के शीर्ष पर नेहरू- गांधी खानदान को एक के बाद एक बिठाने की तैयारी भी.
नेहरू ने स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद नहीं छोड़ी पीएम की कुर्सी
नेहरू ने अपने आखिरी दिनों में स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद पीएम की कुर्सी भी नहीं छोड़ी और ये भी सुनिश्चित किया कि उनके देहांत के बाद इंदिरा गांधी को पीएम की कुर्सी मिलने में ज्यादा समय नहीं लगे. अपनी इसी इच्छा के तहत कांग्रेस के ज्यादातर मजबूत नेताओं को कामराज प्लान के तहत सत्ता से बाहर किया नेहरू ने, केंद्र से लेकर प्रदेश तक. ये वो नेहरू थे, जो एक के बाद एक चार बार प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन सत्ता का मोह नहीं छूटा था, परिवार का मोह भी नहीं. पिता नेहरू की तरह अपने जीवन काल में इंदिरा गांधी ने भी चार बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन इंदिरा गांधी जब 1966 में पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तो देश की जनता के सामने, ठीक पहले हुए लोकसभा चुनावों में उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर पेश नहीं किया गया था. इससे पहले चुनाव 1962 में हुए थे, जब नेहरू प्रधानमंत्री थे.
नेहरू के देहांत के बाद लालबहादुर शास्त्री 1964 में प्रधानमंत्री बने थे, स्वाभाविक तौर पर उन्हें भी चुनाव में प्रधानमंत्री के तौर पर पेश नहीं किया गया था. ताशकंद में शास्त्री के देहांत के बाद मोरारजी देसाई का स्वाभाविक तौर पर क्लेम बनता था, सबसे अनुभवी थे, लेकिन कांग्रेस पर कमांड रखने वाले सिंडिकेट ने उस वक्त मजबूत देसाई की जगह सियासी शतरंज की बिसात पर चाल चलते हुए नेहरू की बिटिया इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया, ये सोचकर ये गूंगी गुड़िया कमजोर होगी, पूरी तरह उनके नियंत्रण में रहेगी, वो बैकसीट ड्राइविंग करते रहेगे, सत्ता सिंडिकेट के हाथ में रहेगी.
इंदिरा ने सत्ता तभी छोड़ी जब जनता ने इससे बाहर कर दिया
लेकिन सत्ता हाथ में आने के बाद इंदिरा गांधी ने तभी छोड़ा, जब 1977 में जनता ने इंदिरा को सत्ता से बाहर किया. 1975 में अपने चुनाव को रद्द किये जाने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और भ्रष्टाचार को लेकर विपक्ष के तगड़े आंदोलन से खुद की सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी तक लगाई जून 1975 में, लोकसभा का कार्यकाल पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया, संविधान के साथ छेड़छाड़ करने में कोई कमी नहीं की गई.
जेपी की इच्छा से मोरारजी देसाई बने पीएम
आखिरकार 1977 में इमरजेंसी के खात्मे के बाद जो लोकसभा चुनाव हुए, उसमें इंदिरा के सामने विपक्ष की तरफ से किसी एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं किया गया था. संपूर्ण क्रांति के प्रणेता और इंदिरा के सामने विपक्ष के साझा फ्रंट के तौर पर जनता पार्टी बनवाने वाले जयप्रकाश नारायण की इच्छा के मुताबिक, मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया. देसाई के बाद चरण सिंह कुछ महीनों के लिए प्रधानमंत्री बने, जाहिर है, उन्हें भी पीएम के तौर पर 1977 के चुनावों मे प्रोजेक्ट नहीं किया गया था.
इंदिरा की हत्या के बाद राजीव को पीएम पद की शपथ दिलाई गई
1984 के 31 अक्टूबर को जब इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सिख सुरक्षाकर्मियों, बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने कर दी, उसके बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. स्वाभाविक तौर पर पहली बार प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले राजीव उसके ठीक पहले हुए 1980 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किये गये थे. जहां तक राजीव गांधी के बाद और मोदी के पहले बने तमाम प्रधानमंत्रियों का सवाल है, इनमें से कोई भी पहली बार जब प्रधानमंत्री बना, अटलबिहारी वाजपेयी को छोड़कर, कोई भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देश के सामने पेश नहीं किया गया था. वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने भी, तो चुनावों में अपनी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं दिला पाए थे.
1989 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान कोई व्यक्ति जनता दल की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं हुआ था. चुनाव बाद चंद्रशेखर ने देवीलाल को आगे किया था पीएम के तौर पर, लेकिन देवीलाल ने उन्हें गच्चा देते हुए वीपी सिंह को पीएम बनवा दिया, खुद डिप्टी पीएम बन गये. वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. उनकी सरकार भी छह महीने के अंदर ही गिर गई.
1991 में कांग्रेस ने जोड़तोड़ से बनाई सरकार
1991 के लोकसभा चुनावों के बाद पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने. उन चुनावों के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी, इसलिए कांग्रेस को 1984 की तरह ही सहानुभूति लहर दिलाने के लिए 1991 में राजीव की हत्या के बाद बचे बाकी चरणों के चुनावों को तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने स्थगित किया. बावजूद इसके चुनाव पूरे होने के बाद कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला, 272 के बहुमत के आंकड़े की जगह 244 सीटें ही जीत पाई कांग्रेस, जोड़तोड़ से सरकार बनाई उसने. 1991 के लोकसभा चुनावों में राव प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किये गये थे, वो तो हैदराबाद के लिए सामान बांध रहे थे, पार्टी में अपना भविष्य नहीं देखते हुए, राजनीतिक संन्यास लेने की योजना के साथ. राजीव की हत्या के बाद पैदा हुई परिस्थिति ने उन्हें देश का पीएम बना दिया.
1996 के लोकसभा चुनावों के बाद अटलबिहारी वाजपेयी की अगुआई में सरकार बनी, बीजेपी ने उन्हें उन चुनावों में अपने चेहरे और प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश किया. लेकिन चुनावों में बीजेपी को बहुमत नहीं हासिल हुआ था, तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने वाजपेयी को इसलिए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के लिए आमंत्रित किया, क्योंकि 1996 के उन चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर बीजेपी उभरी थी, न कि उसके पास सदन में बहुमत था. शर्मा ने महज एक पखवाड़े का समय दिया था वाजपेयी को सदन में बहुमत साबित करने के लिए, लेकिन वाजपेयी बहुमत नहीं जुटा सके और तेरह दिन में ही उनकी सरकार चली गई.
1989 में नेशनल फ्रंट, लेफ्ट फ्रंट और बीजेपी ने बनाई सरकार
ध्यान रहे कि 1989 के लोकसभा चुनावों में जब किसी पार्टी को सदन में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, तो तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने सबसे बड़े प्री- पोल एलायंस के तौर पर नेशनल फ्रंट, लेफ्ट फ्रंट और बीजेपी के 282 के आंकड़े को तरजीह दी थी, न कि सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर कांग्रेस को. वजह भी साफ थी, कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व के दलों का ऐसा कोई गठबंधन नहीं था, जो सदन में बहुमत लेकर आया हो, जबकि विपक्ष के पास ऐसा था.
हालांकि 1991 के लोकसभा चुनावों के बाद वेंकटरमण ने कांग्रेस को भी गठबंधन के फार्मूले से सरकार बनाने का फायदा दिया, जहां कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास कुलमिलाकर 241 सीटें थी, सदन में बहुमत नहीं था, फिर भी सरकार बनाने को आमंत्रित किया गया. ये आजाद भारत के इतिहास में अल्पमत में बनने वाली पहली सरकार थी. इससे पहले जब वेंकटरमण ने वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था, तो बहुमत का प्रमाण मांगा था और सिर्फ 57 सांसदों के समर्थन वाले चंद्रशेखर को कांग्रेस के बाहर से दिये गये समर्थन के कारण प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी.
बीजेपी ने 1996 का चुनाव वाजपेयी को केंद्र में रखकर लड़ा
1996 के लोकसभा चुनावों में किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं हासिल हुआ था, ऐसे में सदन की सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर शंकरदयाल शर्मा ने वाजपेयी को आमंत्रित किया था प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए. वाजपेयी इन चुनावों से पहले सदन में विपक्ष के नेता थे, लालकृष्ण आडवाणी ने 1992 में विवादास्पद बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद सदन में बीजेपी के नेता पद से इस्तीफा दे दिया था और 1996 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले वाले साल में जैन हवाला डायरी में नाम आने के कारण 1996 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़े थे. ऐसे में 1996 के लोकसभा का चुनाव वाजपेयी को ही केंद्र में रखकर लड़ी थी बीजेपी. वाजपेयी के लिए शर्मा ने सदन में बहुमत साबित करने की कड़ी शर्त लगाई थी, काफी कम समय दिया था. महज एक पखवाड़े के अंदर सदन में बहुमत साबित करने को कहा गया था, जो पिछले अवसरों के मुकाबले काफी कम था. इससे पहले वेंकटरमण ने वीपी सिंह और राव, दोनों को सदन में बहुमत साबित करने के लिए महीने भर का समय दिया था.
सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाने की आशंका के मद्देनजर, जब 28 मई 1996 को वाजपेयी ने इस्तीफा दे दिया, तब शंकरदयाल शर्मा ने एचडी देवगौड़ा को प्रधानमंत्री की शपथ एक जून 1996 को लेने के लिए आमंत्रित किया. देश के 11वें प्रधानमंत्री के तौर पर देवगौड़ा को बारह जून तक बहुमत साबित करना था, कांग्रेस के समर्थन से वो ऐसा कर पाए. जाहिर है, 1996 के उन लोकसभा चुनावों में देवगौड़ा को यूनाइटेड फ्रंट की तरफ से पीएम उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया गया था, न ही उनके हटने के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले इंदर कुमार गुजराल को.
1998 और 1999 में वाजपेयी की अगुआई में बनी सरकार
1998 और 1999 दोनों अवसरों पर वाजपेयी की अगुआई में एनडीए की सरकार बनी, जिसके अंदर सबसे बड़ी पार्टी थी बीजेपी. 1998 वाली सरकार बहुमत के अभाव के कारण तेरह महीने में ही गिर गई थी, सिर्फ 1999 में बनी वाजपेयी के तीसरे टर्म की सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाई.
2004 में जब लोकसभा चुनाव हुए, यूपीए की तरफ से किसी को प्रधानमंत्री पद के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया गया था. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला सोनिया गांधी का था, सार्वजनिक तौर पर था. मनमोहन सिंह तो लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़े थे. ऐसे में स्वतंत्र भारत के इतिहास में मोदी एक मात्र व्यक्ति हैं, जिन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री की कुर्सी तब संभाली, जब वो उस समय हुए लोकसभा चुनावों में पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किये गये थे और अपनी पार्टी को बहुमत दिलाने में कामयाब रहे थे. 2014 में ये रिकॉर्ड बनाने वाले मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भी 303 सीटें जीतकर बीजेपी की अपने दम की सरकार बनाई.
2024 के लोकसभा चुनावों में भी उनकी ही अगुआई में ही बीजेपी की 240 सीटों के साथ एनडीए ने कुल मिलाकर 292 सीटें जीती, जो सदन में बहुमत के आंकड़े से बीस ज्यादा है. ऐसे में परंपरा के मुताबिक सबसे बड़े प्री-पोल एलायंस या फिर सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी को आमंत्रित करने के अलावा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पास कोई विकल्प नहीं था.
आखिर वो कुछ अन्य सोचें भी कैसे, इतिहास में तो वैसी सरकारें भी बन चुकी हैं, जब आमंत्रण मिलने के समय उस प्रधानमंत्री, पार्टी या गठबंधन के पास बहुमत का आंकड़ा तक नहीं था. यहां तो एनडीए के पास बड़ा बहुमत है. 2024 की जीत के साथ मोदी एक अनूठा रिकॉर्ड भी बना गये हैं, प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में जनता के सामने प्रथम बार से लेकर तीसरे बार तक पेश होने और हर बार अपनी पार्टी या फिर चुनाव पूर्व गठबंधन को बहुमत दिलाने का. ये ‘हैट्रिक’ भारतीय राजनीति के लिए खास है, अनूठी है, रिकॉर्ड है.
Tags: 2024 Lok Sabha Elections, Narendra modi, PM Modi, Pm narendra modiFIRST PUBLISHED : June 9, 2024, 12:31 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed