दास्तान-गो : दुनिया को ‘रुपया-पैसा’ हिन्दुस्तान ने दिया यूं कहें तो
दास्तान-गो : दुनिया को ‘रुपया-पैसा’ हिन्दुस्तान ने दिया यूं कहें तो
Daastaan-Go ; Story Of Indian Rupaya : जिस वक़्त दुनिया ने ‘ईसा-कैलेंडर’ ज़रिए वक़्त गिनना भी शुरू नहीं किया था, उससे भी क़रीब 1,000 साल पहले हिन्दुस्तान में ‘रुपया-पैसा’ गिना जा रहा था. व्यापार, क़ारोबार, लेन-देन, वग़ैरा में. यानी आज से यही कोई 3,000 साल या उससे भी कुछ पहले की बात है ये.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हज़ारों साल पहले के ज़माने में ख़रीद-फ़रोख़्त किस तरह हुआ करती थी, इसका कुछ अंदाज़ा तो होगा, बहुत लोगों को. मसलन- सामान के बदले कोई दूसरा सामान या अनाज के बदले में की जाने वाली ख़रीद के तौर-तरीके. लेकिन रुपये-पैसे देकर ख़रीद-फ़रोख़्त कब से शुरू हुई, इस पर लोगों की राय ज़ुदा हो सकती है. इसमें ज़्यादातर लोग कह सकते हैं कि शेरशाह सूरी ने ईसा-कैलेंडर की 16वीं सदी में ‘रुपया’ का चलन शुरू किया. ऐसे ही, कोई-कोई ये कह सकता है कि एक समय पूरी दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों ने रुपए-पैसे में ख़रीद-फ़रोख़्त का बंदोबस्त शुरू किया था. ये दोनों बातें सही हो सकती हैं, लेकिन कुछ हद तक ही. ये बातें जनाब आज इसलिए क़ाबिल-ए-ज़िक्र हुई हैं क्योंकि आज की तारीख़ थी, 19 अगस्त की, जब साल 1757 में अंग्रेजों ने रुपये के सिक्के की ढलाई शुरू कराई थी. कलकत्ते से. उन्होंने इसे ‘रुपी’ कहा था.
इत्तिफ़ाक़न, अंग्रेजों से आज़ाद हो जाने के बाद भी हिन्दुस्तान में आज तक ‘अपने-रुपया’ को ‘रुपी’ के नाम से ही ज़्यादातर लोग जानते हैं. जी जनाब, ‘अपना-रुपया’. हिन्दुस्तानी लोग शान से यह बात कह सकते हैं. क्योंकि जिस वक़्त दुनिया ने ‘ईसा-कैलेंडर’ ज़रिए वक़्त गिनना भी शुरू नहीं किया था, उससे भी क़रीब 1,000 साल पहले हिन्दुस्तान में ‘रुपया-पैसा’ गिना जा रहा था. व्यापार, क़ारोबार, लेन-देन, वग़ैरा में. यानी आज से यही कोई 3,000 साल या उससे भी कुछ पहले की बात है ये. कोई इस पर सवाल कर सकता है कि भई, इसे कैसे सच माना जाए? तो ज़वाब यही है जनाब कि रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, महाराणा प्रताप, अकबर, औरंगज़ेब, शेरशाह सूरी, महारानी विक्टोरिया, हिटलर, नेपोलियन या ऐसे तमाम तारीख़ी किरदारों को कैसे सच मानते हैं? उनके किए कामों पर क्यूं और किस तरह भरोसा करते हैं. उनके बारे में लिखी किताबों से ही न?
तो जनाब हिन्दुस्तान में इसी तरह की एक किताब है पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’. पाणिनि संस्कृत के बड़े आचार्य हुआ करते थे. भाषा और व्याकरण पर उन्होंने ज़बर्दस्त काम किया था, ऐसे सुबूत मिलते हैं. उन्होंने ही ‘अष्टाध्यायी’ नाम की किताब में पहली बार ‘रुपया’ लफ़्ज़ का ज़िक्र किया था. कहते हैं, उनके ज़माने में जो चांदी की मोहरें व्यापार, कारोबार के लिए इस्तेमाल की जाती थीं, उन्हें पाणिनि ने ‘रुप्यकम’ नाम दिया था. इसी तरह, एक और कितब है ‘अर्थशास्त्र’. उसे चाणक्य ने लिखा था, जो मगध के राजा चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु और प्रधानमंत्री हुआ करते थे. उन्होंने अपनी इस किताब में चांदी की मोहरों के लिए ही ‘रुप्यरूप’ लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया. साथ ही सोने की मोहरों या सिक्कों के लिए ‘सुवर्णरूप’, तांबे की मुद्रा के लिए ‘ताम्ररूप’ लिखा. उनके ज़माने में एक और धातु के सिक्के चलने लगे थे, लैड यानी सीसा के. उसे उन्होंने लिखा, ‘सीसारूप’.
ऐसी ही कहानी ‘पैसा’ की भी बताई जाती है जनाब. हिन्दुस्तान में एक दौर था, जब 16 महाजनपद हुआ करते थे. ये भी ‘ईसा-कैलेंडर’ शुरू होने से क़रीब 600 साल पहले की बात है. संस्कृत के साथ ही बौद्ध और जैन धर्म की किताबों में भी इनके बारे में लिखा मिलता है. अगर कोई पढ़ना चाहे तो. अलबत्ता, पाणिनि ने इन महाजनपदों की तादाद 22 भी बताई है. हालांकि, अभी अपना मसला इन तादाद के बजाय ‘रुपये-पैसे’ का है, इसलिए उसी के इर्द-गिर्द रहते हैं. तो जनाब, इन महाजनपदों के बारे में कहा जाता है कि इनमें मुद्रा यानी ‘करेंसी’ एक ही होती थी. उसे ‘कार्शपण’ या ‘पण’ कहते थे. मुमकिन है, ये अलग-अलग धातुओं के बने सिक्के या मोहरें रही हों. हिन्दुस्तान की मुख़्तलिफ़ जगहों की ख़ुदाई के दौरान ये आज भी पाई जाती हैं. कहते हैं, ‘पण’ कहलाने वाले यही सिक्के या मोहरें, आगे ‘पैसा’ कहे जाने लगे, जो आज इस्तेमाल हो रहे हैं.
इस तरह जनाब, ये तो हुई ‘ईसा-कैलेंडर’ से पहले की बात. इसके बाद अब ‘ईसा-कैलेंडर’ के दौर की भी बात कर लेते हैं. वहां भी अंग्रेजों से काफ़ी पहले 16वीं सदी में शेरशाह सूरी की सल्तनत के दौरान जो मुद्रा चला करती थी, उसे ‘रुपिया’ कहा जाता था. इसे अकबर और उनके बाद के सुल्तानों ने भी ज़ारी रखा. अब यहीं एक बात और जोड़ते चलें कि काग़ज़ का नोट भी कोई अंग्रेजों की देन नहीं है. इसकी शुरुआत ईसा-कैलेंडर के साल 806 से 1023 के बीच चीन से हुई मानी जाती है. वहां इसका तज़रबा तो, बताते हैं साल 806 में कर लिया गया था. लेकिन साल 1023 में ‘सोंग राजाओं’ के दौर में काग़ज़ के नोटों का औपचारिक रूप से इस्तेमाल शुरू हुआ, ऐसा कहते हैं. और ‘रुपया’, काग़ज़ के नोट की सूरत में हिन्दुस्तान में कब आया, इसका ज़वाब भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की वेबसाइट पर तफ़्सील से मिलता है. म्यूज़ियम सेक्शन में.
आरबीआई के मुताबिक, अंग्रेज-सरकार ने 1861 में पेपर-करेंसी एक्ट पास किया था. उसके तहत पूरे हिन्दुस्तान के लिए नोट छापने का हक़ भारत सरकार को दे दिया गया. इसके बाद भारत में काग़ज़ के नोटों की पहली सीरीज़ छापी गई. यह 10, 20, 50, 100 और 1,000 के नोटों की थी. इस पर महारानी विक्टोरिया की तस्वीर बनी होती थी. इसके बाद इन नोटों में तरह-तरह के बदलाव होते रहे. फिर साल 1935 में एक अप्रैल को आरबीआई बन गया. उस वक़्त इसका मुख्यालय कलकत्ते में हुआ करता था. उसकी देख-रेख में काग़ज़ के नोट छापने और सिक्कों की ढलाई काम होने लगा. इस दौर में किसी को जानकर अचरज हो सकता है कि हिन्दुस्तान में एक वक़्त 10,000 रुपये का नोट भी चलता था. और छोटे नोटों में ‘दो रुपये आठ आना’ का भी. फिर हिन्दुस्तान की आज़ादी के बाद भारत सरकार ने 1949 में एक रुपये के नोट से नई डिज़ाइन शुरू की.
आज़ादी के बाद के नोटों की डिज़ाइन में पहले अशोक स्तंभ होता था. हाथी, बाघ, तंजोर का मंदिर, मुंबई का गेटवे ऑफ इंडिया और इसी तरह की तस्वीरें. साल 1975 में 100 रुपये के नोट पर खेती-बाड़ी से जुड़ी डिजाइन भी आई. इसी बीच, साल 1969 में एक, दो, पांच, 10 और 100 रुपये के नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर छपनी शुरू हो गई, जो अब तक जारी है. हिन्दुस्तानी रुपये के सफ़र में और भी कई अहम पड़ाव आए. मसलन- जुलाई-2010 में रुपये अपना चिह्न मंज़ूर होना और नवंबर 2016 की नोटबंदी. इसके बाद भी इसकी शक़्ल, सूरत हैसियत में काफ़ी कुछ बदला. अलबत्ता, हैसियत से याद आया, हिन्दुस्तान से निकला ‘रुपया’ सिर्फ इसी मुल्क की सरहदों से नहीं बंधा हुआ है. दुनिया के क़रीब सात मुल्क हैं, जहां की मुद्रा रुपया के नाम से चलती है, आज भी. ये हैं- इंडोनेशिया, मॉरीशस, नेपाल, सेशेल्स, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान. तो जनाब, इतनी जानकारियों के बाद, ख़्याल यूं है कि अब तो ये मान लिया जाना चाहिए कि दुनिया को ‘रुपया-पैसा’ हिन्दुस्तान ने ही दिया है.
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