डॉ. संपूर्णानंद (Dr. Sampurnanand ) दिसंबर 1954 में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. अप्रैल 1957 में वह दोबारा CM की कुर्सी पर बैठे. बनारस में जन्में डॉ. संपूर्णानंद हिंदी, संस्कृत और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे. पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएससी और एलएलबी की पढ़ाई की. इसके बाद पढ़ाने लगे. लंदन मिशन हाई स्कूल से लेकर प्रेम महाविद्यालय, काशी विद्यापीठ और डूंगर कॉलेज में पढ़ाया. फिर सक्रिय राजनीति में आ गए.
बनारस का बदल दिया नाम
वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव अपनी किताब ‘एट द हार्ट ऑफ पावर: द चीफ मिनिस्टर्स ऑफ उत्तर प्रदेश” (At the Heart of Power: The Chief Ministers of Uttar Pradesh) में लिखते हैं कि संपूर्णानंद जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बनारस के गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया और नाम बदलकर वाराणसी संस्कृत यूनिवर्सिटी कर दिया. उन्हीं की सरकार ने 24 मई 1956 को ऐतिहासिक बनारस शहर का नाम बदलकर वाराणसी किया.
संपूर्णानंद सरकार ने सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में रिफॉर्म की कोशिश की. उनकी सरकार राज्य में गौ हत्या पर प्रतिबंध के लिए नियम बनाना चाहती थी. उस वक्त आरएसएस और जनसंघ इस मुद्दे को खूब उछाल रहे थे. हालांकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और बात आगे नहीं बढ़ पाई.
दूसरे कार्यकाल में मुश्किलें
श्यामलाल यादव लिखते हैं कि संपूर्णानंद के पहले कार्यकाल में तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन जैसे ही दूसरी बार कुर्सी संभाली, समस्याएं खड़ी होने लगीं. एक तरफ राज नारायण और त्रिलोकी सिंह जैसे विपक्षी उन पर हमलावर थे. तो दूसरी तरफ कांग्रेस के अंदर ही एक धड़ा उनके खिलाफ हो गया. जिसमें चंद्रभानु गुप्ता, कमलापति त्रिपाठी और चौधरी चरण सिंह जैसे नेता थे. 1957 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कद्दावर नेता चंद्रभानु गुप्ता (सीबी गुप्ता) को लखनऊ (पूर्वी) सीट पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता त्रिलोकी सिंह से का सामना करना पड़ा. इसके बावजूद उन्होंने संपूर्णानंद के खिलाफ गोलबंदी शुरू कर दी.
1958 में बुंदेलखंड की मड़वा सीट पर उपचुनाव हुआ. चंद्रभानु गुप्ता ने फिर विधानसभा में पहुंचने की कोशिश की, लेकिन इस बार फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की उम्मीदवार महारानी राजेंद्र कुमारी से हार गए. लगातार दो हार के बावजूद चंद्रभानु गुप्ता की उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी पर पकड़ कमजोर नहीं हुई.
रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने पर बवाल
कांग्रेस के अंदर खेमेबाजी चल ही रही थी कि साल 1958 में संपूर्णानंद सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र 55 साल से बढ़ाकर 58 साल करने का ऐलान कर दिया. विरोधी खेमा और हमलावर हो गया. श्यामलाल यादव लिखते हैं कि डॉ. संपूर्णानंद को अपने दूसरे कार्यकाल में तीन अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. 1957 1958 और 1959 में. डॉ. संपूर्णानंद (सोर्स- https://amritmahotsav.nic.in/)
तीन अविश्वास प्रस्ताव
पहला अविश्वास प्रस्ताव सोशलिस्ट लीडर राज नारायण लेकर आए. 106 विधायकों ने पक्ष में मतदान किया और 265 ने इसके खिलाफ. दूसरा अविश्वास प्रस्ताव एक और सोशलिस्ट लीडर त्रिलोकी सिंह लेकर आए. 95 विधायकों ने समर्थन किया और 279 खिलाफ थे. तीसरा अविश्वास प्रस्ताव भी त्रिलोकी सिंह ही लेकर आए. इस बार 112 विधायक इसके पक्ष में थे और 285 खिलाफ.
तीसरे अविश्वास प्रस्ताव पर जब चर्चा के दौरान एक दिलचस्प वाकया हुआ. कांग्रेस के ही नेता आचार्य जुगल किशोर खड़े हुए और कहा कि उनके पास कांग्रेस के 96 विधायकों के समर्थन वाला एक पत्र है. जिसमें उन्होंने कहा है कि वे अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में शामिल होना चाहते हैं, पर ऐसा कर नहीं सकते. विधायकों ने कहा है कि जिस तरीके से संपूर्णानंद सरकार चला रहे हैं, वह न तो आम लोगों के हित में है और न ही कांग्रेस के विचारधारा के अनुरूप.
एक गलती और चली गई CM की कुर्सी
संपूर्णानंद के खिलाफ गोलबंदी चल ही रही थी कि एक ऐसा मौका आया जब उन्होंने खुद कुल्हाड़ी पर पैर रख दिया. यह उनके जीवन का सबसे बड़ा ब्लंडर था. संपूर्णानंद मानते थे कि कांग्रेस का जो धड़ा उनका विरोध कर रहा है, उसे चंद्रभानु गुप्ता ही उकसा रहे हैं. अक्टूबर 1960 में जब चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के लिए चुनाव मैदान में उतरे तो CM खुलेआम उनके विरोध में उतर आए. ऐलान कर दिया कि अगर गुप्ता चुनाव जीत गए तो वह अपनी कुर्सी से इस्तीफा दे देंगे. चंद्रभानु गुप्ता
हमेशा के लिए छोड़ दी राजनीति
4 अक्टूबर 1960 को यूपी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ. संपूर्णानंद ने खुद मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को मैदान में उतार दिया, पर चंद्रभानु गुप्ता 630 वोट के बहुमत के साथ आसानी से अध्यक्षी का चुनाव जीत गए. इसके बाद संपूर्णानंद के खिलाफ बगावत धरातल पर आ गई. जवाहरलाल नेहरू को हस्तक्षेप करना पड़ा. आखिरकार अपनी गलती के चलते डॉ. संपूर्णानंद को सीएम की कुर्सी छोड़ने पड़ी. उनकी जगह चंद्रभानु गुप्ता को 7 दिसंबर 1960 को सीएम बना दिया गया. इस घटना के बाद डॉ. संपूर्णानंद में राजनीति से संन्यास ले लिया. 1962 के चुनाव में नहीं उतरे.
Tags: UP CM, Uttar pradesh newsFIRST PUBLISHED : June 16, 2024, 15:52 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed