दास्तान-गो : ‘आलम का सफ़र… ‘संगीत-संसार’ उस्ताद अलाउद्दीन खां तक!

Daastaan-Go ; Ustad Allauddin Khan Death Anniversary : एक दिन केदारनाथ डॉक्टर के हत्थे चढ़ गया. वे पूछ बैठे, ‘ऐ लड़के कौन है तू?’ ‘मैं घर से भागकर आया हूं, साहब. गाना-बजाना सीखना है. आप किसी उस्ताद को जानते हों, तो बता दीजिए न.’ उसने भोलेपन से कहा. लेकिन पलटकर झिड़की मिली ज़वाब में, ‘काहे का गाना-बजाना? आवारा कहीं का. उस्ताद चाहिए. चल भाग यहां से. नहीं तो लगाऊं जूता.’ झिड़ककर डॉक्टर चलते बने. लेकिन वह नहीं भागा. डटा रहा.

दास्तान-गो : ‘आलम का सफ़र… ‘संगीत-संसार’ उस्ताद अलाउद्दीन खां तक!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… ———– जनाब, अरब की ज़बान में ‘आलम’ दो तरह से लिखते हैं. जाहिर है, मतलब भी दो मुख़्तलिफ़ ही हैं. पहला- ‘आलम यानी संसार. दूसरा- आ’लम माने विद्वान. और जिस शख़्सियत की यह दास्तान है, उन्हें जिस किसी भी मायने में रख लीजिए. रत्तीभर अलग न दिखेंगे. उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब. ख़ुद में मुक़म्मल ‘संगीत-संसार’. इनकी कहानी शुरू होती है साल 1862 के आस-पास से. ‘आस-पास’ इसलिए क्योंकि इनके जन्म का साल और महीना पुख़्ता तौर पर कहीं कोई बता नहीं पाता. फिर भी ‘इंडियन कल्चर डॉट गॉव डॉट इन’ जैसी सरकारी वेबसाइटें और दस्तावेज़ वग़ैरा इनकी पैदाइश का साल यही बताते हैं. महीना शायद अक्टूबर का और तारीख़ आठ कही जाती है. आज जो त्रिपुरा राज्य है न, वहीं एक क़स्बा है शिवपुर. वहां बरहमन-बाड़ी में सद्दू खां (साधू खां या सबदार हुसैन खान भी कहा जाता है) के खानदान में इनकी पैदाइश हुई. नाम रखा गया ‘आलम. बताते हैं, पुरखे इनके बरहमन होते थे. फिर बाद में किसी वज़ह से इस्लाम अपना लिया. तो जनाब, अभी ‘आलम छह-सात बरस के थे कि एक रोज़ स्कूल के रास्ते में इन्हें लत लग गई. संगीत की लत. दरअस्ल, स्कूल के रास्ते में शिव मंदिर पड़ता था. वहां कुछ साधु-महात्मा बैठकर भजन किया करते थे. बस, खिंच गए उसी तरफ़. अब ये रोज घर से कहकर निकलते कि स्कूल जा रहा हूं. लेकिन पहुंचते नहीं. मंदिर में रम जाते. साधु-संन्यासियों की संगत करते. फिर जैसे ही स्कूल की छुट्टी होती, संगी-साथियों के साथ घर की राह पकड़ लेते. सिलसिला ठीक-ठाक ही चल रहा था कि एक रोज़ भांडा फूट गया. स्कूल के हेडमास्टर ने घर आकर मां (सुंदरी) से शिकायत कर दी, ‘आपका बेटा पाठशाला नहीं आता.’ ‘ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो उसे रोज स्कूल भेजती हूं!’ मां ने ज़वाब दिया. फिर बेटे के पिता से बोलीं, ‘स्कूल नहीं जाता तो कहां जाता है. आप जाकर देखो.’ अलाउद्दीन खां का संगीत से प्रेम लिहाज़ा, अगली रोज़ बेटे के पीछे-पीछे पिता भी निकले, खोज-ख़बर लेने. बेटे को एहसास न था कि वालिद पीछे आ रहे हैं. सो, वह रोज़ के सिलसिले के ही मुताबिक, मंदिर में साधुओं के साथ जा बैठा. महफ़िल जमी. एक साधु सितार बजाने लगे. साथ में ‘आलम ठेका (बड़े भाई आफ़ताब तबला बजाते थे, उन्हीं से सीखा था) देने लगा. पिता ख़ुद सितारिए. सो, बेटे को टोकना ठीक न समझा और घर लौट आए. बीबी को बताया. समझाया, ‘वह स्कूल के रास्ते में शिव-मंदिर है न. वहीं, ठेका लगा रहा है. साधु बाबा के सितार के साथ. देखो, मारना-वारना मत उसे. संगीत ही तो कर रहा है. क्या बुराई है उसमें’. लेकिन सख़्त मिजाज़ अम्मी के कान में ये आख़िरी लफ़्ज़ शायद पड़े ही नहीं. वह गोली सी छूटती घर से निकली और मंदिर से बेटे को पकड़कर ले आई. हाथ-पैर बांधकर एक कोने में पटक दिया. जमकर पीटा और तीन दिन तक खाना भी नहीं दिया. तीन दिन बाद सबसे बड़ी बहन (मधुमालती) मायके आई तो उसने छुड़ाया. अपने घर ले आई. मगर ‘आलम का मन उचट गया. कुछ दिन बाद बहन की ससुराल से अपने घर लौटा. अम्मी बीमार थीं. लेकिन उस तरफ़ ख़्याल ही न गया. कोई और धुन सवार थी उस पर. सो, उसी रात जब अम्मी सोई हुई थीं, तो चुपचाप उनके पल्लू से बंधी संदूक की चाबी निकाली. धीरे से संदूक खोला. मुट्ठी में जितने रुपए (10-12 रुपए थे शायद) समा सके, लिए. कुछ कपड़े गठरी में बांधे और घर से निकल गया. रात को ही नज़दीक के मानकनगर स्टेशन पहुंच गया. सुना था उसने, कि पश्चिम (कलकत्ते) की तरफ़ संगीत के बड़े गुरु, उस्ताद रहा करते हैं. उन्हीं की तलाश में चल दिया था वह. लेकिन यह नहीं पता था कि ट्रेन में टिकट लेकर चढ़ना होता है. सो, बिना टिकट नारायणगंज होते हुए अगली सुबह सियालदाह और वहां से पैदल ही हावड़ा तक पहुंच गया. शास्त्रीय संगीत पर पकड़ हाथ में एक गठरी और वही 10-12 रुपए. शाम ढल गई थी. भूख तेज लगी थी. गंगा किनारे उड़िया (ओडिशा के) लोगों की बनाई दाल-पूड़ी मिलती थी. दो पैसे की ली और भूख शांत की. नीचे घाट पर उतरकर ‘गंगा’ को गले में बिठाया और प्यास शांत की. थकान ज़्यादा हो गई थी, इसलिए वहीं घाट पर गठरी को सिरहाना बनाकर सो गया. अल-सुबह जब घाट पर हलचल हुई तो नींद टूटी. लेकिन सिरहाने से गठरी नदारद. कोई रुपए, कपड़े-लत्ते सब ले भागा था. बच्चा ही तो था. रोने लगा. रोते-रोते पास ही दूसरे घाट में जा पहुंचा. वहां कुछ साधु धूनी रमाए बैठे थे. वहीं एक साधु ने ढांढस बंधाया. गंगा में नहाने को कहा. नहाकर लौटा तो अपने पास से थोड़ी सी भस्म निकालकर दी. और कहा, ‘सीधे चला जा. पीछे मत देखना.’ और यकीन मानिए, फिर ‘आलम ने पीछे मुड़कर नहीं देखा कभी. थोड़ी दूर चला तो एक अन्न-क्षेत्र (लंगर) मिल गया. खाने-पीने का इंतज़ाम ‘आलम के लिए अब वहीं हो गया था. लेकिन भूख तो कुछ और ही थी. संगीत सीखना था. वहीं, पास में केदारनाथ डॉक्टर का दवाखाना था. उसके चबूतरे पर रोज बैठता, सोता और आने-जाने वालों से संगीत के किसी उस्ताद, गुरु का पता पूछा करता. एक दिन केदारनाथ डॉक्टर के हत्थे चढ़ गया. वे पूछ बैठे, ‘ऐ लड़के कौन है तू?’ ‘मैं घर से भागकर आया हूं, साहब. गाना-बजाना सीखना है. आप किसी उस्ताद को जानते हों, तो बता दीजिए न.’ उसने भोलेपन से कहा. लेकिन पलटकर झिड़की मिली ज़वाब में, ‘काहे का गाना-बजाना? आवारा कहीं का. उस्ताद चाहिए. चल भाग यहां से. नहीं तो लगाऊं जूता.’ झिड़ककर डॉक्टर चलते बने. लेकिन वह नहीं भागा. डटा रहा. और फिर एक रोज़ एक लड़का मिला. ‘आलम की बात सुनकर बोला, ‘मैं एक उस्ताद से सीखता हूं. तू कहे तो तुझे ले चलूं.’ गोया, मन की मुराद पूरी हुई. झट तैयार हो गया. उस्ताद अलाउद्दीन खां का सफर ‘आलम उस लड़के के साथ हो लिया. वह पहले उसे अपने घर ले गया. वहां अपने पिता वीरेश्वर बाबू से मिलवाया. पूरी कहानी बताई. वे अवाक् रह गए. इतनी सी उम्र और संगीत के लिए ऐसा ज़ुनून. वे खुद संगीत सीखते थे. समझ रखते थे. लिहाज़ा, उसके सुरों को परखा. सच्चे दिल से निकले थे. सो, देर न की उन्होंने ज़रा भी. उसे अपने गुरु नूलो गोपाल (गोपालचंद्र भट्‌टाचार्य) से मिलवाने उनके घर ले चले. नूलो गोपाल कलकत्ता के जाने-माने ध्रुपदिए थे. ख़्याल भी गाते थे. पथुरिया घाट के राजा यतींद्र मोहन के दरबारी गायक थे. वहां उनके ठाट देख ‘आलम पहले तो सहमा, फिर संभला और अपनी पूरी कहानी बताई. संगीत के लिए उस बच्चे की छटपटाहट देख नूलो गोपाल भी पसीज गए. मगर अपनी तरफ से थोड़ा और ठोकने-बजाने की गरज से बोले, ‘पूरे 12 साल साधना करनी पड़ेगी. कर पाएगा?’ ‘जन्म भर सीखूंगा’, ‘आलम ने सपाट ज़वाब दिया. गुरुजी के घर पर ‘आलम की दिनचर्या बदल गई. अब वह ज़्यादातर वक़्त सुर साधता था. एक हाथ में तानपूरा, दूसरे से तबले पर ठेका. पैर से मात्रा गिनना. इसी तरह, गुरुजी से 360 तरह के पलटे (अलंकार) सीख लिए. चार-पांच साल यही चला. धीरज के इम्तिहान में अव्वल पास हुआ वह. इसके बाद आगे की ता’लीम शुरू हुई. गुरु जी ने तबला और मृदंग भी सिखाया. ध्रुपद और ख़्याल, दोनों तरह की गायकी सिखाई. सीखते हुए ‘आलम 15 बरस का हो गया. इसी बीच, एक रोज ढूंढते-ढूंढते उसके बड़े भाई नूलो गोपाल जी के घर पहुंच गए. गुरुजी से विनती की और छोटे भाई को साथ ले गए. घरवाले चाहते थे कि वह वहीं रुक जाए. इसलिए आठ साल की लड़की (मदीना) से शादी कर दी उसकी. लेकिन यह शादी भी कैसे रोकती उसे. उसका तो गठजोड़ सुर, साज़ से हो चुका था. शादी की पहली रात ही फिर भाग निकला घर से. गुरुजी के घर जा पहुंचा. लेकिन अब तक गुरुजी दूसरी दुनिया में पहुंच गए थे. प्लेग की बीमारी ने उन्हें छीन लिया था. ‘आलम फिर बेसहारा. इस हादसे का ऐसा असर हुआ उस पर कि उसने गाना छोड़ दिया. लेकिन अब करे क्या? तो तय किया कि साज़ बजाऊंगा. नूलो गोपाल के दामाद किरण बाबू ने उसे राह दिखाई. वे उसे अमृतलाल दत्त से मिलवाने ले गए. उन्हें लोग हाबू दत्त कहा करते थे. स्वामी विवेकानंद के भाई लगते थे हाबू दत्त. कई साज़ बजाना जानते थे. उन्हें उसने अपनी पूरी राम-कहानी बताई और उन्होंने उसे अपना शाग़िर्द बना लिया. अब हाबू दत्त के साथ वाद्य यंत्रों की शिक्षा शुरू हो गई. हाबू दत्त के शाग़िर्दों में सबसे मशहूर हो गया ‘आलम. वॉयलिन, क्लोरेनेट, शहनाई, वग़ैरा. ख़र्चे के लिए पैसों की ज़रूरत महसूस हुई तो हाबू दत्त ने ही मिनर्वा थिएटर में नौकरी लगवा दी. महीने की 12 रुपए तनख़्वाह पर. अब उसने रहने का इंतज़ाम भी अलग कर लिया. जहां ‘आलम रहता, वहीं पास में ईडन गार्डन के बैंड मास्टर लोबो बाबू का घर था. वे वॉयलिन अच्छा बजाते थे. उनकी पत्नी पियानो बजाती थीं. मिनर्वा थिएटर आते-जाते वह अक़्सर उनकी जुगलबंदी सुना करता. एक रोज़ नहीं रहा गया तो उनके घर में घुस गया. लोबो बाबू ने पहले तो भगा दिया. लेकिन उनकी पत्नी को दया आ गई. उन्होंने उसे लोबो की ग़ैर-मौज़ूदगी में सिखाना शुरू कर दिया. फिर उनके और हाबू दत्त के कहने पर लोबो बाबू भी सिखाने लगे. इसी बीच, एक वाक़ि’आ हुआ. कलकत्ते में ही एक बड़े ज़मींदार थे जगत किशोर बाबू. उनके घर दुर्गा-पूजा के दौरान ‘दरबार’ लगता था. बड़े-बड़े संगीतकार आते थे वहां गाने-बजाने. वहां ‘आलम भी गया, यह सोचकर कि वह ‘अपने हुनर से लोगों पर असर छोड़ेगा’. कई हिन्दुस्तानी, अंग्रेजी साज़ों को बजाना सीखकर ‘उस्ताद’ हो गया था वह. सो, ऐसा सोचना लाज़िम था. लेकिन हुआ उल्टा. रामपुर घराने के सरोदिए अहमद अली का सरोद सुनकर वहीं, उसके असर में सब तिरोहित हो गया उसका. —- अगली कड़ी में पढ़िए दास्तान-गो : बंदूक की नाल से सुर भी निकलते हैं, उस्ताद अलाउद्दीन ने बताया! ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 06, 2022, 06:27 IST