भारत में मकानों की रजिस्ट्री कब शुरू हुई तब फीस थी हर 100 रुपए पर 3 रुपए

भारत में मकानों की रजिस्ट्री के लिए कानून 1908 में बना. अंग्रेजी राज में ये 1909 में शुरू हुआ. तब मकानों की रजिस्ट्री फील देशभऱ में अलग अलग थी लेकिन आमतौर पर मकान की कीमत की एक फीसदी.

भारत में मकानों की रजिस्ट्री कब शुरू हुई तब फीस थी हर 100 रुपए पर 3 रुपए
हाइलाइट्स 1908 में प्रापर्टी रजिस्ट्रेशन एक्ट आने पर लोगों की प्रतिक्रिया मिली जुली थी भारत में संपत्ति रजिस्ट्री 1909 में शुरू हुई शुरुआत में, रजिस्ट्री शुल्क संपत्ति मूल्य का लगभग 1% था क्या आपको मालूम है कि भारत में मकान, जमीन और संपत्तियों की रजिस्ट्री कब से होनी शुरू हुई. शुरू में इनकी फीस कितनी हुआ करती थी. जब ये कानून 116 साल पहले आया तो लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी. और सबसे बड़ी बात इस कानून को अंग्रेज सरकार क्यों लेकर आई थी. भारत में घरों की रजिस्ट्री औपचारिक रूप से 1908 के पंजीकरण अधिनियम के लागू होने के साथ शुरू हुई, ये कानून 1 जनवरी, 1909 को लागू हुआ. इस अधिनियम ने संपत्ति के लेन-देन से संबंधित दस्तावेजों सहित विभिन्न दस्तावेजों के पंजीकरण के लिए एक पूरा कानूनी ढांचा तैयार किया, जिसका मुख्य उद्देश्य कानूनी वैधता तय करने के साथ संपत्ति के लेन-देन में धोखाधड़ी को रोकना था. इससे पहले भारत में इस तरह का कोई सिस्टम नहीं था. मुगलों के समय में संपत्ति के रजिस्ट्री की एक प्रणाली जरूर थी लेकिन ये आधुनिक पंजीकरण प्रणाली की तरह व्यवस्थित नहीं थी. मुगलों के समय में भूमि और संपत्ति के अधिकारों का प्रबंधन मुख्य रूप से जागीरदारी प्रणाली और मनसबदारी प्रणाली के माध्यम से किया जाता था. शुरुआत में रजिस्ट्रेशन फीस की एक तय राशि थी लेकिन समय के साथ राज्यों ने संपत्ति के मूल्य का एक प्रतिशत शुल्क लेना शुरू कर दिया. उदाहरण के लिए वर्ष 2024 तक कई राज्य पंजीकरण शुल्क के रूप में संपत्ति के बाजार मूल्य का लगभग 1 फीसदी लेते हैं, साथ ही स्टाम्प शुल्क भी लेते हैं जो राज्य और खरीदार के अनुसार अलग-अलग होता है. सवाल – मकान रजिस्ट्री से पहले स्टांप ड्यूटी का नियम लागू हो चुका था. ये कैसे शुरू हुआ था? – भारत में स्टाम्प ड्यूटी की अवधारणा 1797 के रेगुलेशन 6 से उत्पन्न हुई, जो बंगाल में लाया गया पहला स्टाम्प कानून था. इस रेगुलेशन का उद्देश्य लिखित दायित्वों और दस्तावेजों पर शुल्क लगाकर राजस्व बढ़ाना था, जो पुलिस व्यवस्था के लिए व्यापारियों पर पिछले टैक्स की जगह लेता था. 1899 के भारतीय स्टाम्प अधिनियम ने इन प्रावधानों को मुकम्मल रूप दे दिया. फिर अंग्रेजों के कानून के अनुसार विभिन्न लेन-देन में स्टाम्प शुल्क का नेटवर्क तैयार कर दिया गया. अब भी यही रेगुलेशन भारत में मौजूदा स्टाम्प ड्यूटी विनियमों का आधार बना हुआ है. सवाल – जब शुरू में मकानों और संपत्ति की रजिस्ट्री शुरू हुई तो फीस कितनी थी? – जब भारत में 1909 में रजिस्ट्रेशन एक्ट अधिनियम 1908 के तहत घरों का पंजीकरण शुरू हुआ, तो पूरे देश में घरों की रजिस्ट्री के लिए विशिष्ट शुल्क आज की तरह मानकीकृत नहीं थे. हालांकि अधिनियम ने राज्य सरकारों को अपनी फीस तय करने की अनुमति दी. शुरुआत में रजिस्ट्री की रकम आमतौर पर मामूली राशि थी, जो अक्सर संपत्ति के मूल्य का लगभग 1फीसदी होती थी. जब ये कानून शुरू में आया तो प्रापर्टी रजिस्ट्री फीस उसकी कीमत के हर 100 रुपए पर 3 रुपए थी. हालांकि समय के साथ रजिस्ट्री की रकम बदलती गई. राज्यों ने संपत्ति की रजिस्ट्री को लेकर अलग सीमाएं और अतिरिक्त शुल्क लगा दिए. सवाल – प्रापर्टी रजिस्ट्री एक्ट1908 को तब क्यों लाया गया, क्यों इसकी जरुरत महसूस की गई? – क्योंकि इस रजिस्ट्री ने संपत्ति के लेन-देन को कानूनी मान्यता प्रदान की, यह तय किया कि इसके जरिए संपत्ति के स्वामित्व और अधिकारों को दर्ज किया जाए, जिससे ये कानूनी जामा पहन सके. इससे इस संपत्ति पर होने वाले दावों के खिलाफ संपत्ति मालिक के अधिकार की रक्षा की जा सके. संपत्ति स्वामित्व पर विवादों के जोखिम को कम किया जाए. संपत्ति को लेकर धोखाधड़ी खत्म हो. जैसे एक ही संपत्ति को कई खरीदारों को बेचना या नकली स्वामित्व दस्तावेज़ बनाना. इस कानून ने संपत्ति के लेन-देन का एक स्थायी सार्वजनिक रिकॉर्ड स्थापित किया, जिसने पारदर्शिता की सुविधा दी और स्वामित्व के सत्यापन की अनुमति दी. पंजीकृत दस्तावेजों ने स्वामित्व को स्पष्ट करके संपत्ति खरीदने, बेचने या गिरवी रखने की प्रक्रिया को सरल बना दिया, जिससे लेन-देन आसान हो गया. साथ ही पंजीकरण शुल्क और स्टाम्प शुल्क ने सरकार के लिए राजस्व उत्पन्न किया, जिसने सार्वजनिक सेवाओं और बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान देना शुरू किया. कुल मिलाकर इससे रियल एस्टेट सौदों में कानूनी स्पष्टता और सुरक्षा को बढ़ावा मिला. सवाल – क्या इस कानून के तहत हर संपत्ति रजिस्टर्ड कराना तब जरूरी था, अगर कोई ऐसा नहीं कर रहा तो क्या प्रावधान बनाया गया? – हां रजिस्ट्रेशन एक्ट- 1908 के तहत वर्ष 1909 से सभी तरह के संपत्ति दस्तावेजों को रजिस्ट्री नहीं कराने पर खास दंड की व्यवस्था बना दी गई. ये दंड सीधे नहीं लगाया गया बल्कि इसके ऐसे प्रावधान किए गए कि लोगों को रजिस्ट्री के लिए मजबूर कर दिया. मसलन अगर संपत्ति को लेकर कोई विवाद हुआ और मामला अदालत में गया तो संपत्ति के मूल मालिक के दावे पर अदालत विचार नहीं करेगी. यदि कोई संपत्ति लेनदेन पंजीकृत नहीं है, तो इससे स्वामित्व साबित करने में जटिलताएं होंगी. कुल मिलाकर बगैर रजिस्ट्री कराई हुई संपत्ति अवैध मानी जाएगी. सवाल – जब ये कानून भारत में जब 114 साल पहले लागू किया गया तो लोगों की क्या प्रतिक्रियाएं थीं? – कई लोगों ने इस कानून का स्वागत किया, क्योंकि ऐसे कानून की जरूरत महसूस की जाने लगी थी. धोखाधड़ी के तमाम मामले सामने आ रहे थे. संपत्तियों को लेकर विवाद हो रहे थे, लिहाजा कुछ संपत्ति मालिकों और खरीदारों ने इसकी सराहना की. हालांकि इस कानून के व्यावहारिक कार्यान्वयन को लेकर चिंता भी थीं. खासकर उन क्षेत्रों में जहां नौकरशाही की अक्षम और भ्रष्टाचार ज्यादा था. आलोचकों तब ये भी कह रहे थे कि कानून के इरादों के बावजूद इसमें छेद हैं, जिनका फायदा उठाया जा सकता है, जिससे इसका उद्देश्य कमज़ोर हो जाएगा. कुछ लोगों को इसकी प्रक्रिया बहुत जटिल लगी. जिससे बहुत से लोग संपत्तियों को रजिस्टर्ड कराने से मना कर दिया. कन्फ्यूजन भी पैदा हुआ. सवाल – फिलहाल किन भारतीय राज्यों में रजिस्ट्री की फीस सबसे कम है? भारत के कई राज्यों में प्रापर्टी रजिस्ट्रेशन फीस काम है. – गुजरात में पंजीकरण फीस की राशि संपत्ति के मूल्य का 1% निर्धारित किया गया है. – राजस्थान में गुजरात की ही तरह रजिस्ट्रेशन फीस एक फीसदी है, भले ही खरीदार पुरुष हो या महिला. – अरुणाचल प्रदेश में ये 1% है. – छत्तीसगढ़ में रजिस्ट्रेशन फीस 1% है सवाल – किन राज्यों में रजिस्ट्रेशन फीस सबसे ज्यादा है? – मेघालय: स्टाम्प ड्यूटी दर 9.90% है, जो इसे भारतीय राज्यों में सबसे अधिक बनाती है. – केरल: इस राज्य में स्टाम्प ड्यूटी दर 8% है, जो काफी अधिक है. – नागालैंड में स्टाम्प ड्यूटी 8.25% निर्धारित है. – मध्य प्रदेश में दर 8% है – तमिलनाडु में स्टाम्प ड्यूटी लगभग 7% है – उत्तर प्रदेश में ये 6 फीसदी है – पंजाब में 7% है – हरियाणा में 5-7%. सवाल – लाल डोरा भूमि क्या होती है, क्या ये रजिस्टर्ड होती है? – लाल डोरा उस भूमि को कहते हैं जो गांव के आबादी क्षेत्र को दर्शाती है. जिसे 1908 में ब्रिटिश शासन के दौरान स्थापित किया गया था. ये एक प्रकार की सीमा है जो गांव के निवासियों को कृषि भूमि से अलग करती है. लाल डोरा भूमि का उपयोग मुख्य रूप से आवासीय और गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किया जाता है, जैसे कि मवेशियों का पालन और कृषि उपज का भंडारण. लाल डोरा प्रमाणपत्र यह प्रमाणित करता है कि किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर यह भूमि है, और यह पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए आवश्यक होता है. लाल डोरा संपत्तियां आमतौर पर रजिस्टर्ड नहीं होती हैं, जिसके कारण इनमें बैंक लोन नहीं मिलते हैं और मालिकाना हक का भी कोई ठोस सबूत नहीं होता. हालांकि ये संपत्ति इसी वजह से रजिस्टर्ड संपत्तियों की तुलना में सस्ती होती हैं. निर्माण कार्य में नगरपालिका नियमों से छूट मिलती है. Tags: Ancestral Property, Property, Property tax, Property valueFIRST PUBLISHED : December 12, 2024, 17:07 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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