दौर के साथ बदले चुनावी निशान किसानी के प्रतीकों का प्रयोग लगभग खत्म

चुनावों में सबसे अहम चुनाव निशान ही होते हैं. पार्टियां इन निशानों के प्रचार पर खास जोर देती हैं. प्रत्याशी भी पार्टी का पूरा लाभ लेने के लिए चुनाव निशान का खूब प्रचार प्रसार करते हैं. एक समय था, जब ज्यादातर पार्टियां खेती-किसानी से जुड़े निशान लेने पर जोर देती थीं. लेकिन बदलते वक्त के साथ ये रियावत भी बीती बातों में समा गई है. निशान देने का अख्तियार चुनाव आयोग के पास ही होता है. लिहाजा कई बार वो ऐसे निशान भी दे देता है जो खुद में रोचक कहानी बन जाती है.

दौर के साथ बदले चुनावी निशान किसानी के प्रतीकों का प्रयोग लगभग खत्म
देश में चुनावों निशानों की अलग ही अहमियत है. वैसे भी बहुसंख्यक भारतीय, संस्कार से निशान और निशानियों की राह ही चलते हैं. आजादी के बाद पहले चुनाव के दौरान भारत की साक्षरता दर महज 16-18 फीसदी ही थी. ऐसे में लाजिमी था कि मतदाताओं की सुविधा के लिए उन्हें अक्षरों की जगह चित्रों के जरिए पार्टियों और प्रत्याशियों की पहचान बताई जाए. इसी क्रम में चुनाव निशान तैयार कराए गए. इसे साकार किया एमएस सेठी ने. 1950 में उन्हें चुनाव आयोग का ड्रॉफ्ट्समैन बनाया गया. उन्होंने ही पेंसिल से चुनाव निशान गढ़े. खास बात ये थी कि उस वक्त एक जैसे ही बैलेट पेपर पर मतदान करके उसे अपनी पसंद के प्रत्याशी के निशान वाले बैलेट बॉक्स में इसे डाला जाता था. खैर, वक्त बदला और अलग-अलग मतपत्रों का रिवाज खत्म हुआ. वो दौर था जब भारत एक कृषि प्रधान देश था. ज्यादातर लोग खेती किसानी के काम से ही जुड़े थे. लिहाजा अधिकांश बड़े दलों ने जो निशान रखे वे किसानों-मजदूरों से ही जुड़े हुए थे. अब समय के बदलाव के साथ और बहुत सारे निशान तो हैं, लेकिन खेती किसानी वाले निशान कम ही दिखते हैं. दो बैलों की जोड़ी से गाय बछड़े तक पीछे मुड़ कर देखा जाए तो उस समय कांग्रेस पार्टी का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी था. ये चुनाव निशान 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने तक रहा. ये आजाद भारत में कांग्रेस का पहला विभाजन था. निजलिंगगप्पा की अगुआई में एक अलग, कांग्रेस ओ बना ली गई. उन्हें चुनाव आयोग ने दो बैलों की जोड़ी का निशान नहीं दिया था. लिहाजा मामला सुप्रीम कोर्ट गया. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 1971 में दो बैलों की जोड़ी का इस्तेमाल करने से दोनों गुटों को रोक दिया गया. यहां से इंदिरा गांधी की अगुआई वाले कांग्रेस (आई) को गाय-बछड़ा का निशान मिला. भारतीय परंपरा में गाय-बछड़े का वैसे भी बहुत आदर था और ये निशान उसी तरह घर- घर तक पहुंच गया. जबकि निजलिंगगप्पा की कांग्रेस ओ को चरखा चुनाव निशान के तौर पर दिया गया. पंजे की कहानी आपातकाल के बाद कांग्रेस के विरोधी दलों ने पार्टी के निशान का इस्तेमाल इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी पर प्रहार करने के लिए किया. इंदिरा विरोधियों ने गाय और बछड़े को इंदिरा और संजय का प्रतीक बताते हुए प्रचार शुरू कर दिया था. यही समय था जब आपातकाल को लेकर पार्टी में असंतोष गहरा गया था. देवकांत अर्स और ब्रह्मनंद रेड्डी जैसे नेताओं ने इंदिरा गांधी का खुला विरोध किया. 1978 में इंदिरा गांधी ने अलग पार्टी कायम कर ली. फिर अपने लिए चुनाव आयोग से नया चुनाव चिह्न मांगा. वैसे भी गाय बछड़ा का चुनाव निशान निगेटिव निशान बन चुका था. तब कांग्रेस को हाथ का पंजा मिला. इस निशान ने कांग्रेस को खेती-किसानी से जुड़े निशान से एक तरह से अलग कर दिया. हलधर किसान इधर दीपक चुनाव निशान लेकर चुनाव लड़ रही जनसंघ ने 1977 में जनता पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. उस वक्त सभी गैरकांग्रेसी दल जनता पार्टी की छतरी में आ गए थे. जिसके अध्यक्ष चंद्रशेखर बनाए गए थे. जनता पार्टी ने चुनाव निशान की खोज की तो चुनाव आयोग ने पूरी पार्टी को कोई आरक्षित चुनाव निशान देने से मना कर दिया. नियमों का हवाला देकर कहा गया कि पार्टी पांच साल पुरानी होनी चाहिए और उसे कुल मतदान का 4 फीसदी वोट मिला हो, या एक निर्धारित संख्या में उसके विधायक-सांसद हों, तभी उसे आरक्षित चुनाव निशान दिया जा सकता है. इधर जनता पार्टी में चौधरी चरण सिंह ने 1974 में भारतीय लोक दल बनाया था. इस पार्टी के पास हलधर किसान का चुनाव निशान था. लिहाजा जनता पार्टी इसी चुनाव निशान पर देश भर में लड़ी. ये खेती किसानी से सीधे जुड़ा हुआ निशान था. हालांकि बाद में भी जनता पार्टी को चंद्रशेखर और सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इसी निशान के साथ कायम रखा. हलधर किसान चरण सिंह को नहीं मिल सका. कमल का निशान 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर जनसंघ ने अपना नया नाम भारतीय जनता पार्टी कर लिया. इस पार्टी ने अपने लिए कमल चुनाव निशान लिया. ध्यान रखने की बात है कि कमल का फूल हिंदू श्रद्धालुओं के लिए पवित्र और आस्था का प्रतीक है. इसके अलावा स्वाधीनता आंदोलन के दौरान रोटी और कमल भेज कर आजादी के आंदोलन में आहूति देने का आह्वान भी किया जाता रहा. इस तरह से कमल आजादी के आंदोलन से भी जुड़ा एक प्रतीक था. पार्टी के लिए अभी भी ये एक गौरवशाली चुनाव निशान है. क्षेत्रीय दलों की कहानी शिवसेना का चुनाव निशान पहले तीर कमान हुआ करता था. पार्टी के विभाजन के साथ ये निशान भी अभी शिंदे की अगुआई वाले गुट के पास है. समाजवादी पार्टी के पास दो पहिया साइकिल चुनाव निशान के तौर पर आज भी कायम है. शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस का गठन घड़ी चुनाव निशान के साथ हुआ था. ये निशान भी उनकी पार्टी में हालिया विभाजन के बाद जाता रहा. ममता बनर्जी की पार्टी का चुनाव निशान तीन तीन पत्तियों वाला दो फूल है. जबकि अन्नाद्रमुक का चुनाव निशान दो पत्तियां रहा. कम्युनिस्ट पार्टियों का निशान आज भी हसुआ, हथौड़ा और अनाज की बालियां हैं, जो किसानों और मजदूरों से सीधे तौर पर जुड़े निशान है. बहुजन समाज पार्टी ने अपना चुनाव निशान डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पार्टी से लिया था. हाथी पहले आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का चुनाव निशान था. हालांकि कई राज्यों में अलग-अलग समय में ये अलग-अलग पार्टियों का निशान रहा. लेकिन बीएसपी के अपवाद के सिवाय किसी दल के पास अब पशु-पक्षियों के निशान वाला निशान नहीं है क्योंकि आयोग ने इस पर रोक लगा दी है. दलील ये थी कि पशु-पक्षियों के चुनाव निशान वाले दलों के प्रत्याशी उनका प्रदर्शन करते हैं जो जीवों पर क्रूरता होती है. आरक्षित चुनाव निशान में चप्पल भी चुनाव आयोग राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दलों के लिए आरक्षित चुनाव निशान के अलावा 100 से ज्यादा ऐसे निशान भी रखता है जिसे समय समय पर वो निर्दलियों या छोटे-छोटे दलों को आवंटित करता रहता है. निशान आवंटित करने का अख्तियार आयोग के पास ही रहता है. इसमें कई बार बहुत से प्रत्याशियों को रोचक चुनाव निशान भी मिल जाते हैं. जैसे हाल में ही अलीगढ़ के एक प्रत्याशी को चप्पल का चुनाव निशान मिल गया. अब वह प्रत्याशी गले में चप्पलों की माला पहन कर ही चुनाव प्रचार करते हैं. Tags: 2024 Lok Sabha Elections, BJP, BSP, Congress, Samajwadi partyFIRST PUBLISHED : May 10, 2024, 14:22 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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