दास्तान-गो: और ‘गुजरात की दूध-गंगा में बाढ़’ लाए ‘हिन्दुस्तान के दूधवाले’ वर्गीज़ कुरियन!
दास्तान-गो: और ‘गुजरात की दूध-गंगा में बाढ़’ लाए ‘हिन्दुस्तान के दूधवाले’ वर्गीज़ कुरियन!
Daastaan-Go ; Verghese Kurien Birth Anniversary, National Milk Day : आज ‘आलम ये है कि, जैसा सरकारी आंकड़ा भी बताता है कि दुनियाभर में होने वाले दूध का 23 फ़ीसद हिस्सा हिन्दुस्तान में होता है. यहां 2020-21 के दौरान ही 146.31 लाख टन का दूध उत्पादन हुआ है. इतना ही नहीं, एक अंदाज़ा है कि हिन्दुस्तान का डेयरी बाज़ार 2027 तक 30 लाख करोड़ रुपए का होने वाला है. और ये अंदाज़ा, किसी और का नहीं, एक बड़ी सरकारी संस्था का है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, गुजरात से निकली ‘दूध-गंगा’ की दास्तान में पीछे दो दिन में दो क़िस्तों हो गईं. इनमें से पहली में आपने पढ़ा कि कैसे ‘मां-गंगा’ के धरती पर आने की जो वज़ह थी, वैसी ही ‘दूध-गंगा’ को लाए जाने, बहाए जाने की भी बनी. अभिमान, ध्वंस और फिर उद्धार के सिलसिले वाली. फिर दूसरी क़िस्त में बात ये हुई कि गुजरात के अमूल ने हिन्दुस्तान की अमूल्य धरोहर बनने की राह पर पहला क़दम किस तरह रखा. लेकिन ये जो दूसरी वाली क़िस्त है न, इसमें कुछ सवाल रह गए थे. मसलन- एक तो ये कि गुजरात के अमूल को हिन्दुस्तान की अमूल्य धरोहर कहें भी तो आख़िर क्यों? और दूसरा कि इस ‘दूध गंगा’ की दास्तान में 26 नवंबर की तारीख़ का क्या माज़रा है? इस तारीख़ पर क्यों ‘राष्ट्रीय दुग्ध दिवस’ मनाया जाता है? क्योंकि ‘दूध-गंगा’ की दास्तान में अहम तारीख़ी पड़ाव तो बहुत हुए हैं. उन दिनों में से किसी में ‘दुग्ध दिवस’ मनाया जा सकता था.
मिसाल के तौर पर 14 दिसंबर, जब ‘दूध-गंगा की गंगोत्री खेड़ा’ में बनी दूध-किसानों की पहली सहकारी समिति सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज़ हुई. ये नहीं तो 22 अक्टूबर या तीन जून में से कोई तारीख़ हो सकती थी. इन तारीख़ों पर त्रिभुवनदास किशीभाई पटेल की जयंती और पुण्यतिथि होती है, जिन्हें ‘दूध-गंगा के सफ़र में राजा भागीरथ’ जैसी हैसियत हासिल है. या फिर सरदार वल्लभभाई पटेल और लालबहादुर शास्त्री की जयंती, पुण्यतिथि की तारीख़ों में से कोई हो सकती थी. क्योंकि आज हिन्दुस्तान में अगर सहकारिता है, तो पटेल साहब की सहकारी-आंदोलन की सोच की वजह से. और मुल्क में आज जो इफ़रात दूध के हालात हैं, तो शास्त्री साहब की अगुवाई में चले ‘ऑपरेशन-फ्लड’ के कारण, जो श्वेत-क्रांति, दूध-क्रांति लेकर आया. मगर इन तमाम तारीख़ों को छोड़कर ‘राष्ट्रीय दुग्ध दिवस’ मनाने के लिए तारीख़ चुनी गई 26 नवंबर यानी आज की. क्यों?
मुमकिन है कि इसका ज़वाब काफ़ी लोगों को पता हो. सो, वे फेर लें. और जिन्हें नहीं पता, वे जान लें कि 26 नवंबर (1921), वर्गीज़ कुरियन साहब की पैदाइश की तारीख़ है. कुरियन साहब, जिन्हें हिन्दुस्तान में ‘मिल्कमैन ऑफ इंडिया’ कहते हैं. यानी ‘हिन्दुस्तान का दूधवाला’. वे ‘श्वेत क्रांति के जनक’ कहे जाते हैं. क्योंकि वही थे, जो गुजरात में उतरी ‘दूध-गंगा’ में ऐसी बाढ़ लाए (ऑपरेशन फ्लड के लिहाज़ से) लाए कि उसका दूध हिन्दुस्तान के कोने-कोने में फैल गया. और आज ‘आलम ये है कि, जैसा सरकारी आंकड़ा बताता है, कि दुनियाभर में होने वाले दूध का 23 फ़ीसद हिस्सा हिन्दुस्तान में होता है. यहां 2020-21 के दौरान ही 146.31 लाख टन का दूध उत्पादन हुआ है. इतना ही नहीं, एक अंदाज़ा है कि हिन्दुस्तान का डेयरी बाज़ार 2027 तक 30 लाख करोड़ रुपए का होने वाला है. और ये अंदाज़ा, एक बड़ी सरकारी संस्था का है.
इन उपलब्धियों के सिलसिले में ही एक दिलचस्प मु’आमला यूं बनता है कि जिस गुजरात से ‘दूध-गंगा’ निकली, उसे ही दूध-उत्पादन के मामले में आज हिन्दुस्तान के उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे सूबों ने चौथे नंबर पर खिसका दिया है. तो ये बड़ा बदलाव आख़िर हुआ कैसे? मज़ेदार ये है कि शुरुआत इस बदलाव की भी, गुजरात से ही हुई है. बात 1949 की है. उन दिनों हिन्दुस्तान की सरकार ने दूध से मक्खन वग़ैरा बनाने के मु’आमले में तजरबे के लिए ही, सरकारी डेयरी जैसा बंदोबस्त गुजरात में ही किया था. उसे क्रीमरी कहा जाता था. ये क्रीमरी वहीं आणंद में खोली गई थी, जहां त्रिभुवनदास किशीभाई पटेल की अगुवाई में ‘दूध-गंगा’ बहाने की मशक़्क़त चल रही थी. साल 1946 से शुरू होकर अब तक तीन साल गुज़र चुके थे. लेकिन ‘पोली-पोलसन’ के दूध-मक्खन के कारोबारी साम्राज्य की एक ईंट तक नहीं खिसक पा रही थी.
हालात यूं थे कि यूरोपीय तरीके से तैयार पोलसन का नमकीन मक्खन पूरा हिन्दुस्तान चटखारे लेकर खा रहा था और गुजरात के किसानों के शुद्ध मक्खन में किसी को स्वाद नहीं आता था. यही नहीं, रोज़-मर्रा की ज़रूरतें पूरी हो जाने के बाद किसानों का बचा हुआ दूध भी बेकार जा रहा था. ऐसे में, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था कि करें क्या. ये हालात कुछ और साल बने रहते, तो मुमकिन था कि अंग्रेजों के डेयरी कमिश्नर के उस हिन्दुस्तानी मददगार की बात सच हो जाती कि ‘साहब, ये हिन्दुस्तानी हैं. ज़्यादा दिन चलेंगे नहीं’. पर ख़ुश-क़िस्मती से हिन्दुस्तान अब आज़ाद था. अंग्रजों जैसी सोच भी पीछे छूट रही थी. और त्रिभुवनदास तथा उनके साथी दूध-किसान तो थे ही, आगे की सोच वाले. सो, उन्होंने अपनी परेशानियों से निज़ात पाने के लिए रुख़ किया किया सरकारी क्रीमरी का. वही, जिसे हिन्दुस्तान की सरकार ने तजरबे तौर पर आणंद में खोला था.
यहां सरकारी क्रीमरी में त्रिभुवनदास और उनके संगी-साथियों की मुलाक़ात हुई कुरियन साहब से. कुरियन साहब पैदाइशी केरल के थे. उन्होंने अमेरिका जैसे बाहर-मुल्कों से दूध और उससे बनने वाली तमाम चीजों के बारे में नए ज़माने की ता’लीम ली थी. इसके बाद आणंद की सरकारी क्रीमरी में उनकी नौकरी लगी थी. इस सबके बारे में त्रिभुवनदास साहब को पहले से ही ‘इल्म था. लिहाज़ा वे कुरियन साहब से मिले और उन्हें अपनी दिक़्क़तें बताईं. उनका हल पूछा. कुरियन साहब तुरंत इन लोगों की मदद को राज़ी भी हो गए. और उन्होंने सबसे पहले तीन काम करने को कहा. पहला- गुजरात के किसान भी अपने मक्खन में थोड़ा नमक मिलाकर उसे वैसे तैयार करें, जिस तरह ‘पोलसन’ का मक्खन बनता है. दूसरा- अपनी सहकारी संस्था का नाम ऐसा रखें कि लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाए. और तीसरा- इसका प्रचार-प्रसार ऐसा हो कि वह सबका ध्यान खींचे.
और कुरियन साहब ने ये सिर्फ़ मशवरा नहीं दिया, बल्कि इनके अमल में बराबर से दिमाग़ भी लगाया. मसलन- मक्खन बनाने, उसमें बदलाव करने का काम बेशक़ किसानों ने किया पर उसकी क्वालिटी, उसके स्वाद वग़ैरा पर आख़िरी मुहर लगाई कुरियन साहब ने. तकनीकी कसौटी पर कसने के बाद. ऐसे ही, नए नाम के लिए उन्हें किसी ने ‘अमूल्य’ सुझाया. मतलब, जिसकी कोई क़ीमत न लगाई जा सके. तो कुरियन साहब ने इस ‘अमूल्य’ को कर दिया अमूल (आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड). फिर, जब बात आई प्रचार-प्रसार की. तो कुरियन साहब अपने एक जानने वाले सिल्वेस्टर डा-कुन्हा को लाए. वे विज्ञापन की दुनिया में महारत हासिल कर रहे थे. उन्हें कुरियन साहब ने ज़िम्मा सौंपा और डा-कुन्हा ने जल्द ही ‘पोलसन की बटर-गर्ल’ के मुक़ाबले में ‘अमूल-गर्ल’ उतार दी, जो ‘आणंद’ से ‘अटरली, बटरली डिलीशियस’ कहते हुए मुल्क पर छा गई.
इसके बाद बात आई उस दूध की जो बच जाता था. तो उसके लिए कुरियन साहब ने लगाया एचएम डलाया साहब को. वे आणंद की सरकारी क्रीमरी में ही बड़े तकनीकी ओहदे पर होते थे. उन्होंने बचे हुए दूध को पाउडर की शक्ल में डिब्बा-बंद करने का बंदोबस्त किया. इस सबका मिला-जुुला नतीज़ा ये हुआ कि अगले 10-15 साल में ही ‘गुजरात का दूध-आणंद’ पूरे हिन्दुस्तान पर छा गया. जाहिर बात है, इसके चर्चे, इसका असर, सरकारों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों तक भी हुआ. सो, ऐसे ही एक बार, 1964 की 31 अक्टूबर को तब के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री आणंद आए. यह तारीख़ सरदार वल्लभभाई पटेल के जन्म की है. तो मुमकिन है, शास्त्री साहब उसी सिलसिले में आए हों. क्योंकि खेड़ा और आणंद के नज़दीक नडियाद है, जहां पटेल साहब पैदा हुए थे. तो उस वक़्त शास्त्री साहब ने खेड़ा में रातभर रुककर अमूल के पूरे कारोबार का जाइज़ा लिया.
ख़ास बात ये कि शास्त्री साहब को तब वहां रुकना नहीं था. लेकिन वे रुके और उन्होंने पूरा मामला समझा. तब तक कुरियन साहब ‘अमूल’ की कमान (जनरल मैनेजर के तौर पर) संभाल चुके थे. लेकिन गुजरात के दूध- किसानों के ‘ओहदेदार की हैसियत से. वे ख़ुद को हमेशा यही कहा करते थे. तो कुरियन साहब ने जब ‘अमूल’ की कहानी शास्त्री साहब को बताई, समझाई तो उन्हें इसके साथ एक बात और समझ आ गई. यह कि अमूल की कहानी पूरे हिन्दुस्तान में दोहराई जा सकती है. सो, उन्होंने मंसूबा बांध लिया इसका. इसके अगले कुछ महीनों में, 1965 में ही शास्त्री साहब ने नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड बना दिया. और कुरियन साहब को ही बोर्ड की अगुवाई सौंपकर उन्हें ज़िम्मा सौंप दिया, ‘गुजरात की दूध-गंगा’ में बाढ़ (ऑपरेशन फ्लड) लाने का. और देखिए, वे इस ‘दूध-गंगा’ में बाढ़ ले भी आए. इसकी मिसाल कुछ आंकड़ों में दास्तान के शुरू में दी है.
और जनाब, आज तो हिन्दुस्तान में बड़े पैमाने पर दूध-उत्पादन करने वाले क़रीब-क़रीब हर सूबे का ‘अपना-अमूल’ है. जैसे- राजस्थान का ‘सरस’, मध्य प्रदेश का ‘सांची’ वग़ैरा. इसका पूरा श्रेय अगर किसी को जाता है, तो वर्गीज़ कुरियन साहब को, जो नौ सितंबर 2012 को ‘गुजराती’ होकर दुनिया से अलविदा कह गए. हां गुजराती, क्योंकि कुरियन साहब ने लगभग पूरी ज़िंदगी गुजरात में ही बिताई. खेड़ा, आणंद और आख़िरी वक़्त नडियाद में. उन्हें उनके योगदान के लिए सरकारों ने ‘पद्मविभूषण’ (1999) जैसे कई सम्मान दिए. लेकिन उन्हें बड़ा सम्मान मिला साल 2014 में, जब उनकी याद में उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय दुग्ध दिवस’ की तरह मनाने का फैसला हुआ. और ये पिछले तीन दिनों से ‘दूध-गंगा’ की जो दास्तान कही जा रही है न, उसकी वज़ह भी यही है. क्योंकि इसी ‘दूध-गंगा’ आंदोलन ने हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के दीगर मुल्क के लोगों को भी सिखाया कि इंसान चाह ले तो वाक़’ई ‘दूध की नदियां बहा’ सकता है. इसीलिए ‘गुजरात के अमूल को हिन्दुस्तान की अमूल्य धरोहर’ भी कहा था हमने.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Amul, Birth anniversary, Gujarat, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 26, 2022, 09:15 IST