दास्तान-गो: …और देखते-देखते जूनागढ़ गुजरात के उस इलाके की मिट्टी पानीदार हो गई
दास्तान-गो: …और देखते-देखते जूनागढ़ गुजरात के उस इलाके की मिट्टी पानीदार हो गई
Daastaan-Go ; Story of Meghal River Revival from Junagarh, Gujarat on World Soil Day : तो तारीख़ें तय हुईं, 23 और 26 दिसंबर. इन तारीख़ों पर अलग-अलग जगहों से पदयात्राएं निकाली जानी थीं. फिर दोनों पदयात्राएं, उस जगह जाकर मिलनी थीं जहां मेघल नदी अरब सागर में जाकर समा जाती है. सो, इसी फ़ैसले के मुताबिक पहली पदयात्रा 23 दिसंबर को शुरू हुई, अजब गांव से ही. वहीं केशव कलिमल हरि बापू का आश्रम है, वहीं से. क़रीब 100-150 गांववाले जुटेऔर हाथ में तख़्तियां लिए. नारे लगाते हुए आगे चले, ‘जलक्रांति ज़िंदाबाद’ और ‘मेघल हमारी माता है’ वग़ैरा. पदयात्रा का दूसरे सिरे के लोग इसके बाद ज़्यादा इंतिज़ार नहीं कर सके और 26 के बजाय 24 दिसंबर को ही निकल पड़े. इन लोगों ने बाबरा गांव से सफ़र शुरू किया था. यहां से मेघल की ही एक सहायक नदी कलिंधरी निकलती है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ये क़िस्सा है एक नदी का, जो लगभग ख़त्म होने को थी, लेकिन फिर ज़िंदा हो गई. कर दी गई. ये क़िस्सा इस नदी से लगने वाले इलाक़ों की उस मिट्टी का भी है, जिसकी रगों में ख़ून की तरह दौड़ने वाले पानी की एक-एक बूंद खींच ली गई थी. उसे मरने, बंजर होने के लिए छोड़ दिया गया था. मगर अचानक न जाने कैसे चमत्कार हुआ कि इस मिट्टी की धमनियाें में, शिराओं में ‘उसका ख़ून’ फिर भर दिया गया और वह ‘पानीदार’ हो गई. ये कहानी आज बड़ी मौज़ूं बन पड़ी है. क्योंकि एक तो आज यानी पांच दिसंबर को पूरी दुनिया में ‘विश्व मिट्टी दिवस’ मनाया जाता है. यह सिलसिला 2014 से शुरू हुआ था. ताकि लोग अपनी मिट्टी और उसकी अहमियत को समझें. उसकी तरफ़ ज़्यादा संज़ीदा हो सकें. और दूसरी बात ये कि जिस नदी के फिर ज़िंदा होने की ये कहानी है, उसकी शुरुआत दिसंबर महीने में ही हुई थी. साल 2002 की बात है ये. और दिलचस्प ये कि दुनिया में पांच दिसंबर को ‘विश्व मिट्टी दिवस’ मनाया जाए, ये मांग भी पहली बार 2002 में ही हुई थी.
ख़ैर, अभी बात करते हैं मिट्टी के पानीदार होने की, लगभग मर चुकी एक नदी के ज़िंदा होने की. ये क़िस्सा जूनागढ़, गुजरात के केशोद, मालिया, मांगरोल जैसे क़रीब 64 गांवों का है. यहां, इस इलाक़े में कुछ बरस पहले तक एक नदी बहा करती थी, ‘मेघल’. बरसों पहले इस नदी में साल के बारहों महीने पानी रहा करता था. मीठा पानी. इसीलिए यह पूरे इलाक़े की जीवनरेखा कहलाती थी. लेकिन वक़्त बदला. नदी किनारे रहने वाले लोगों की ज़रूरतें बदलीं और बढ़ीं. सो, एक वक़्त ऐसा आया, जब इस ‘जीवनरेखा’ के हाथ से उसका ही जीवन छूटने लगा. सूखे और जर्जर हाल में वह नालीनुमा ढांचे में तब्दील हो गई. सिर्फ़ बरसात के दिनों में उसमें पानी आता और बाकी वक़्त में उसमें सिर्फ़ धूल-रेत नज़र आती. ज़ाहिर तौर पर इस नदी के सूखने का असर इलाक़े की मिट्टी पर, ज़मीन पर भी पड़ा. मिट्टी सूखकर दरकने लगी. कुएं, बावड़ियां सूखे गड्ढों में तब्दील होने लगीं.
ज़मीन के नीचे का पानी नीचे, नीचे, और नीचे खिसक गया. इस इलाक़े के लोगों ने 1980 और 1990 की दहाइयों में भयानक सूखे के हालात देखे थे. सूखे के उसी दौर से ही मेघल नदी के हालात भी बिगड़ने शुरू हुए थे, ऐसा इलाक़े के लोगों ने ख़बरनवीसों को बताया. साल 1998-99 तक तो हाल ये हो गए कि गर्मी के दिनों में पूरे इलाक़े में पीने का पानी सरकारी टैंकरों से पहुंचने लगा. और इलाक़ाई लोग काम की तलाश में गांव छोड़ शहरों में पहुंचने लगे क्योंकि उनके खेतों में खेती की गुंज़ाइश नहीं बची थी. तब अजब गांव के जशवंतराय प्राणलाल पंड्या ने इस हाल को बदलने का बीड़ा उठाया. तय किया कि किसी और के भरोसे नहीं रहना. क़ुदरत के भरोसे भी नहीं. ख़ुद अपने स्तर पर इन हालात को बदलेंगे. लिहाज़ा, उन्होंने सबसे पहले नदी के बहाव वाले पूरे 64-65 किलोमीटर के इलाक़े में लोगों को जागरूक करने का फ़ैसला किया. पदयात्रा के ज़रिए.
ये वक़्त अब साल 2002 का आ चुका था. और ग़ौर कीजिए कि इसी साल हिन्दुस्तान से बाहर दूर- देश में अंतरराष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ ने संयुक्त राष्ट्र से कहा कि दुनियाभर में मिट्टी की सेहत से जुड़े मु’आमलात में लोगों की आंखें खोलने के लिए ‘विश्व मिट्टी दिवस’ मनाइए. नहीं तो हालात हाथ से बाहर हो जाएंगे. लेकिन तब अंतरराष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ की बात किसी ने सुनी नहीं. हालांकि इधर सौराष्ट्र में, जहां मेघल नदी का बहाव क्षेत्र है, जशवंतराय को उनके मंसूबे में कुछ और लोगों का साथ मिल गया. हाथ से हाथ मिले, बात से बात बनी. और दिसंबर के महीने में जब पूरी दुनिया क्रिसमस का जलसा मनाने की तैयारी में लगी थी, तब जशवंतराय और उनके साथी मेघल नदी के बहाव क्षेत्र में पदयात्रा की तैयारियां कर रहे थे. इससे पहले जशवंतराय ने क़ौल लिया था कि जब तक मेघल पुरानी शक़्ल-ओ-सूरत में नहीं लौटती, वे घी या घी-वाली मिठाइयां नहीं खाएंगे.
ख़ैर, तो तारीख़ें तय हुईं, 23 और 26 दिसंबर. इन तारीख़ों पर अलग-अलग जगहों से पदयात्राएं निकाली जानी थीं. फिर दोनों पदयात्राएं, उस जगह जाकर मिलनी थीं जहां मेघल नदी अरब सागर में जाकर समा जाती है. सो, इसी फ़ैसले के मुताबिक पहली पदयात्रा 23 दिसंबर को शुरू हुई, अजब गांव से ही. वहां केशव कलिमल हरि बापू का आश्रम है, वहीं से. क़रीब 100-150 गांववाले जुटेऔर हाथ में तख़्तियां लिए. नारे लगाते हुए आगे चले, ‘जलक्रांति ज़िंदाबाद’ और ‘मेघल हमारी माता है’ वग़ैरा. पदयात्रा के दूसरे सिरे के लोग इसके बाद ज़्यादा इंतिज़ार नहीं कर सके और 26 के बजाय 24 दिसंबर को ही निकल पड़े. इन लोगों ने बाबरा गांव से सफ़र शुरू किया था. यहां से मेघल की ही एक सहायक नदी कलिंधरी बहती है. तो इस तरह दोनों पदयात्राएं आगे चलीं. रास्ते-रास्ते गांववाले इन पदयात्रियों का अपने तरीकों से इस्तिक़बाल करते जाते थे.
जनाब, ‘डाउन टु अर्थ’ नाम की बड़ी नामी मैगज़ीन है. उसने फरवरी 2003 में इस ‘जलक्रांति अभियान’ के बारे में तफ़सील से छापा था. उसमें बताया था कि रास्ते में जगह-जगह गांवों की महिलाओं ने इस पदयात्रा के यात्रियों का ‘मंगल-कलश’ के साथ स्वागत किया था. यहां तक कि पदयात्रियों को राखियां भी बांधी. यही नहीं, रास्तेभर गांव-गांव में सभाएं हुईं. उनमें पदयात्रा की अगुवाई कर रहे लोगों ने गांववालों को बताया कि मेघल को दूसरी ज़िंदगी देना कितना ज़रूरी है. नहीं तो गांववालों की ज़िंदगी ख़तरे में पड़ जाएगी. बल्कि पड़ने ही लगी है. लिहाज़ा, सब लोग साथ आएं और अपने-अपने हिस्से की शिरकत करें, अपना योगदान दें. यही नहीं, ये लोग वह तरीके भी बता रहे थे कि आम लोगों को किस तरह पर अपनी शिरकत करनी है. इसके लिए अजब, खोपला और समधियाला गांवों की मिसालें दी जाती थीं. जहां ‘बारिश के पानी की कामयाब खेती’ हुई थी.
वैसे, यहां बताते चलें कि ‘बारिश के पानी की खेती’ को अंग्रेजी ज़ुबान में ‘रेन वॉटर हार्वेस्टिंग’ कहा जाता है. और ऊपर जिन गांवों का ज़िक्र किया, उनमें देबूबेन जेलू (अजब), माथुरभाई सावनी (खोपला), हरदेव सिंह जाडेजा (समधियाला) जैसे कुछ लोग साल 1998-1999 के दौरान ही ये कारनामा कर चुके थे. ये सब लोग भी पदयात्रियों के साथ थे और जगह-जगह गांववालों को अपने तजरबे बताते जाते थे. ताकि सभी को ससझ आता जाए कि करना क्या है और कैसे. यात्रा के दौरान उन लोगों की पहचान भी होती जाती थी, जो मेघल को नई ज़िंदगी देने के इस काम में तन, मन, धन लगा सकते थे. इनमें बुज़ुर्ग थे, जवान थे, औरतें थीं, बच्चे थे, सब थे. औरतों की अगुवाई तो देबूबेन ही कर रही थीं. इनकी तादाद करीब 100-125 के आस-पास थी. ये रास्तेभर लोकगीत, भजन वग़ैरा गाती जाती थीं. इस तरह ये यात्राएं तय वक़्त पर, अपने तय मक़ाम पर जाकर ख़त्म हुईं.
इसके बाद यहीं से शुरू हुआ मेघल को नई ज़िंदगी देने का काम. इस सिलसिले में हिन्दुस्तान के एक बड़े अख़बार ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने जून-2015 में एक ख़बर छापी थी. उसमें बताया था कि सौराष्ट्र के इस इलाक़े के गांववालों ने किस तरह 12-13 सालों की तपस्या के बाद मेघल को नई ज़िंदगी दी है. ‘आगा खान रूरल सपोर्ट प्रोग्राम’ की मदद से नदी के बहाव वाले पूरे रास्ते में 1,100 ढांचे बनाए. इनमें से क़रीब 54 छोटे बांधनुमा ढांचे (चैक-डैम) हैं. यही कोई 6,500 गांववालों ने इस काम में पसीना बहाया. लगभग सात करोड़ रुपए ख़र्च हुए हैं. इसमें से कुछ पैसा तो गांववालों ने ही दिया. बाकी पैसे का ज़रिया-ए-आमद दीगर रहा. सूबे की सरकार ने भी मदद की. उसने यही कोई आठ करोड़ रुपए अलग ख़र्च किए. इससे जगह-जगह पंप-हाउस वग़ैरा बनवाए. और इन मिली-जुली कोशिशों का नतीज़ा? मेघल, जिसे मेघ भी कहते हैं, आज हर मौसम में पानी से भरी नज़र आती है. उसके बहाव वाले पूरे इलाक़े की मिट्टी अब फिर पानीदार दिखती है.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Gujarat, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : December 05, 2022, 08:44 IST