दास्तान-गो: गुजरात में एक हुआ ‘ज़हरीला सुल्तान’ उसके ज़हर की निशानियां अब तक क़ायम रहीं
दास्तान-गो: गुजरात में एक हुआ ‘ज़हरीला सुल्तान’ उसके ज़हर की निशानियां अब तक क़ायम रहीं
Daastaan-Go ; Poisonous Ruler Of Gujarat Mahmud Begada : महज़ 13 साल की उम्र में ‘बेगड़ा’ ने गुजरात पर अपनी हुक़ूमत जमा ली थी. इसके बाद लगभग 54 साल उसने राज किया. इस दौरान उसके बारे में तरह-तरह के क़िस्से चलने लगे. मसलन- उसकी मूंछें इतनी बड़ी हैं कि वह उन्हें अपने सिर पर साफ़े की तरह बांध लिया करता है. ये भी कि ‘बेगड़ा’ के ज़िस्म में इतना ज़हर भर चुका है कि वह किसी पर अगर थूक दे तो सामने वाला कुछ घंटों में ही मर जाता है. ऐसे ही यह भी कि ‘बेगड़ा’ की भूख राक्षसी है. वह दिनभर में 35 किलो तक खाना खा जाता है. दिनभर में 12 दर्जन से ज़्यादा तो केले ही खा जाता है. रोज़ ज़हर ऊपर से पीता है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, अभी चार-पांच महीने पहले की बात है. हिन्दुस्तान के मौज़ूदा वज़ीर-ए-आ’ज़म गुजरात के एक क़स्बे चंपानेर गए हुए थे. वहां पावागढ़ के नाम का किला है. वहीं माता-काली का बड़ा मंदिर है. उसमें हुए जलसे में हिस्सा लेने के लिए उनका वहां जाना हुआ. सो ज़ाहिर है, जब हिन्दुस्तान की इतनी बड़ी शख़्सियत का उस छोटे से क़स्बे में पहुंची तो सुर्ख़ियां बड़ी-बड़ी बननी ही थीं, जो बनीं भी. और उन्हीं के बहाने से कुछ दिलचस्प तारीख़ी वाक़ि’अे भी ताज़ा कर लिए गए उस वक़्त. मसलन- सुर्ख़ियों में ही बताया गया कि हिन्दी फिल्मों के मशहूर अदाकार आमिर खान की ‘लगान’ फिल्म में जिस चंपानेर गांव ज़िक्र किया गया, वह यहीं गुजरात में है. ऐसे ही, गुजरात के एक ऐसे सुल्तान से जुड़े वाक़ि’अे याद किए गए, जो तारीख़ में ‘ज़हरीले सुल्तान’ के तौर पर भी दर्ज़ पाया जाता है. लेकिन जनाब, उस वक़्त बताए ऐसे तमाम क़िस्से सच तो थे, पर आधे-अधूरे ही.
लिहाज़ा, अभी एक मौक़ा बना तो सोचा क्यूं न उन कहे-सुने क़िस्सों को सच्चाई के बर-‘अक्स ज़रा रख लिया जाए. ये मौक़ा अलबत्ता, सीधा तो नहीं, थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है. दरअस्ल, आज हिन्दी कैलेंडर के हिसाब से नंदा सप्तमी की तारीख़ है. ये माता-पार्वती के एक अवतार नंदा देवी के दुनिया के सामने आने की तारीख़ होती है. उत्तराखंड में नंदा देवी के नाम से एक पहाड़ी है. उसे ही वह जगह माना जाता है, जहां नंदा देवी पहली बार दुनिया के सामने आईं. वहां के आज के दिन बड़ा जलसा होता है. और हिन्दुस्तान में जहां भी देवी के सिद्ध शक्ति-पीठ हैं, वहां भी ख़ास भजन-पूजन होता है. सो, अब चूंकि चंपानेर, पावागढ़ भी सिद्ध शक्ति-पीठों में से एक गिना जाता है, तो वहां भी ख़ास पूजा-पाठ तय मानिए. इस तरह, एक बात तो ये हुई. दूसरी ये कि जिस ‘ज़हरीले सुल्तान’ का नाम चंपानेर, पावागढ़ से जुड़ता है, वह नवंबर की 23 तारीख़ को मारा गया था.
ये साल 1511 की बात है, जब पुर्तगालियों के साथ हुई लड़ाई के बाद चंपानेर, गुजरात के उस ‘ज़हरीले सुल्तान’ की मौत हुई. बताते हैं, पुर्तगालियों के साथ यह लड़ाई दीव के समुद्री इलाक़े में साल 1509 के दौरान हुई थी. तब सुल्तान और उसके मददग़ारों की फ़ौज समुद्री लड़ाई में उतनी मज़बूत नहीं होती थी. इसलिए पुर्तगालियों के हाथों हार गई. और कहते हैं, यहीं से यूरोपियन नस्लों ने हिन्दुस्तान पर क़ब्ज़े का सिलसिला शुरू किया. ये सच्चाई तारीख़ी किताबों में दर्ज़ है. ख़ैर, इसके बाद एक जानकारी देना और यहां मुनासिब होगा कि ‘लगान’ फिल्म में जिस चंपानेर का ज़िक्र है, वह है तो गुजरात में ही लेकिन वहां अंग्रेजों के साथ वैसा मैच कभी हुआ नहीं, जैसा पिक्चर में दिखाया गया है. हालांकि साल 1896 में बंबई में हुए एक टूर्नामेंट के दौरान ज़रूर ‘हिंदू क्रिकेट टीम’ ने अंग्रेजों को हराया था, ऐसा बताया जाता है. क्रिकेट के शुरू दौर में हिन्दुस्तान में ऐसी ही टीमें होती थीं. ‘हिन्दू क्रिकेट टीम’, ‘मुस्लिम क्रिकेट टीम’, ‘पारसी क्रिकेट टीम’, वग़ैरा.
दूसरी बात ये कि ‘लगान’ फिल्म की कहानी भी साल 1893 की बताई गई है. यही नहीं, उसमें अदाकार भी ‘अवधी’ बोलते नज़र आए हैं, जो उत्तर प्रदेश के अवध इलाक़े की बोली है. जबकि चंपानेर में गुजराती बोली जाती है. अलबत्ता, ये सच है कि ‘लगान’ की शूटिंग ज़रूर गुजरात में ही हुई है. कच्छ इलाके में एक गांव है कुनारिया. वहां की ‘सूखी-सी ज़मीन’ पर सूखे के हालात दिखाए गए थे. इस बाबत बीबीसी की ओर से बीते साल बताया भी गया था कि कुनारिया में आठ-10 महीने तक ‘लगान’ की शूटिंग किस तरह हुई और अब वहां के लोग कैसे हैं. इसके बाद रही बात ‘लगान’ की कहानी की तो उससे मिलता-जुलता वाक़ि’आ तारीख़ में मिलता है, अगस्त 1942 का. तब रूस और उसके आस-पास के बड़े हिस्से को जीतने वाली जर्मन फ़ौज के खिलाड़ियों और यूक्रेन के युद्धबंदियों के बीच आठ फुटबॉल मैच हुए थे. उस वाक़ि’अे पर कई फिल्में बन चुकी हैं.
बहरहाल, अब आते हैं, ‘गुजरात के ज़हरीले सुल्तान’ और उसकी कुछ तारीख़ी सच्चाइयों पर. इस सुल्तान का नाम हुआ महमूद बेगड़ा. गुजराती में ‘बेगड़ा’ का मतलब ‘दो गढ़ या किलों वाला’. चूंकि गुजरात का जूनागढ़ इस सुल्तान के क़ब्ज़े में पहले से था. ऐसे में जब 1484 के आस-पास इसने चंपानेर-पावागढ़ पर भी क़ब्ज़ा जमाकर उसे राजधानी बनाया तो इसे ‘बेगड़ा’ कहा जाने लगा. ये ‘बेगड़ा’ उस पहले-अहमद शाह के ख़ानदान से त’अल्लुक़ रखता था, जिसने गुजरात में सल्तनत जमाई. और जिसने अहमदाबाद शहर को अपने नाम पर बसाया. इस पहले-अहमद शाह के बाद अगली पीढ़ी में हुआ दूसरा-मुहम्मद शाह, जिसने 1450 में चंपानेर के राजा से लड़ाई लड़ी. पर हार गया. इसके बाद 1451 के फरवरी महीने इसकी मौत हो गई. कोई-कोई कहता है कि इस दूसरे-मुहम्मद शाह को उसके नज़दीकियों में से ही किसी ने ज़हर दे दिया था.
इस हादसे का नतीज़ा ये हुआ कि ये ज़हर वाली बात और चंपानेर की हार पैदाइश से ही ‘बेगड़ा’ के साथ नत्थी हो रही. क्योंकि ‘बेगड़ा’ इसी दूसरे-मुहम्मद शाह की औलाद था. अबुल-फतह नासिर-उद्दीन महमूद शाह-पहला, ये उसका पूरा नाम हुआ. इसकी मां सिंध के थट्टा इलाक़े के एक हिंदू राजा की बेटी थी. ऐसा कहते हैं कि इसकी मां को शक़ था कि उसकी सौत अपने बेटे की राह से उसके बेटे को भी हटा सकती है. वह उसे भी ज़हर देकर मार सकती है. ऐसे में उसने अपने शौहर की मौत के बाद अपनी और अपने बेटे की सुरक्षा के लिए एक सूफ़ी से शादी कर ली. बताते हैं, वह सूफ़ी ‘बेगड़ा’ के वालिद यानी दूसरे-मुहम्मद शाह के रिश्ते में आता था. उसी ने ‘बेगड़ा’ को बचपन से ही धीरे-धीरे खाने के साथ ज़हर खिलाना शुरू किया . ताकि वह ख़ुद इतना ज़हरीला हो जाए कि उस पर किसी और ज़हर का असर न हो सके. और ऐसा हुआ भी.
इस बीच, गुजरात की सल्तनत पर 1451 से 1458 के बीच ‘बेगड़ा’ के सौतेले भाई दूसरे-अहमद शाह और चाचा-दाउद शाह की हुक़ूमत रही. और फिर इसके बाद ‘बेगड़ा’ ने अपनी हुक़ूमत क़ायम कर ली. वह भी ऐसी कि लोग उसके नाम से ख़ौफ़ खाने लगे. कहते हें, महज़ 13 साल की उम्र में ‘बेगड़ा’ ने गुजरात पर अपनी हुक़ूमत जमाई थी. इसके बाद लगभग 54 साल उसने राज किया. इस दौरान उसके बारे में तरह-तरह के क़िस्से चलने लगे. मसलन- उसकी मूंछें इतनी बड़ी हैं कि वह उन्हें अपने सिर पर साफ़े की तरह बांध लिया करता है. ये भी कि ‘बेगड़ा’ के ज़िस्म में इतना ज़हर भर चुका है कि वह किसी पर अगर थूक दे तो सामने वाला कुछ घंटों में ही मर जाता है. ऐसे ही यह भी कि ‘बेगड़ा’ की भूख राक्षसी है. वह दिनभर में 35 किलो तक खाना खा जाता है. दिनभर में 12 दर्जन से ज़्यादा तो केले ही खा जाता है. रोज़ ज़हर ऊपर से पीता है.
यहां तक कि सोते समय भी समोसे से भरी तश्तरियां वह पास रखता है. जिससे कि जब भी बीच में नींद खुले, वह अपनी भूख मिटा सके, ऐसा भी कहा जाने लगा. ज़ाहिर है, ये बातें काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर कही गई होंगी. लेकिन ऐसा भी नहीं कि इनमें कोई सच्चाई ही न रही हो. जैसे- यह बात काफ़ी हद तक सही समझी जाती है कि ‘बेगड़ा’ एक कट्टर सुल्तान था. वह उन तमाम लोगों का क़त्ल कर देता था, जो उसके मज़हब में शामिल होने की उसकी बात नहीं मानते थे. उसने चंपानेर में अपने वालिद को मिली हार का बदला लेने के लिए इसी शर्त को आड़ बनाया था. कहते हैं, चंपानेर के उस वक़्त के राजा ने जब ‘बेगड़ा’ के मज़हब में शामिल होने की शर्त मानने से मना कर दिया, तो उसने उन पर हमला कर उनकी रियासत अपने क़ब्ज़े में ले ली. उसे अपनी राजधानी बना लिया. चंपानेर में पावागढ़ के ‘सिद्ध-शक्ति पीठ’ में भी उसने इसी वज़ह से उत्पात मचाया, तोड़-फोड़ की. साथ ही, द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर में भी इसी शर्त को आड़ बनाकर तोड़-फोड़ की.
उसकी इस तोड़-फ़ोड़, उसके इस ज़हर की निशानियां अब तक क़ायम रही हैं. अभी चार-पांच महीने पहले हिन्दुस्तान के मौज़ूदा वज़ीर-ए-आ’ज़म जो चंपानेर-पावागढ़ गए थे न, सुना है, वह इसी तरह की एक निशानी को पूरी तरह हटाए जाने के जलसे में शामिल होने गए थे. हालांकि, हम लोग इस दास्तान की अगली कड़ी में चलेंगे द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका. ‘बेगड़ा’ के बहाने ही सही, वहां का कुछ जाइज़ा लेने को.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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