दास्तान-गो : मंसूर अली खान पटौदी क्रिकेट का इक़लौता ‘एक नज़र वाला टाइगर’
दास्तान-गो : मंसूर अली खान पटौदी क्रिकेट का इक़लौता ‘एक नज़र वाला टाइगर’
Daastaan-Go ; Former Indian Cricket Team Captain Mansoor Ali Khan Pataudi Death Anniversary : इस तरह मंसूर अली खान अब ‘एक आंख वाले टाइगर’ हो गए थे. अलबत्ता, इस दास्तान की शुरुआत में उन्हें ‘एक नज़र वाला टाइगर’ लिखा गया, तो उसकी वज़ह भी बता देते हैं. दरअस्ल, इस हादसे के बाद उन्होंने अपनी ‘टाइगर वाली ख़ासियतों’ (आक्रामता और फुर्ती) को क़ायम रखते हुए क्रिकेट में जो मक़ाम हासिल किया, वह ‘एक नज़र’ यानी ‘हर वक़्त सिर्फ़ अपने एक लक्ष्य पर नज़र’ रखने वालों के लिए मुमकिन हो पाता है. ‘दो नज़र’ वालों के लिए नहीं. अपने लक्ष्य से भटक जाने वालों के लिए नहीं.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, क्रिकेट की दुनिया कहिए या दुनिया का क्रिकेट. दोनों में ‘एक नज़र वाला टाइगर’ इकलौता ही हुआ है अब तक. नाम, मंसूर अली खान पटौदी. ये तमगा इन तक कैसे आया, इसे समझने के लिए कुछ मुख़्तलिफ़ (अलग-अलग) वाक़ि’ओं का ज़िक्र ज़रूरी होता है. इनके बारे में खुद मंसूर अली खान बताते हैं, अपनी जीवनी ‘टाइगर्स टेल’ में, ‘मेरा पूरा नाम मोहम्मद मंसूर अली खान पटौदी है. मेरे माता-पिता, दोस्त-यार, जान-पहचान वाले मुझे ‘टाइगर’ भी कहा करते हैं. क्यों कहते हैं, मैं आज तक नहीं समझ पाया. बस, इतना बता सकता हूं कि जब मैं बच्चा था तभी से मेरी प्रवृत्ति टाइगर जैसी रही है. मैं बचपने में बड़ी आक्रामकता और फुर्ती के साथ फर्श के चारों कोनों में चक्कर लगाया करता था. मुमकिन है, इसीलिए उन लोगों ने मुझे ‘टाइगर’ कहना शुरू किया हो’.
इसके बाद दूसरा वाक़ि’आ साल 1961 का. जुलाई महीने की एक तारीख़ थी वह. उस वक़्त मंसूर अली खान ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे. वहां की टीम से क्रिकेट भी खेलते थे. बल्कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम के कप्तान बना दिए गए थे. वे पहले हिन्दुस्तानी थे, जिन्हें यह हैसियत मिली थी. उस वक़्त को याद करते हुए मंसूर अली खान लिखते हैं, ‘उस दिन होव में ससेक्स की टीम के ख़िलाफ़ हमारा मैच था. खेल ख़त्म होने के बाद मुझे मिलाकर टीम के पांच साथी चाइनीज़ खाने का लुत्फ़ लेने के लिए ब्रिंग्टन चले गए. वहां खाना खा-पीकर हम मॉरिस-1000 कार से होटल लौट रहे थे. गाड़ी विकेटकीपर रॉबिन वॉटर्स चला रहे थे. शाम का वक़्त था. हम होटल से 300 गज ही दूर थे कि तीन साथी गाड़ी से उतर गए. वे चहलक़दमी करते हुए होटल तक जाना चाहते थे. उन्होंने मुझसे भी इसरार किया मगर मैंने मना कर दिया’.
‘मैं अब तक पीछे वाली सीट पर बैठा था. आलस काफ़ी आ रहा था. इसीलिए चहलकदमी करने से भी मना किया था. गाड़ी से ही होटल पहुंचकर आराम करने के मूड में था. लिहाज़ा, जैसे ही तीन साथी उतरे तो मैं आगे वाली सीट पर रॉबिन के बगल में आकर बैठ गया. इसके बाद रॉबिन ने गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ाई ही थी कि सामने से अचानक एक बड़ी कार हमारे सामने आ गई. हमारी गाड़ी सीधे उससे जा भिड़ी. टक्कर होते ही मैंने ख़ुद को बचाने के लिए फुर्ती से अपना दायां कंधा आगे किया. इससे कार का सामने वाला कांच (विंडशील्ड) टूट गया. मुझे लगा कि शायद मेरा हाथ भी टूट गया है. एंबुलेंस से अस्पताल जाते वक़्त मैंने रॉबिन से यह बात कही भी. उसके माथे पर कुछ खरोंचें लगी दिख रही थीं. इसके अलावा कोई और चोट हमें समझ नहीं आ रही थी. आंख में चोट लगी है, इसका तो अंदाज़ा ही नहीं था मुझे. क्योंकि कोई दर्द वग़ैरा नहीं हो रहा था’.
‘एक्सीडेंट गंभीर नहीं था. उसके बाद हमें ब्रिंग्टन के अस्पताल ले जाया गया. शुरुआती इलाज़, जांच वग़ैरा के बाद वहां मुझे बताया गया- आपकी दायीं आंख का ऑपरेशन करना होगा. यह सुनकर मैं अचरज में था. कार की विंडशील्ड के कांच का कोई बारीक़ टुकड़ा मेरी आंख के भीतर चला गया था. उसे निकाला जाना था. इमरजेंसी ऑपरेशन होना था. उसके लिए सर्जन डेविड सेंट क्लेयर रॉबर्ट को घर से बुलवाया गया. उन्होंने बहुत अच्छे से सब काम किया. मगर वह मेरी आंख का लैंस नहीं बचा सके. वह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था. मुझे अब एक आंख से दिखना बंद हो गया था. कुछ वक़्त बाद आंखों के मशहूर विशेषज्ञ सर बेंजमिन राइक्रॉफ्ट ने मुझसे कहा- अगर आपको क्रिकेट खेलना है, तो बेहतर होगा एक आंख की रोशनी के सहारे ही खेलें. क्योंकि दूसरी आंख में कॉन्टेक्ट लैंस लगाकर देखने से जो स्थिति बनेगी उससे एडजस्ट करने में वक़्त लगेगा’.
‘दाहिनी आंख में कॉन्टेक्ट लैंस लगाकर मैं 90 फ़ीसद तक देख सकता था. बस, एक ही दिक़्क़त थी कि सब चीज़े दो-दो नज़र आती थीं. इसके बाद मुझे यह मानने में कुछ वक़्त लगा कि मैं अपनी एक आंख खो चुका हूं. इसके बावजूद मेरे ज़ेहन में एक बार भी ख़्याल नहीं आया कि मैं अब क्रिकेट नहीं खेल सकता. मुमकिन है, मैंने ख़ुद को यह मानने ही न दिया हो. हां, इतना तय था कि ऑक्सफोर्ड की टीम भी तरफ़ से अब मैं सीजन के आख़िरी तीन मैच नहीं खेल सकता था. इसका मतलब यह भी था कि ऑक्सफोर्ड के एक सीजन में सबसे अधिक रन बनाने का अपने वालिद का रिकॉर्ड भी नहीं तोड़ सकता था’. बताते चलें कि एक्सीडेंट होने तक मंसूर अली खान ऑक्सफोर्ड की टीम की तरफ़ से जून तक, उस सीजन में 1,216 रन बना चुके थे. और साल 1931 में बनाए अपने पिता इफ़्तिखार अली खान पटौदी के रिकॉर्ड (1,307 रन) से बस, थोड़े ही पीछे थे.
तो जनाब, इस तरह मंसूर अली खान अब ‘एक आंख वाले टाइगर’ हो गए थे. अलबत्ता, इस दास्तान की शुरुआत में उन्हें ‘एक नज़र वाला टाइगर’ लिखा गया, तो उसकी वज़ह भी बता देते हैं. दरअस्ल, इस हादसे के बाद उन्होंने अपनी ‘टाइगर वाली ख़ासियतों’ (आक्रामता और फुर्ती) को क़ायम रखते हुए क्रिकेट में जो मक़ाम हासिल किया, वह ‘एक नज़र’ यानी ‘हर वक़्त सिर्फ़ अपने एक लक्ष्य पर नज़र’ रखने वालों के लिए मुमकिन हो पाता है. ‘दो नज़र’ वालों के लिए नहीं. अपने लक्ष्य से भटक जाने वालों के लिए नहीं. हालांकि, एक आंख की रोशनी जाने के बाद शुरू में मंसूर अली खान रोजमर्रा की दिनचर्या में ज़रूर लक्ष्यों से भटक जाया करते थे. वे बताते हैं, ‘शुरू में चीजों की दूरी का सही अंदाज़ नहीं हो पाता था. जग से गिलास में पानी डालता तो वह टेबल पर गिर जाता. सिगरेट पीने के लिए तीली जलाता तो उसका आगे वाला सिरा ही पकड़ में नहीं आता था’.
अलबत्ता, ग़ौर कीजिए. मंसूर अली खान क्रिकेट से जुड़े अपने लक्ष्यों से नहीं भटके कभी, ‘ऑपरेशन के चार हफ़्ते बाद ही मैं नेट पर आ चुका था, प्रैक्टिस के लिए. मैं देखना चाहता था कि यहां बैट-बॉल के साथ चीजें किस तरह बदली हैं. घर में तो मां और बहन मेरी मदद के लिए आ चुकी थीं. लेकिन मैदान में, नेट पर तो सब मुझे ही करना था. वहां पहले-पहल बॉलिंग की लेंग्थ ही ठीक से समझ में नहीं आती थी. हाफ-वॉली पर ड्राइव लगाना मुझे बहुत पसंद था लेकिन अब मैं वह भी नहीं लगा पा रहा था क्योंकि यॉर्कर पर लगातार बीट होने लगा था. गेंद को हुक करने में दिक़्क़त हो रही थी. पर मुझे क्रिकेट खेलना था, कैसे भी. इसके लिए मैदान पर, नेट पर ज़्यादा से ज़्यादा रहना ज़रूरी था. सो, मैंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से छुट्टी ले ली और हिन्दुस्तान आ गया’.
यहां बता देना लाज़िम है कि मंसूर अली खान की मां साजिदा सुल्तान तब अपने वालिद हमीदुल्लाह खान के इंतिक़ाल के बाद नवाब की हैसियत से भोपाल रियासत की गद्दी पर क़ायम थीं. वज़ह कि उनकी आपा और हमीदुल्लाह खान की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान अपने हुक़ूक छोड़कर बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गईं थीं. जबकि इधर पटौदी रियासत की कमान ख़ुद मंसूर अली खान के हाथ में थी. साल 1952 में जनवरी की पांच तारीख़ को, जब मंसूर अली खान का जन्मदिन भी होता है उसी दिन, उनके वालिद का इंतिक़ाल हो गया था. पोलो खेलते वक़्त दिल का दौरा पड़ा था उन्हें उस रोज़. इसके बाद से पटौदी रियासत मंसूर अली खान संभाल रहे थे. इस तरह मां और बेटा दो अलग रियासतों के मुखिया की हैसियत से हिन्दुस्तान की सरकार से प्रीवी-पर्स (राजाओं, नवाबों को मिलने वाली रकम) ले रहे थे. हिन्दुस्तान में साल 1971 तक प्रीवी-पर्स का सिलसिला चला था.
तो जनाब वापस ‘टाइगर्स-टेल’ पर आते हैं. हादसे के बाद मंसूर अली खान जब हिन्दुस्तान लौटे तो उसी वक़्त यहां एमसीसी (मैरिलबॉन क्रिकेट क्लब) की टीम दौरे पर आई हुई थी. इंग्लैंड के मशहूर क्रिकेटर टैड डेक्सटर इसके कप्तान थे. तब तक इंग्लैंड और हिन्दुस्तान के क्रिकेट में मशहूरियत तो मंसूर अली खान भी हासिल कर ही चुके थे. लिहाज़ा, उन्हें एमसीसी के ख़िलाफ़ हैदराबाद में होने वाले एक मैच के लिए ‘प्रेसिडेंट इलेवन’ की कप्तानी की पेशकश की गई. वे भला यह मौका क्यों छोड़ने चले. उन्होंने तुरंत पेशकश मंज़ूर कर ली. आगे उन्हीं की ज़ुबानी, ‘मैच की शुरुआत ही बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में हुई. टॉस के बाद मैं और टैड पैवेलियन की तरफ़ लौट रहे थे. तभी उसने पूछा- तो टाइगर, क्या करने वाले हो तुम?’ ‘अरे नहीं, तुम मुझे बताओ, तुम क्या करने वाले हो?’ ‘इधर देखो, मेरी तरफ़, टॉस तुमने जीता है न? तो तुम्हीं बताओगे कि तुम्हें क्या करना है!’
‘अरे हां, हां, मैंने टॉस जीता है. हम बैटिंग करेंगे! दरअस्ल, मुझे अब तक दिखा ही नहीं था मैंने टॉस जीता है. बहर-हाल, हमारी बैटिंग शुरू हुई. पहले तो मैंने तय किया कि कॉन्टेक्ट लैंस लगाकर खेलूंगा. लेकिन मैदान में जब उतरा तो बड़ी मुश्किल पेश आई. छह-सात इंच की दूरी पर दो-दो गेंदें दिखाई दे रहीं थीं हर बार. उनमें से अंदर दिखने वाली गेंद पर मैं बल्ला घुमाता. इस तरह चाय के वक़्त तक जैसे-तैसे 35 रन बनाने में क़ामयाब हो गया था. लेकिन फिर मैंने कॉन्टेक्ट लैंस निकाल दिया. ख़राब आंख को पूरी तरह बंद कर के आगे खेला और कैच-आउट होने तक कुल 70 रन बनाए. हमारी टीम की तरफ़ से ये सबसे बड़ा स्कोर था. कार हादसे के बाद यह मेरा पहला बड़ा मैच था और इसमें मैंने ठीक खेला था. इस प्रदर्शन की बदौलत मुझे भारतीय टीम में चुन लिया गया. चयनकर्ताओं को शायद ही तब तक पता था कि मेरी आंख में किस स्तर की ख़राबी है’.
‘एमसीसी-इंग्लैंड के ख़िलाफ़ हमारा दूसरा टेस्ट मैच कानपुर में होना था. लेकिन मैं उसमें खेल नहीं पाया. हालांकि आंख की वज़ह से नहीं, एड़ी में खिंचाव के कारण. मैं फुटबॉल खेल-खेलकर जल्द ही उससे भी उबरा और तीसरे टेस्ट मैच में भारतीय टीम की तरफ़ से मैदान पर आ गया. दिल्ली में 13 दिसंबर से वह मैच शुरू हुआ. मेरे ज़ेहन में कई तरह के भरम थे. मगर टीम में चुने जाने का उत्साह भी था. चौथे नंबर पर मेरी बैटिंग आई लेकिन पहली पारी में 13 रन ही बना सका. दूसरी बार मेरी बैटिंग आती, उससे पहले ही बारिश आ गई और दो दिन खेल नहीं हो पाया. लगातार तीसरा मैच ड्रॉ हो गया. चौथा टेस्ट-मैच कलकत्ते में था. उसमें मुझे फिर चुन लिया गया. हमने वह मैच 187 रनों से जीता. उसमें मेरा योगदान? पहली पारी में 64 और दूसरी में 32 रन. पांचवां और आख़िरी मैच मद्रास में था. उसमें मैने शतक (103 रन) लगाया. हमारी जीत हुई.’
‘मद्रास की वह पारी मेरी सबसे यादग़ार रही. ये प्रदर्शन टीम में मेरी जगह पक्की करने के लिए बहुत था. लिहाज़ा, वेस्टइंडीज़ दौरे पर जाने वाली भारतीय टीम का भी मैं हिस्सा बना’. और इसके बाद तो जो हुआ, वह तारीख़ में दर्ज़ है जनाब. साल 1962 के वेस्टइंडीज़ के उस दौरे में मंसूर अली खान पटौदी उपकप्तान की हैसियत से गए. भारतीय टीम के कप्तान थे नारी कॉन्ट्रेक्टर. वे एक मैच के दौरान बैटिंग करते हुए चार्ली ग्रिफिथ की गेंद से घायल हो गए. ऐसे में, चौथे टेस्ट मैच के दौरान भारतीय टीम की कप्तानी का ज़िम्मा मंसूर अली खान पटौदी पर आ गया. तब उनकी उम्र महज़ 21 साल 77 दिन थी. दुनिया भर में इतनी कम उम्र में किसी टीम का कप्तान बनने का यह एक रिकॉर्ड था, जो 2004 में टूटा आख़िरकार. इसी तरह, एक और रिकॉर्ड तब भी बना, जब 1968 में उन्हीं कप्तानी में भारतीय टीम ने विदेश में पहली बार टेस्ट-श्रृंखला जीती, न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़.
साल 1961 से 1975 के बीच मंसूर अली खान पटौदी ने भारतीय टीम की तरफ़ से 46 टेस्ट मैच खेले. इनमें से 40 में वे कप्तान रहे. कुल 2,793 रन बनाए. बैटिंग ही नहीं, फील्डिंग में भी उनका कोई मुक़ाबला नहीं था. गेंद हाथ में आते ही पलक झपकते वह स्टंप पर निशाना लगा देते थे. इसी वज़ह से उन्हें कमेंटेटर जॉन आरलॉट और इंग्लैंड के पूर्व कप्तान टैड डेक्सटर ने ‘दुनिया का सबसे अच्छा फील्डर’ करार दिया था. लिहाज़ा, ऐसी तमाम चीजों को मद्देनज़र रखते हुए एक बार फिर सोचिए जनाब, क्या किसी ‘दो नज़र वाले’ के लिए इतना सब मुमकिन है? इसीलिए यह दास्तान उन्हें ‘एक आंख वाला’ नहीं बल्कि ‘एक नज़र वाला टाइगर’ कहकर लिखी गई है. साल 2011 में 22 सितंबर की ही तारीख़ थी, जब ये ‘टाइगर’ हमारी दुनिया से कहीं दूर चला गया था.
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Tags: Death anniversary special, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 22, 2022, 07:35 IST