दास्तान-गो : हमारे दौर के ग़ालिब… नसीरुद्दीन शाह!

Daastaan-Go ; Nasiruddin Shah Birth Anniversary : ‘ग़ालिब से हमारा त‘अर्रुफ़ नसीरुद़्दीन शाह से शुरू होता है. आज भी जब मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम लिया जाता है तो हमें सिर्फ़ नसीर साहब का ख़्याल आता है. हमने मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा सीरियल देखा. उसे देखने के बाद कह सकते हैं कि हम मिर्ज़ा ग़ालिब को जानते हैं. हमने अगर ग़ालिब को हंसते, रोते या ग़म में डूबे देखा है तो सिर्फ़ गुलज़ार और नसीरुद्दीन शाह की वजह से. हमारे घरों तक ग़ालिब को पहुंचाने में इन दोनों का कोई सानी नहीं.’

दास्तान-गो : हमारे दौर के ग़ालिब… नसीरुद्दीन शाह!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ———— जनाब, उर्दू और फ़ारसी अदब के अज़ीम हिन्दुस्तानी शाइ’र मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग़ खान ‘ग़ालिब’ की पैदाइश (साल 1797 में) का ये 225वां साल है. उनके इंतिक़ाल को भी 153 बरस (साल 1869 में) बीत चुके हैं. इतना लंबा वक़्त बीत जाने के बाद ग़ालिब का चेहरा याद रखने वाले कोई क्या ही होंगे. बावजूद-ए-कि, ग़ालिब का चेहरा मौज़ूदा पीढ़ी के ज़ेहन में भी अब तक ठहरा है. और इसकी वजह हैं, आज के दौर के अज़ीम शाइ’र, नग़्मा-निगार गुलज़ार. जिन्होंने हिन्दी सिनेमा के आ’ला-अदाकार नसीरुद्दीन शाह को ग़ालिब की सूरत ‘अता की. नसीरुद्दीन शाह, जो आज 20 जुलाई को अपनी उम्र का 72वां साल (1950 में पैदाइश) पूरा कर रहे हैं. नसीरुद्दीन, जिन्हें अदाकारी के शुरुआती दिनों से ही लगा करता था कि गोया, ग़ालिब के फ़िल्मी किरदार के लिए बस, वे ही बने हैं. कोई दूसरा नहीं. इसका एक दिलचस्प वाक़ि’आ नसीरुद्दीन ख़ुद अपनी किताब में बताते हैं. जनाब, इस किताब का नाम ‘एंड देन वन डे’ है. यूं कि नाम से जाहिर है, किताब अंग्रेजी ज़बान में लिखी गई है. ये ख़ुद-नविश्त (आत्मकथा) किताब है. इसमें नसीरुद्दीन लिखते हैं, ‘ये बात 1970 के आस-पास की है. गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक फिल्म बनाने का मंसूबा बांधा था. उसमें वे उस दौर के मशहूर अदाकार संजीव कुमार को ग़ालिब के किरदार के लिए ले रहे थे. संजीव कुमार ने ‘परिचय’, ‘प्रयास’, ‘नमकीन’, ‘मौसम’, ‘आंधी’ जैसी फिल्मों में जिस तरह की अदाकारी की, उसे देखने के बाद गुलज़ार साहब पूरी तरह मुतमइन थे कि ग़ालिब के किरदार के साथ सिर्फ़ संजीव कुमार ही इंसाफ़ कर सकते हैं. लेकिन मैं उनकी इस राय से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखता था. मैं तब एफटीआईआई (फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया) में था. मुझे जब ये ख़बर लगी कि संजीव कुमार के साथ गुलज़ार साहब ग़ालिब पर फिल्म बना रहे हैं तो मुझे यह नागवार गुज़रा.’ ‘हालांकि तब तक ग़ालिब से मेरी वाबस्तगी इतनी ही थी कि मैंने उनकी चंद नज़्में, शा‘इरी वग़ैरा पढ़ रखीं थीं. तिस पर भी मुझे लगता था कि मैं ग़ालिब के किरदार के लिए सही शख़्स हूं. मैं उनके किरदार के साथ इंसाफ़ कर सकता हूं. और गुलज़ार भाई संजीव कुमार को इस किरदार के लिए लेकर ग़लती कर रहे हैं. हालांकि, तभी मुझे दूसरी ख़बर मिली कि संजीव कुमार की सेहत नासाज़ हुई है. उन्हें अस्पताल में दाख़िल कराना पड़ा है. इसलिए फिल्म अटक गई है. इस बीच, फिल्मी दुनिया के मेरे साथी विक्रम मल्होत्रा की मदद से मुझे गुलज़ार साहब के घर का पता मिल चुका था. अपनी रौ में तो था ही मैं. सो, उसी की ज़द में मैंने गुलज़ार साहब को एक ख़त लिख भेजा. इसमें लिखा था कि ग़ालिब के किरदार के लिए जिस शख़्स की उन्हें तलाश है, अस्ल में, वह मैं हूं. उस किरदार के लिए ज़रूरी अपनी कुछ क़ाबिलियत (पात्रता) भी गिनाई थीं मैंने ख़त में.’ ‘मेरी क़ाबिलियत कुछ यूं थीं कि मैं मेरठ से त‘अल्लुक़ रखता हूं, जहां से ग़ालिब का भी रिश्ता था. मेरी ये बात सही थी. दूसरा- मैंने लिखा था कि मैं पुरानी दिल्ली की गली क़ासिम जान में रहा हुआ हूं, जहां ग़ालिब भी रहते थे. मेरी ये बात झूठ थी. अस्ल में, मैं सिर्फ़ इस इलाके में एकाध बार घूमने ही गया था बस. तीसरा- मैंने लिखा कि मैं सिलसिलेवार तरीके से उर्दू बोलना, लिखना जानता हूं. जबकि ये बात 30 फ़ीसद ही सही थी. मैं सिर्फ़ उर्दू बोल सकता था, लिख नहीं. चौथा- मैंने लिखा कि मैंने ग़ालिब को ख़ूब पढ़ रखा है, जो कोरा ही झूठ था. बावजूद-ए-कि, मैंने गुलज़ार साहब को भरोसा दिलाया कि अगर ग़ालिब के किरदार के लिए वे मुझे लेते हैं तो मैं उन्हें मायूस नहीं करूंगा. तो, इस तरह ख़त चला गया. मुझे उनसे ज़वाब की कोई उम्मीद न थी. वह मिला भी नहीं. मुझे ये भी मालूम न था कि मेरे ख़त का गुलज़ार साहब पर असर क्या हुआ है.’ ‘वक़्त गुज़रा और एक मौका आया, जब मुझे गुलज़ार साहब से मिलने का वक़्त मिला. मैं पाली हिल पर मौज़ूद उनके दफ़्तर में गया. वे तब मेरी फिल्म ‘निशांत’ (साल 1975 की) देख चुके थे. उसमें उन्हें मेरी अदाकारी पसंद आई थी. मेरे मन में तरह-तरह के ख़्याल थे. लेकिन मैंने अपनी ज़ानिब से उन पर उन्हें ज़ाहिर न किया. उन्होंने भी मेरे ख़त का कोई ज़िक्र न छेड़ा. ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फिल्म के बाबत कोई बात ही न हुई. दूसरे काम की बातें हुईं और अपनी उधेड़बुन को अपने ज़ेहन में लिए मैं वहां से चला आया. सोचता रहा कि अगर मेरा ख़त पढ़ने के बाद उन्हें तैश भी आया होता, तो कम से कम वह किसी तरह उनकी ज़ानिब से ज़ाहिर तो होता. मगर ऐसा कुछ न हुआ. बात वहीं की वहीं रह गई. फिर एक वक़्त आया, जब गुलज़ार साहब ने दूरदर्शन के लिए ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ सीरियल (1988) बनाने का मंसूबा बांधा. उसमें इस किरदार के लिए मुझे लिया.’ ‘बाद वक़्त, जब हम ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ सीरियल की शूटिंग कर रहे थे, तो एक रोज़ मैंने अपने ख़त का ज़िक्र गुलज़ार साहब के सामने छेड़ा. पूरा वाक़ि‘आ बताया. मुझे उनकी जानिब से ये जानकर तसल्ली ही हुई अलबत्ता, कि मेरा ख़त गुलज़ार साहब तक पहुंचा ही नहीं था.’ तो जनाब, इस तरह नसीरुद़दीन शाह फिल्मी पर्दे पर ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ की सूरत में नुमूदार हुए. और फिर देखने वालों के ज़ेहन में कुछ यूं ठहरे कि जब भी लोग ‘ग़ालिब’ को याद किया करें, उनके ख़्यालों में नसीरुद्दीन का चेहरा उभरा करे. इसके बाद जनाब, साल 2018 की बात है ये. दिल्ली में उस बरस एक महफ़िल सजी थी, ‘दास्तान-ए-ग़ालिब, उमराव (ग़ालिब की बेगम) की नज़र से’. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिल्ली घराने के उस्ताद इक़बाल अहमद ने महफ़िल सजाई थी. उसमें ‘ग़ालिब’ और नसीरुद्दीन साहब के कई चहीतों ने ख़बरी दुनिया के नुमाइंदों के सामने एक तस्दीक़ी की थी. बताया था, ‘ग़ालिब से हमारा त‘अर्रुफ़ नसीरुद़्दीन शाह से शुरू होता है. आज भी जब मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम लिया जाता है तो हमें सिर्फ़ नसीर साहब का ख़्याल आता है. हमने मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा सीरियल देखा. उसे देखने के बाद कह सकते हैं कि हम मिर्ज़ा ग़ालिब को जानते हैं. हमने अगर ग़ालिब को हंसते, रोते या ग़म में डूबे देखा है तो सिर्फ़ गुलज़ार और नसीरुद्दीन शाह की वजह से. हमारे घरों तक ग़ालिब को पहुंचाने में इन दोनों का कोई सानी नहीं.’ हालांकि इसी महफ़िल का आगाज़ करते हुए नसीर साहब ने जानते हैं क्या कहा, ‘जब 20 साल बाद मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार मुझे मिला, तब सही मायनों में मेरी उर्दू की ताली‘म शुरू हुई. जो कुछ हुआ, उसका पूरा सेहरा गुलज़ार भाई के सर पर है. क्योंकि अगर उन्होंने इतना बेहतर लिखा न होता तो मैं क्या, दुनिया का कोई भी अदाकार (ग़ालिब के किरदार के साथ) इंसाफ़ न कर पाता.’ और जनाब, नसीर साहब की बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. आगे फ़रमाया उन्होंने, ‘मैं यक़ीन दिलाऊं आपको, कि एक लम्हे के लिए भी मैं इस ग़लतफ़हमी में नहीं रहा कि शायद मैं ग़ालिब हूं. लोग मुझसे कहते हैं कि जब ग़ालिब का ज़िक्र आता है, तो तुम्हारा चेहरा आता है. मैं इस बात को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया करता हूं.’ उसी दौरान उनसे लोगों ने ग़ालिब के बारे में राय रखने को कहा, तो बोले, ‘मेरी क्या मजाल कि मैं आफ़ताब को चिराग़ दिखाने की नौबत करूं.’ ग़ौर कीजिए जनाब, साल 2018 में इस तरह बोलने वाले ये वही नसीर साहब हैं, जो 1970 की दहाई में ख़ुद को ग़ालिब के किरदार के लिए एकदम सही अदाकार माने बैठे थे. वो कहते हैं न जनाब, समझ हमेशा अपने ‘सही वक़्त’ पर आती है. और समझ आने का ‘सही वक़्त’ ज़रा देर से आता है. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 20, 2022, 08:47 IST