क्यों साफसुथरे चुनावों की बात होते ही याद आने लगते हैं टीएन शेषन
क्यों साफसुथरे चुनावों की बात होते ही याद आने लगते हैं टीएन शेषन
बात फिर साफसुथरे चुनावों के साथ मजबूत और निष्पक्ष चुनाव आयोग की होने लगी है. सुप्रीम कोर्ट की 05 सदस्यीय बेंच ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कहा कि उन्हें किसी भी राजनीतिक विचारधारा से परे रहना चाहिए. सुनवाई के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट ने मिसाल के तौर पर पूर्व मुख्य चुनाव आय़ुक्त टीएन शेषन का नाम लिया.
हाइलाइट्स1990 में तत्कालीन कानून मंत्री स्वामी के कहने पर मुख्य चुनाव आय़ुक्त बने थे टीएन शेषन1954 में आईएएस में सेलेक्ट हुए और हमेशा नियमों पर पाबंद रहने के लिए विवादों में भी रहे06 साल तक चीफ इलेक्शन कमिश्नर रहे और दिखाया कि कोई सिस्टम कैसे बदला जा सकता है
अगर किसी को 80 के दशक तक की याद हो तो चुनाव का समय आते ही सड़कों और गलियों में दिन रात में लाउडस्पीकर से ऊंची आवाजों में चुनाव प्रचार होना शुरू हो जाता था. कोई लाख इतराज करे तब भी ये गलाफाड़ शोर खत्म नहीं होता था. चुनाव प्रचार में बेहिसाब खर्च होते थे.इससे जुड़ी हिंसा को सरकारी मशीनरी आमतौर पर मूक होकर देखती थी. सियासी दल बूथ कैप्चरिंग को जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे.
यहां तक कि कई राज्य और शहर ऐसे थे, जहां दबंग और असरदार सियासी नेताओं की दबंगई के सामने चुनाव आयोग लाचार हो जाता था. कुछ नहीं कर पाता था. सच बात ये है कि उन दिनों पूरी सरकारी मशीनरी खुद को अजीब अपंग स्थिति में पाती थी. ऐसे में जब 90 के दशक में टीएन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभाला तो उन्होंने पहली बार ये अहसास दिलाया कि चुनाव आयोग भी कुछ होता है और चुनाव के समय वो अगर ठान ले तो बड़े से बड़ा शख्स भी चूं चां नहीं कर सकता.
इन दिनों सुप्रीम कोर्ट की 05 सदस्यों की खंडपीठ निष्पक्ष चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों को लेकर सुनवाई कर रही है. सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत को कहना पड़ा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्तों को निष्पक्ष के साथ किसी भी सियासी विचारधारा से प्रेरित नहीं होना चाहिए. अदालत ने उदाहरण दिया कि चुनाव आयुक्त हो तो शेषन जैसा हो, जिसने ये दिखा दिया कि निष्पक्ष चुनाव कैसे होते हैं और कैसे कराए जाते हैं.
तब इन राज्य सरकारों के आगे चुनाव आयोग पानी मांगता था
80 के दशक में जब बिहार में लालू यादव की सरकार के साथ पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की मार्क्सवादी सरकारें काम कर रही थीं तो ये देखा गया था कि चुनाव के दौरान इन सरकारों की दंबंगई के आगे चुनाव आयोग भी पानी मांगने लगता था. इन राज्यों से बड़े पैमाने पर चुनाव के दौरान धांधलियों की खबरें आती थीं. केंद्रीय बल उन दिनों चुनाव के दौरान तैनात नहीं होते थे. अगर होते भी थे तो बहुत छोटी संख्या में. चुनाव स्थानीय प्रशासन और पुलिस द्वारा कराए जाते थे, जिसमें बैठे अफसर ज्यादा राज्य की सत्तासीन सरकार और उसके इशारों पर नाचती थी.
टीएन शेषन अपने पूर्व करियर में किसी से नहीं दबे, इससे उनके टकराव हुए तो फायदा भी हुआ (wiki commons)
क्यों दी जाती है शेषन की मिसाल
इसलिए टीएन शेषन की मिसाल लगातार दी जाती है. उन्होंने इस पद की महत्ता और महिमा दोनों को चरितार्थ किया. दुर्भाग्य ये रहा है कि उनके पहले और कमोवेश उनके बाद चुनाव आय़ोग जैसी संस्था और चुनाव आयुक्त जैसे पद को महत्ता खत्म होती गई और उन्हें सुनियोजित तरीके से भोथरा करने की भी कोशिश की गई. जैसे जब शेषन चुनाव आयुक्त थे, तब चुनाव आयोग का सर्वेसर्वा आला मुख्य चुनाव आयुक्त ही होता था. सहायक के तौर पर दो उप चुनाव आय़ुक्त होते थे.
क्यों शेषन से सत्ता को भय भी महसूस हुआ
शेषन के कार्यकाल के बाद सरकारों को ताकतवर मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से इस कदर भय महसूस हुआ कि उन्हें लगा कि एक आदमी अगर चुनाव आयोग में इतना ज्यादा ताकतवर हो गया तो ना जाने कितनी कहर ढा दे लिहाजा चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आय़ुक्त के साथ दो अन्य चुनाव आयु्क्त पद सृजित हुए. अब मुख्य चुनाव आयुक्त अकेले कुछ नहीं कर सकता था. लेकिन ये अब भी बड़ा सवाल है कि चुनाव आयोग और उसके चुनाव आयुक्त चाह लें तो चुनावों के दौरान ना केवल निष्पक्षता बरकरार रह सकती है बल्कि भयमुक्त चुनाव भी हो सकते हैं.
शेषन ने दिखाया कि मुख्य चुनाव आय़ुक्त कैसा होना चाहिए
हालांकि ये बड़ा सवाल है कि टीएन शेषन अगर आज भी चुनाव आयुक्त होते तो वो वैसा ही करने में सक्षम होते जो उन्होंने 90 के दशक में अपने कार्यकाल के दौरान करके दिखाया था. देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन सख्त मिजाज थे. नियम के पक्के थे. भयमुक्त थे. उनको ये पता था कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. ये मोह भी नहीं था कि रिटायर होने के बाद उन्हें कोई मलाईदार ओहदा या सुविधाएं मिल जाएंगी. वैसे तो तमाम उदाहरण ये बताते हैं कि नियमों के पक्के आला अधिकारी सत्ता को पसंद नहीं आते.
ईमानदारी और कानून के प्रति अपनी निष्ठा की वजह से वह बहुत से लोगों को खटकते थे. उनके विरोधी उनको सनकी और तानाशाह भी कहते थे. (news18)
चुनाव सुधारों के जनक
देश के दबंग चुनाव आयुक्त के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले टी.एन.शेषन नौकरशाही में भी सुधार के जनक थे. ईमानदारी और कानून के प्रति अपनी निष्ठा की वजह से वह बहुत से लोगों को खटकते थे. उनके विरोधी उनको सनकी और तानाशाह भी कहते थे. हालांकि देश के बड़े वर्ग के लिए वह ऐसे नायक बन गए, जो चुनावों में सही मायने में पारदर्शिता, निष्पक्षता लेकर आया, उसने चुनावों को सत्ता में बैठी पार्टियों, दंबगई, पैसे की ताकत आदि से दूर करके साफसुथरा बनाया.
1954 में आईएएस में सेलेक्ट हुए थे
टी.एन.शेषन का जन्म 15 दिसंबर 1932 को केरल के पलक्कड़ में में हुआ था. मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से फिजिक्स में ग्रेजुएशन किया. फिर मास्टर डिग्री ली. शुरू में वह कॉलेज में पढ़ाते भी थे लेकिन सेलरी कम होने के कारण वह नौकरी छोड़ी. 1954 में आईएएस में सेलेक्ट हुए. 1955 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में ट्रेनी के तौर पर करियर शुरू किया. उन्होंने आईएएस बनने के बाद हर पग पर अपनी छाप छोड़ी. कभी किसी के दबाव में नहीं आए. इसलिए सीनियर्स और नेताओं से विवाद भी खूब हुए.
सीनियर से झगड़ा फायदेमंद रहा
1962 में उनका अपने एक सीनियर से झगड़ा हो गया जिस वजह से उनका सचिवालय से ट्रांसफर कर दिया गया. उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की बातें जब तमिलनाडु के तत्कालीन उद्योग और परिवहन मंत्री रामास्वामी वेंकटरमन तक पहुंची तो उन्होंने उन पर भरोसा जताया. हालांकि बाद में उनकी राज्य के मुख्यमंत्री से नहीं बनी तो दिल्ली ट्रांसफर कर दिए गए.
स्वामी ने बनाया था मुख्य चुनाव आयुक्त
80 के दशक में दिल्ली में नियुक्ति के दौरान उनकी नजदीकी राजीव गांधी से बढ़ी. उनको आंतरिक सुरक्षा का सचिव बनाया गया, जिस पद पर 1989 तक रहे. 10 महीने बाद वह कैबिनेट सचिव बनाये गए. हालांकि राजीव गांधी की 1989 में हार के बाद शेषन का तबादला योजना आयोग में कर दिया गया. जब चंद्रशेखर की सरकार बनी तो कानून मंत्री सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त पद का आफर दिया. शुरू में वह इसके लिए तैयार नहीं थे लेकिन फिर अपने करीबियों से सलाह मश्विरा करने के बाद ये पद ले लिया. दिसंबर 1990 में उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभाला. उसके बाद तो देश में बहुत तेजी से चुनाव व्यवस्था में सुधार हुए.
दरअसल स्वामी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में शेषन के गुरु थे और इस नाते वह उनके करीब थे. प्राप्त जानकारी के अनुसार डॉ. स्वामी ने शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त के पद को स्वीकार कर लेने के लिए काफी मान मनौव्वल की थी. बाद शेषन ने राजीव गांधी की सलाह पर मुख्य चुनाव आयुक्त के लिए अपनी सहमति दी थी. हालांकि राजीव गांधी ने चंद्रशेखर को इस फैसले के लिए पछताने की बात कही थी.
चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था बनाया
चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के रूप में स्थापित करने में शेषन का महत्वपूर्ण योगदान है. शेषन देश के पहले ऐसे चुनाव आयुक्त थे जिन्होंने यह कहने का साहस दिखाया कि चुनाव आयोग सरकार का हिस्सा नहीं है. चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है. शेषन से पहले सरकारी पत्र में चुनाव आयोग भारत सरकार लिखा होता था. शेषन ने इस परंपरा को समाप्त कर सरकारी अधिकारियों की चुनाव आयोग के प्रति जवाबदेही तय की.
शेषन ने केंद्र और राज्य सरकारों के सचिवों को आयोग के प्रति जिम्मेदार बनाया और इसके लिए उन पर सख्ती भी की गई. अधिकारियों को चुनाव आयोग के काम को गंभीरता से लेने का आदेश दिया. शेषन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जब वह कैबिनेट सचिव थे, तो प्रधानमंत्री ने उनसे कहा था कि वह चुनाव आयोग को बता दे कि प्रधानमंत्री इस-इस दिन चुनाव करवाना चाहते हैं. लेकिन शेषन ने प्रधानमंत्री को बताया कि ऐसा करने का उन्हें अधिकार नहीं है, वह सिर्फ यह कह सकते हैं कि सरकार चुनाव के लिए तैयार है.
शेषन ने जो काम सख्ती से करवाए
– आचार संहिता को लागू कराया
– मतदाताओं के लिए फोटो लगा पहचान पत्र शुरू कराया
– उम्मीदवारों के खर्चों पर अंकुश
– चुनाव में पर्यवेक्षक तैनात करने की प्रक्रिया
– चुनाव के दौरान किसी भी तरह की अनियमितता और गड़बड़ी पर सख्ती से रोक
जो और काम किया ताकि चुनावों के दौरान बेहतर माहौल बने
– मतदाताओं को लुभाने या डराने की व्यवस्था को खत्म किया
– चुनाव के दौरान शराब और अन्य चीजों के बांटने पर रोक
– सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग पर रोक
– चुनाव प्रचार के लिए धर्म स्थलों के इस्तेमाल पर रोक
– लाउडस्पीकर और तेज आवाज में संगीत पर रोक.
निर्भीकता और स्पष्टवादिता से असहज हुए शेख अब्दुल्ला
शेषन अपनी कर्तव्यनिष्ठा, निर्भीकता, स्पष्टवादिता और आजाद प्रवृत्ति के लिए जाने जाते थे. पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन के नाम से विख्यात ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने अपनी जीवनी ‘अग्नि की उड़ान’ में शेषन की ईमानदारी और पेशेवर रवैये की तारीफ की है.
दरअसल जब शेषन मदुरै जिले के कलेक्टर थे तो उसी समय तमिलनाडु में जम्मू-कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला को नजरबंद किया गया था. उस दौरान शेषन को शेख के पत्रों को पढ़ने की जिम्मेदारी दी गई थी. कहते हैं कि एक दिन शेख ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन के नाम पत्र लिखा और शेषन से पूछा क्या तुम अब भी इसे खोलना चाहोगे? शेषन ने कहा कि उनके लिए पत्र पर लिखा पता कोई मायने नहीं रखता.
शेषन साहसिक प्रवृत्ति के अधिकारी
शेषन की साहसिक प्रवृत्ति के अधिकारी थे. मुख्य चुनाव आयुक्त होने के बाद उन्होंने सरकार को लिखा था कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को सुनिश्चित नहीं करती है, तब तक आयोग चुनाव कराने में असमर्थ है. उन्होंने अगले आदेश तक देश के सभी चुनावों को स्थागित कर दिया था. जिसके कारण बंगाल में राज्यसभा के चुनाव नहीं हो पाए और केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी को इस्तीफा देना पड़ा था.
कुल मिलाकर शेषन ने ये दिखाया कि अगर दृढ इच्छाशक्ति हो और आप पद की गरिमा और कामों के प्रति ईमानदार हों तो किस तरह सिस्टम और चुनावों को साफसुथरा कर सकते हैं. इसलिए जब फिर से चुनाव आयोग की सख्ती में छय होने लगा है तो बार बार शेषन याद आते हैं.
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Tags: Election commission, Election Commission of India, Election commissionerFIRST PUBLISHED : November 23, 2022, 12:50 IST