दास्तान-गो : इंसानी इरादों के ‘धूल में मिलने और फूल से खिलने’ की मिसाल है गुजरात का सोमनाथ मंदिर!
दास्तान-गो : इंसानी इरादों के ‘धूल में मिलने और फूल से खिलने’ की मिसाल है गुजरात का सोमनाथ मंदिर!
Daastaan-Go ; Story Of Somnath Temple Of Gujarat : डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद उस वक़्त जब सोमनाथ आए और वहां प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल हुए तो उन्होंने एक बड़ी मार्के की बात की थी. उन्होंने कहा था, ‘सोमनाथ का मंदिर एक मिसाल है. ये मिसाल है इस बात की पुनर्निर्माण हमेशा विध्वंस से बड़ा होता है. महान होता है’
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, आज शिवरात्रि है. हिंदू कैलेंडर के मूुताबिक, शिवरात्रि हर महीने आया करती है. हिन्दी महीनों में जो कृष्ण पक्ष होता है न, उसी दौरान 14वें दिन. सो, अभी कल यानी 22 नवंबर को हिन्दी महीने ‘मार्गशीर्ष’ के कृष्ण पक्ष का वही 14वां दिन गुज़रा है. उसका कुछ छोटा सा हिस्सा आज, 23 नवंबर की सुबह तक भी मौज़ूद रहा है, ऐसा हिंदू कैलेंडर से ही पता चलता है. इसके बाद अमावस का अंधियारा शुरू हुआ है. अब कोई पूछ सकता है कि इस दास्तान का इन सब मज़हबी बातों से क्या लेना-देना है भला? तो जनाब, लेना-देना है. आप लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ पढ़ते जाइए और बढ़ते जाइए. आप ख़ुद ये समझ जाएंगे कि लेना-देना है इस सबका. क्योंकि आज जो दास्तान है न, वह गुजरात के सोमनाथ मंदिर से त’अल्लुक़ रखती है, जो ‘इंसानी इरादों के बार-बार धूल में मिल जाने और फिर फूल से खिल जाने की मिसाल’ है. अलबत्ता सवाल यहां भी मुमकिन है.
कोई भी कह सकता है कि ये दास्तान तो सबको पता है. मालूम है कि किस तरह गुजरात का ये सोमनाथ मंदिर गिरा और गिरकर कई बार फिर उठ खड़ा हुआ. फिर इसमें नया क्या है? तो जनाब, इस दास्तान में ये क़िस्से का जो दोहराव है न, बस यही इसका नयापन है. क्योंकि इंसान की याद-दाश्त बहुत जल्द धुंधली पड़ जाया करती है. इसीलिए उसे उसी के जज़्बे, उसके इरादे से जुड़े क़िस्से बार-बार याद दिलाने पड़ते हैं. याद दिलाना पड़ता है कि वह अगर चाहे, इरादा ठान ले, तो ख़त्म होने की, मरने की, कग़ार पर पहुंचकर भी फिर ज़िंदगी पा सकता है. गुजरात का सोमनाथ मंदिर इसकी मिसाल है. बल्कि इसकी तो बुनियाद ही ऐसे जज़्बे, इरादे पर रखी पाई जाती है. ग़ौर कीजिए, हिन्दू मज़हब की किताब-ए-पाक ‘शिव-पुराण’ के एक क़िस्से पर. बात उन दिनों की है, जब इंसान और देवी-देवताओं, भगवानों के बीच दूरी बहुत ज़्यादा नहीं होती थी.
कहते हैं, उस दौर के ‘बड़े राजा’ दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 लड़कियों (नक्षत्र) की शादी चंद्रमा से कर दी थी. उनमें एक लड़की का नाम था रोहिणी. नैन-नक़्श से बला की ख़ूबसूरत. चंद्रमा उस पर रीझे-रीझे जाते थे. ज़्यादा वक़्त उसी के साथ गुज़ारते तो उसकी बाकी बहनों ने इसकी शिकायत पिता दक्ष से कर दी. दक्ष को गुस्सा आ गया. उन्होंने चंद्रमा को बद-दुु’आ दे दी कि, ‘तुम तिल-तिल कर घटते जाओगे. और एक रोज़ ख़त्म हो जाओगे’. चंद्रमा के साथ यही होने लगा फिर. तभी नारद (ख़बरी दुनिया की पहली शख़्सियत) आ गए. उन्होंने चंद्रमा को याद दिलाया कि वह कोई आम शख़्सियत नहीं हैं. उनके इरादे में बहुत ताक़त है. सो, इरादा करें. शिव-शंकर को याद करें. ज़िंदगी वापस मिल जाएगी. चंद्रमा ने यही किया. पंद्रह दिन, पूरे पंद्रह दिन वह तिल-तिल कर घटते हुए भी भोले-शंकर को याद करते रहे. और फिर आख़िरी दिन चमत्कार हो गया.
पंद्रहवें दिन जब चंद्रमा ख़त्म होने को थे, काइनात पर ‘अमावस’ छाने को थी तभी शिव-शंभू आए और उन्होंने चंद्रमा को उठाकर सिर पर रख लिया. चंद्रमा फिर ज़िंदगी की तरफ़ लौटने लगे. और ऐसे लौटे कि फिर कभी ख़ात्मा उनको छू नहीं सका. कहते हैं, ये वाक़ि’आ समंदर के किनारे घटा था. तब, शिव-शंभू पहली बार धरती पर आए थे, चंद्रमा की मदद को. और चंद्रमा ने वहीं उनकी इबादत कर एक मुक़द्दस-मक़ाम ता’मीर किया था. उसी ने आगे सोमनाथ मंदिर की शक़्ल पाई. हिंदू मज़हब में बताए गए शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से पहला. और वह जो 15 दिनों तक चंद्रमा के तिल-तिल कर घटने का वक़्त था न, उसे हिंदू कैलेंडर में कृष्ण पक्ष कहा गया. इसके बाद अमावस, जब चंद्रमा ख़त्म होने की कग़ार पर पहुंचे. और फिर उजला वक़्त यानी शुक्ल-पक्ष, जब महादेव ने चंद्रमा को नई ज़िंदगी दी. जिसके बल पर वे पूरे होते हैं, पूनम की रात में.
और दिलचस्प है जनाब, कि जिस वाक़ि’अे की बुनियाद पर ये सोमनाथ-मंदिर ता’मीर हुआ, वैसे वाक़ि’अे इसके आगे के वक़्ती-सफ़र में भी एक बार नहीं, बार-बार घटे. कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की तरह तिल-तिल कर घटने, अमावस के चांद की तरह ख़त्म होने की कग़ार पर पहुंचने और फिर शिव के शीश पर जा पहुंचने के वाक़ि’अे. इसकी छह-सात मिसालें तो तारीख़ी-किताबों (इतिहास की) में दर्ज़ हैं. इनमें से एक साल 1025 के आस-पास की बताई जाती है. उस दौर से कुछ पहले अरब-फ़ारस की खाड़ी से अल-बिरूनी नाम का एक मुसाफ़िर हिन्दुस्तान आया था. कहते हैं, उसने अपने सफ़रनामे में सोमनाथ मंदिर की शान-ओ-शौक़त तफ़्सील-वार लिखी थी. इसका इल्म ग़ज़नवी सल्तनत के तब के सुल्तान को हो गया. दुनियाभर की दौलत लूटने में दिलचस्पी रखने वाले उस सुल्तान (महमूद ग़ज़नवी) ने हिन्दुस्तान पर हमला कर दिया. और मंदिर ढहा दिया.
लेकिन कुछ सालों के बाद ही बताते हैं, गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने मंदिर फिर से बनवा दिया. पर ये मंदिर, इसकी शान-ओ-शौक़त ‘लुटेरों’ की निग़ाह में आ चुकी थी. लिहाज़ा, साल 1296 में जब दिल्ली पर अलाउद्दीन खिलजी ने क़ब्ज़ा किया, तो सालभर बाद ही उसके सिपह-सालार नुसरत खां ने गुजरात पर हमला कर ये मंदिर फिर तोड़ दिया. यहां से भारी दौलत भी लूट ली. मगर हिन्दू राजाओं ने मंदिर तिबारा बनवा दिया. बताते हैं, मंदिर के टूटने-बनने का ये सिलसिला छह-सात बार चला. आख़िरी बार तब, जब हिन्दुस्तान पर मुग़ल सुल्तान औरंगज़ेब की हुक़ूमत थी. यानी 1658 से 1707 के दौरान. इस वक़्त यह मंदिर ‘सुल्तान’ ने दो बार तुड़वाया. लूट-पाट और क़त्ल-ए-आम कराया. लेकिन ये सब कुछ भी इंसानी इरादे को डिगा नहीं सका. मंदिर तब जिस हाल में रहा, उसी सूरत-ए-हाल में भी उसमें सांसें फूंकी जाती रहीं.
फिर साल आया 1782 का. जब ‘देवी’ का दर्ज़ा पा चुकी मालवा की होल्कर रानी अहिल्याबाई ने सोमनाथ में औरंगज़ेब के तोड़े हुए मंदिर के नज़दीक ही अपने आराध्य शिव का एक अलग मंदिर बनवा दिया. ताकि अनादि, अनंत, अखंड, शिव-तत्त्व बना रहे. हालांकि, इस मंदिर के बगल में ढही हुई खड़ी पाकीज़ा-इमारत सालों-साल तक कई लोगों को कचोटती रही. इन्हीं में दो बड़े नाम शुमार होते हैं. एक- केएम (कन्हैयालाल माणिकलाल) मुंशी और दूसरे- सरदार वल्लभ भाई पटेल. दोनों गुजराती. दोनों हिन्दुस्तानी सियासत की बड़ी शख़्सियतें. इनमें से सरदार पटेल साहब के बारे में तो सब जानते ही हैं. लिहाज़ा मुंशी साहब के बारे में कुछ याद कर लेना बेहतर होगा. तमाम बड़े हिन्दुस्तानी नेताओं की तरह वह भी शुरू में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ही नेता रहे. लेकिन हिन्दुस्तान के बंटवारे के मसले पर वह कभी कांग्रेस के दूसरे नेताओं से एक-राय न हुए.
लिहाज़ा 1941 में मुंशी साहब ने कांग्रेस छोड़ी, पर उन्हें मना लिया गया. फिर संविधान सभा में शामिल रहे और पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में खेती-बाड़ी और जंगल महकमे के वज़ीर भी रहे. लेकिन फिर ‘अखंड भारत’ के मसले पर ही उनकी राह कांग्रेस से ज़ुदा हो गई. पहले चक्रवर्ति राजगोपालाचारी के साथ स्वतंत्र पार्टी का हिस्सा बने और दक्षिण-पंथ की सियासत करने लगे. बताते हैं, 29 अगस्त 1964 को दक्षिण-पंथ वाली ही तंज़ीम ‘विश्व हिंदू परिषद’ की नींव रखने के लिए के लिए बंबई के सांदीपनि साधनालय में जो बैठक हुई, उसकी गद्दी मुंशी साहब ने ही संभाली थी. तो जनाब, ये मुंशी साहब ही हमारे दौर की वह पहली शख़्सियत थे, जो साल 1922 में कभी एक रोज़ सोमनाथ गए थे. वहां उन्होंने पुराने मंदिर को जर्जर हाल में पाया तो ख़्वाब देखा, मंसूबा बांधा कि एक रोज़ इस मंदिर को उसकी पुरानी शान-ओ-शौक़त में लौटाकर रहेंगे. मुंशी साहब ने अपने इस ख़्वाब, इस मंसूबे के बाबत एक किताब भी लिखी है, ‘सोमनाथ : द श्राइन एटरनल’.
फिर, आगे चलकर मुंशी साहब ने इस मंसूबे में सरदार पटेल का साथ मिलाया. और हिन्दुस्तान के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को भी. तस्वीरें वह तारीख़ बयां करती हैं, जब सरदार पटेल ‘जर्जर सोमनाथ मंदिर’ के एक ऊंचे मक़ाम पर तिरंगा फहराकर आए थे. वह इसी नवंबर महीने की 13 तारीख़ थी. साल 1947 का, जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ. और उसी वक़्त से सोमनाथ मंदिर सही मायनों में अपनी पुरानी शान-ओ-शौक़त में लौटना भी शुरू हुआ. हालांकि इससे जुड़ी बहस के मसले भी बार-बार लौटते रहे. एक बार तो तभी लौट आए, जब डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, बतौर राष्ट्रपति, इस मंदिर के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल हुए. ये बात है साल 1951 की 11 मई की. कहते हैं, तब मौज़ूदा प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही इस पर ए’तिराज़ जता दिया था. मगर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को अपने भरोसे पर ज़्यादा भरोसा था शायद.
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद उस वक़्त जब सोमनाथ आए और वहां प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल हुए तो उन्होंने एक बड़ी मार्के की बात की थी. उन्होंने कहा था, ‘सोमनाथ का मंदिर एक मिसाल है. ये मिसाल है इस बात की पुनर्निर्माण हमेशा विध्वंस से बड़ा होता है. महान होता है’. सो, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की इसी बात को ज़ेहन में रखते हुए दास्तान को फिर उसी मोड़ पर लाकर समेटते हैं, जहां से शुरू की थी. कि आज शिवरात्रि है. और हिन्दू मज़हब में ये जो शिवरात्रि है न, शिव और शक्ति के मेल का मौक़ा कही जाती है. और सोमनाथ उन चुनिंदा जगहों में शुमार होता है, जहां शिव के साथ शक्ति का बार-बार मेल हुआ है. विध्वंस करने की इंसान की शक्ति और पुनर्निर्माण की इंसान की शक्ति. ये दास्तान इसी इंसानी शक्ति की याद दिलाने के लिए फिर कही गई है.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Assembly elections, Gujarat, Hindi news, up24x7news.com Hindi Originals, Somnath TempleFIRST PUBLISHED : November 23, 2022, 09:23 IST