दास्तान-गो : रघुपति राघव राजा राम… विष्णु दिगंबर इनका नाम
दास्तान-गो : रघुपति राघव राजा राम… विष्णु दिगंबर इनका नाम
Daastaan-Go ; Vishnu Digambar Paluskar Death Anniversary : हिन्दुस्तान की अंग्रेज-सरकार भी उन्हें इज़्ज़त देने लगी थी. इसका सुबूत ये है कि 1915 में, बंबई में जब विष्णु जी के गंधर्व महाविद्यालय की इमारत बनकर तैयार हुई तो उसका उद्घाटन करने लॉर्ड विलिंग्डन ख़ुद आए थे. वे उस वक़्त बंबई प्रांत के गवर्नर हुआ करते थे.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, तो लाहौर से बंबई पहुंचने तक विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी हिन्दुस्तान में अच्छी-ख़ासी प्रतिष्ठा बना चुके थे. संगीत-शास्त्री, शास्त्रीय गायक और संगीतकार की हैसियत से. उनके कामों को अब बड़े स्तरों पर मान्यता मिलने लगी थी. सराहा जाने लगा था. मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी जैसे बड़े नेताओं से विष्णु जी के अच्छे रिश्ते हो गए थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों के दौरान उन्हें संगीत-कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए बुलाया जाने लगा. विष्णु जी भी इन कार्यक्रमों में शिरकत करने से कभी आना-कानी नहीं करते. कारण कि वे हमेशा कहा करते थे, ‘तानसेन बनाना मेरा मक़सद नहीं है. मैं कानसेन तैयार करना चाहता हूं’. मतलब, वे सुनने वालों की ऐसी ज़मात खड़ी करना चाहते थे, जो हिन्दुस्तानी संगीत को उसकी आत्मा, उसके भाव के साथ सुना करती हो. आत्मसात् करती हो. और वे अपने इस मक़सद में काफ़ी हद तक क़ामयाब भी रहे.
इसकी भी मिसाल देखिए जनाब. महात्मा गांधी का पसंदीदा भजन ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’, तमाम लोग आज तक सुनते, गुनगुनाते और गाते हैं. यह ख़ूबसूरत धुन विष्णु जी ने बनाई थी. अपने दौर में उन्होंने कई बार गाई भी थी. इसी तरह ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो’, आज तक ज़्यादातर मौकों पर उसी तरह गाया और सुना जा रहा है, जैसा विष्णु जी ने रचा था. भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन ने विष्णु जी पर जो डॉक्यूमेंट्री बनाई है, उसमें उनकी आवाज़ में यह भजन सुनने को मिल जाएगा. अगर कोई तस्दीक़ करने के लिए सुनना चाहे तो. इसके अलावा भारत के राष्ट्रगीत ‘वंदेमातरम्’ की धुन भी उसमें सुनने को मिलेगी. हालांकि यह धुन वैसी नहीं है, जैसी आज के दिनों में गाई जाती है. विष्णु जी ने ‘वंदेमातरम्’ की धुन राग ‘काफ़ी’ में तैयार की थी. जबकि इन दिनों राष्ट्रगीत ‘देस’ राग में गाया जाता है.
हालांकि, राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यक्रमों से पहले और समापन पर राष्ट्रगीत गाने का सिलसिला विष्णु जी ने जो शुरू किया, वह अब तक नहीं बदला. इसी तरह ‘कानसेन’ तैयार करने का सिलसिला भी अब तक क़ायम है. हिन्दुस्तान में आज भी शास्त्रीय संगीत के ऐसे बहुत उस्ताद/गुरु हैं, जो ‘तानसेन के बजाय कानसेन’ बनाने को तरज़ीह देने की उनकी परंपरा आगे बढ़ा रहे हैं. उनके कहे ये लफ़्ज़ बार-बार वे लोग अपने शाग़िर्दों को भी याद दिलाया करते हैं. और रही बात विष्णु जी के शाग़िर्दों की तो उसकी परंपरा में कुछ नामों पर ग़ौर कीजिए. वक़्त मिले तो उन शाग़िर्दों के बारे में थोड़ी इंटरनेट की मदद लीजिए. ख़ुद समझ आने लगेगा कि वे शाग़िर्द ख़ुद अच्छा सुनने वाले यानी कि ‘कानसेन’ ही हुए पहले. शायद इसीलिए वे आगे अच्छे गाने, बजाने वाले हो सके. इन शाग़िर्दों में तमाम नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनका अब तक ज़िक्र किया जाता है.
जैसे कि पंडित ओंकारनाथ ठाकुर. इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने संगीत में सुनने-सुनाने के ऐसे-ऐसे प्रयोग किए कि इटली का तानाशाह शासक बेनितो मुसोलिनी तक इनका मुरीद हो गया था. यही नहीं, इन्होंने जानवरों और पक्षियों की ध्वनियों के उतार-चढ़ाव की बारीक़ियों को भी सुनकर समझने में महारत हासिल की. उनके उतार-चढ़ावों से जुड़े भाव पकड़े और उन्हें संगीत में इस्तेमाल किया. इस तज़रबे को ‘काकु-प्रयोग’ कहा करते हैं. आज भी पंडित जी के कई शाग़िर्द (वॉयलिन वादक एन राजम जैसे) इस तज़रबे की मंच पर आज़माइश कर सुनने वालों को दिखाया करते हैं. इसी तरह, विष्णु जी के शाग़िर्दों में एक नाम हुआ बीआर देवधर. ये मिरज में ही पैदा हुए. लिहाज़ा, इनकी संगीत शिक्षा बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर से शुरू हुई. इस नाते ये विष्णु जी के गुरु-भाई भी हुए. मगर आगे चलकर देवधर जी ने विष्णु जी से भी शिक्षा ली.
और शिक्षा में क्या ज़नाब? वही संगीत की बारीक़ियों को सुनने के तौर-तरीके. इसके नतीजे में देवधर जी ऐसे संगीत-शास्त्री हुए कि उनके बारे में कहते हैं, वे बड़े-बड़े गवैयों के गाने-बजाने में ग़लतियाँ पकड़ लेते थे. इसीलिए जब कुमार गंधर्व इनके पास संगीत-शिक्षा लेने आए तो पैदाइशी-फ़नकार होने के बावज़ूद एक बार तो वे ख़ुद घने नैराश्य में चले गए थे. क्योंकि देवधर जी की शिक्षा के तरीके से कुमार जी को लगने लगा कि ‘उनसे तो कुछ हो ही नहीं रहा है. और वे ऐसा क्या करें, जो बाकी गाने-बजाने वालों की तरह ग़लतियों से भरा न हो’. हालांकि, बाद में कुमार जी ने क्या मक़ाम हासिल किया, यह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की समझ रखने वालों को बताने की ज़रूरत नहीं है. तो जनाब, इस स्तर की थी विष्णु जी की शुरू की गई ‘कानसेन परंपरा’. इस मेहनत और योगदान का नतीज़ा था कि हिन्दुस्तान की अंग्रेज-सरकार भी उन्हें इज़्ज़त देने लगी थी.
इसका सुबूत ये है कि 1915 में, बंबई में जब विष्णु जी के गंधर्व महाविद्यालय की इमारत बनकर तैयार हुई तो उसका उद्घाटन करने लॉर्ड विलिंग्डन ख़ुद आए थे. वे उस वक़्त बंबई प्रांत के गवर्नर हुआ करते थे. और जनाब आते तो आम लोग भी थे, जेब से पैसे देकर. विष्णु जी ने अपने दौर में ऑल इंडिया म्यूज़िक कॉन्फ्रेंस के आयोजन करने का सिलसिला शुरू किया था. तब उनकी शख़्सियत वह क़द हासिल कर चुकी थी कि इस तरह के आयोजनों में शिरकत करने उस दौर के अन्य फ़नकार तो आते ही थे. पैसे लगाकर उन्हें सुनने के लिए तमाम ख़ास-ओ-आम भी आया करते थे. अलबत्ता, इन्हीं पैसों के मसले ने विष्णु जी को आख़िरी दिनों में बड़ा झटका भी दिया, जिससे वे उबर नहीं पाए. पहले विश्व-युद्ध (1914 से 1918) का दौर था वह.
विश्व-युद्ध की वज़ह से दुनिया भर में आर्थिक-मंदी के हालात थे. इसका असर विष्णु जी के पेशे और माली-सेहत पर पड़ा. इसके नतीज़े में वे उस कर्ज़ की किस्तें नहीं भर सके, जो गंधर्व-विद्यालय की इमारत बनाने के लिए उन्होंने सेठों-महाजनों से ली थी. बदले में इन लोगों को विद्यालय की इमारत नीलाम कर के अपने पैसे वसूल लिए. यह 1924 की बात है. इस झटके को विष्णु जी बर्दाश्त नहीं कर सके शायद. इस वाक़ि’अे के बाद वे चुपचाप अपनी उस जगह चले गए, जहां से अपना सफ़र शुरू किया था उन्होंने. मिरज, वहीं अपने शाग़िर्दों और घरवालों की देख-रेख में उन्होंने अपना बाकी छह-सात साल का वक़्त बिताया. और फिर अपनी विरासत उन्हीं लोगों को सौंपकर ये दुनिया छोड़ दी. आज की ही तारीख़ थी, 21 अगस्त और साल 1931 का था वह.
अलबत्ता, उनके जाने की करीब एक सदी गुज़रने के बावज़ूद हिन्दुस्तान आज तक उन्हें याद करता है. कोई उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का ‘दादा साहेब फाल्के’ कहता है. क्योंकि जो योगदान, जैसा समर्पण ‘दादा साहेब’ का हिन्दुस्तानी सिनेमा के लिए रहा, लगभग वैसा ही विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी का हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए हुआ. और यही वज़ह रही कि ‘इंडिया टुडे’ जैसी मैगज़ीन ने उन्हें 2000वीं सदी की उन 100 हस्तियों में शुमार किया, जिन्होंने अपने काम से हिन्दुस्तान को आकार देने में, सूरत देने में, पहचान देने में भूमिका अदा की. और अपने गुरु के लिए कुछ भूमिका उनके शाग़िर्दों ने भी अदा की जब उन सभी ने मिलकर गंधर्व-महाविद्यालय मंडल के नाम से संगीत का संस्थान फिर शुरू कर सच्ची श्रद्धांजलि दी उन्हें, जिसके वे हक़दार थे.
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पिछली कड़ी में आपने पढ़ा (18 अगस्त को)
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Tags: Death anniversary special, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : August 21, 2022, 17:37 IST