दास्तान-गो: शशधर मुखर्जी ने ‘सितारे गढ़े’ पर याद रहे लता जी को ख़ारिज करने के लिए
दास्तान-गो: शशधर मुखर्जी ने ‘सितारे गढ़े’ पर याद रहे लता जी को ख़ारिज करने के लिए
Daastaan-Go ; Eminent Film Maker Shashdhar Mukherjee Birth Anniversary : मुखर्जी साहब के दो छोटे भाई प्रबोध और सुबोध मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर बने. उनके सबसे बड़े भाई रबींद्रमोहन का फिल्मों से त’अल्लुक़ नहीं रहा लेकिन उनकी पौत्री रानी मुखर्जी फिल्मों की मशहूर अदाकारा हैं. शशधर के साहबज़ादे जॉय मुखर्जी फिल्मी दुनिया के मशहूर अदाकार हुए. उनके दो अन्य बेटे- देब और शोमू मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर हुए. इनमें देब मुखर्जी के बेटे अयान मुखर्जी मौज़ूदा दौर के जाने-माने डायरेक्टर, प्रोड्यूसर हैं. जबकि शोमू मुखर्जी की बेटियां काजोल (देवगन) और तनीषा अदाकाराएं हैं.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ग़लतियां इंसानों से ही हुआ करती हैं. लेकिन कभी-कभी किसी-किसी के साथ ऐसा भी होता है कि उनकी एक ग़लती पूरे किए-कराए पर पानी फेर देती है. उनके दूसरे तमाम कामों पर भारी पड़ जाती है. उनका नाम लेते ही लोगों को उनकी वही ग़लती पहले नज़र आती है, याद आती है, उनसे जुड़ी बाकी सब चीज़ें बाद में. या कभी तो दूसरी चीज़ें नज़र आती ही नहीं हैं. इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं हिन्दी सिनेमा के बड़े फिल्मकार शशधर मुखर्जी. अभी एक दिन पहले की ही बात है, 28 सितंबर की. सुरों की रानी, महारानी लता मंगेशकर का जन्मदिन था. उस मौके पर तमाम लोगों ने लता जी के साथ मुखर्जी साहब को भी याद किया. लेकिन किसलिए? इसलिए कि मुखर्जी साहब ही वह शख़्स थे, जिन्होंने फिल्मी दुनिया में लता जी को सबसे पहले ख़ारिज़ किया था. उनकी आवाज़ को उन्होंने ‘बहुत पतला’ बताकर ये कह दिया था कि ‘यह चलेगी नहीं’.
साल 1948 की बात है यह. उस वक़्त मुखर्जी साहब ‘फिल्मिस्तान स्टूडियो’ शुरू कर चुके थे. उनके सगे साले साहब अशोक कुमार गांगुली (दादा मुनि, जिनकी बहन से शशधर जी की शादी हुई) और राय बहादुर चुन्नीलाल (संगीतकार मदनमोहन के वालिद) उनके साझीदार थे. ये लोग तब ‘शहीद’ पिक्चर बना रहे थे. उस पिक्चर में पतली आवाज़ वाली अदाकारा कामिनी कौशल थीं. उनके सामने अदाकार थे यूसुफ़ भाई यानी दिलीप कुमार. इस फिल्म का संगीत देने का ज़िम्मा मास्टर ग़ुलाम हैदर के पास था. सबसे पहले उन्हीं की उस साल लता जी से मुलाक़ात हुई थी. लता जी ने ख़ुद अपने इंटरव्यूज़ में इस वाक़ि’अे का ख़ुलासा किया है. मास्टर ग़ुलाम हैदर को उन्होंने अपना ‘अस्ल गॉड फ़ादर’ तक कहा है. तो जनाब, ग़ुलाम हैदर साहब ने लता जी की आवाज़ का इम्तिहान लिया. स्टूडियो में बुलाकर कुछ गाने गवाए उनसे और उन्हें वह आवाज़ पसंद आई.
लिहाज़ा, ‘शहीद’ फिल्म में ही उन्होंने लता जी से गवाने का मन बना लिया. मगर वे थे तो म्यूज़िक डायरेक्टर ही. फिल्म से जुड़ा ऐसा फ़ैसला ख़ुद नहीं ले सकते थे. सो, उन्होंने ‘शहीद’ फिल्म के लिए तैयार किया जा रहा गाना (बदनाम न हो जाएं) लता जी की आवाज़ में रिकॉर्ड किया और पहुंच गए मुखर्जी साहब के पास. फिल्म के प्रोडूयसर, डिस्ट्रीब्यूटर होने के नाते वही इस तरह की चीज़ों के बारे में फ़ैसले कर सकते थे. इसी वज़ह से लता जी और उनकी आवाज़ की रिकॉर्डिंग का टेप लेकर ग़ुलाम हैदर साहब उनके पास पहुंचे थे. उन्हें लता जी की आवाज़ सुनवाई लेकिन उसे सुनने के बाद उन्होंने उसे ख़ारिज़ कर दिया. ये कहकर, ‘बहुत पतली आवाज़ है. हमारी हीरोइनों को मैच नहीं करेगी’. जबकि फिर ग़ौर कीजिए कि ‘शहीद’ फिल्म की अदाकारा कामिनी कौशल पतली आवाज़ की मालकिन हैं. कोई चाहे तो आज भी उन्हें सुन सकता है. वे 95 बरस की हो चुकी हैं.
तो, मुखर्जी साहब की बात सुनकर तमतमा गए मास्टर ग़ुलाम हैदर. वहीं चुनौती दे आए, ‘अच्छा तो ऐसी बात है. कोई बात नहीं है. पर आप देखिएगा, एक रोज इसी फिल्मी दुनिया के तमाम फिल्मकार, संगीतकार इस लड़की (लता) के पैरों पर गिरकर इससे अपनी फिल्मों में गाने की गुजारिश करेंगे.’ ऐसा कहकर वे लता जी को लेकर ‘फिल्मिस्तान’ से निकल गए. जैसा लता जी ने ख़ुद बताया, ‘हम लोग पैदल स्टेशन पे गए. स्टेशन बहुत नज़दीक था, फिल्मिस्तान के. मैं, वो (ग़ुलाम हैदर) और मेरी बहन. खड़े थे हम लोग. उनके हाथ में 555 (सिगरेट) का डिब्बा था. उस पे ताल दे के उन्होंने कहा- ज़रा गाओ तो बेटा. मुझे उन्होंने गाना गाकर बताया- ‘दिल मेरा तोड़ा, हो मुझे कहीं का न छोड़ा’. तो वो गाया, मैंने साथ में गाया. सुनकर वे कहने लगे- बहुत अच्छे, यही मैं चाहता हूं, चलो. ले गए मुझे. और वहां जा के रिहर्सल शुरू किए. दो दिन बाद गाने की रिकॉर्डिंग हो गई’.
यह गाना ग़ुलाम हैदर साहब ने अपनी दूसरी फिल्म ‘मज़बूर’ के लिए लता जी से गवाया था. उस दौर के मशहूर मूसीक़ार थे वे. ‘मज़बूर’ में भी संगीत देने का ज़िम्मा उन्हीं के पास था. नज़ीर अजमेरी इस फिल्म के डायरेक्टर होते थे. और मुनव्वर सुल्ताना इसकी अदाकारा थीं. भारी आवाज़ थी, उनकी. सच में, लता जी की आवाज़ उन पर बिल्कुल भी फ़बती नहीं. बावजूद इसके, ग़ुलाम हैदर साहब ने लता जी पर जोखिम लिया. क्योंकि भरोसा था उन्हें अपनी समझ और लता जी के हुनर पर. उन्होंने ‘मज़बूर’ पिक्चर के सभी गाने (जो अदाकारा पर फिल्माए गए) लता जी से ही गवाए और वे चले भी. सिर्फ़ यही नहीं, यहां से लता जी भी फिल्मी दुनिया में चल निकलीं. क्योंकि जिस वक़्त ‘मज़बूर’ के लिए गानों की रिकॉर्डिंग हो रही थी, तभी फिल्मों के दो दूसरे बड़े मूसीकारों ने भी उन्हें सुना. वह थे- अनिल बिस्वास और खेमचंद खेमचंद प्रकाश. उन्हें भी लता जी की आवाज़ अच्छी लगी थी. सो, उन दोनों ने भी अपनी फिल्मों में लता जी से गवाने का फ़ैसला कर लिया, वहीं.
इस तरह, मास्टर ग़ुलाम हैदर की भविष्यवाणी सोलह आने सच हुई. और मुखर्जी साहब को भी बाद में अपनी ग़लती माननी पड़ी कि उनसे लता जी के बारे में समझने में चूक हुई. यहां तक कि आगे अपनी फिल्मों में भी मुखर्जी साहब से लता जी से ही गाने गवाए क्योंकि हिन्दी फिल्मों की दुनिया ने एक लंबा दौर ऐसा देखा जब लता जी के गाने फिल्में हिट होने की गारंटी होते थे. और हिट फिल्में तो हर फिल्मकार चाहता ही है. अलबत्ता, लता जी के मामले में जो वाक़ि’आ मुखर्जी साहब के साथ चस्पा हुआ, वैसा यक़ीनन कभी कोई नहीं चाहेगा. पर क्या करे कोई, ग़लती हो जाती है कभी-कभी. हालांकि लता जी इक़लौती नहीं थीं, जिन्हें मुखर्जी साहब ने ख़ारिज़ किया. मशहूर मुसीक़ार ओपी नैयर साहब को भी शुरुआती दौर में शशधर जी ने ख़ारिज़ कर दिया था. ये बात भी उसी दौर के आस-पास की है, जब लता जी के साथ इस तरह का वाक़ि’आ हुआ.
ओपी नैयर ‘सुरों के जादूगर’ कहलाते हैं. लेकिन शुरुआती दिनों में, 1946-47 के आस-पास ही जब वे बंबई पहुंचे तो एक मर्तबा उस दौर के बड़े अदाकार श्याम ने उन्हें मुखर्जी के पास भेज दिया. श्याम दरअस्ल नैयर साहब के अच्छे दोस्त होते थे. उन्होंने ही उन्हें दिल्ली से बंबई बुलाया था. तो नैयर साहब जब शशधर जी के पास पहुंचे तो उन्होंने उन्हें एक गाना दिया. कहा, ‘यह राजा मेहंदी अली का गाना है. इसे कंपोज करो’. नैयर साहब ने दो घंटे में उस गाने का संगीत बना डाला. लेकिन मुखर्जी साहब पर उस संगीत ने कोई ख़ास असर नहीं डाला. और श्याम साहब से कह दिया उन्होंने, ‘इस लड़के (नैयर) में दम नहीं है… कोई नई बात नहीं है.’ हालांकि, इससे आगे जानना यह भी दिलचस्प होगा कि ‘यही लड़का’ यानी नैयर साहब मुखर्जी साहब की ही कई फिल्मों की क़ामयाबी की गारंटी बना एक वक़्त. यानी नैयर साहब के पास भी शशधर जी को लौटना ही पड़ा आख़िर.
अलबत्ता, ऐसे कुछ वाक़ि’ओं को छोड़ दें तो शशधर मुखर्जी साहब का दायरा और असर फिल्मों की दुनिया में काफ़ी बड़ा ठहरता है. इनके वालिद सरकारी नौकरी किया करते थे. आज के उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जब उनकी पोस्टिंग थी, तभी शशधर जी की पैदाइश हुई थी. आज ही की तारीख़ यानी 29 सितंबर को, साल 1909 में. कुल चार भाई थे. दो छोटे और एक बड़े. परिवार का फिल्मों से कोई वास्ता नहीं था तब. लेकिन शशधर साहब को जवानी के दिनों में ही ‘मायावी दुनिया की माया’ ने जकड़ लिया और वे बंबई आ गए. कम उम्र में इनकी शादी हो गई थी, सती देवी से. ये सती देवी मशहूर अदाकार, गायक भाइयों- अशोक कुमार, अनूप कुमार, किशोर कुमार की बहन थीं. उधर, बंबई में उस वक़्त मशहूर अदाकारा देविका रानी और उनके फिल्मकार पति हिमांशु राय ने ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के नाम से फिल्म स्टूडियो बनाया था. जून, 22 और साल 1934 की बात है ये.
तो जब मुखर्जी साहब बंबई आए तो उन्हें इसी ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में ठिकाना मिला. उसमें जब इनके पैर जम गए तो इन्होंने अशोक कुमार को भी बंबई बुला लिया. देविका रानी के बारे में तो कहते हैं कि वे मुखर्जी साहब को अपना भाई मानने लगीं थीं. लेकिन तभी साल 1940 में हिमांशु राय का इंतिक़ाल हो गया और रिश्ता ही नहीं, ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की पूरी टीम ही बिखर गई. देविका रानी के साथ मुखर्जी साहब की कुछ अन-बन हो गई और उन्होंने उनसे अलग होकर ‘फिल्मिस्तान’ स्टूडियो बना लिया, जिसका पहले ही ज़िक्र किया गया. ‘फिल्मिस्तान’ के बैनर तले फिल्में बनाते हुए और उसके बाद भी मुखर्जी साहब ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए कि उन्हें एक वक्त ‘स्टार मेकर’ का तमग़ा मिल गया. यानी ‘सितारे गढ़ने वाला’. कुछ मिसालें- ‘फिल्मिस्तान’ स्टूडियो की पहली फिल्म थी ‘चल चल रे नौजवान’. इस फिल्म ने अशोक कुमार को फिल्मी दुनिया में बतौर अदाकार स्थापित किया.
इसी तरह ‘तुम सा नहीं देखा’ (1957) जैसी फिल्मों से शम्मी कपूर साहब और ‘मुनीम जी’ (1955) जैसी फिल्मों से देव-आनंद साहब का करियर परवान चढ़ाया. मशहूर अदाकाराओं- आशा पारेख और साधना को फिल्मों की दुनिया में लेकर आने वाले मुखर्जी साहब ही थे. यहां तक कि साधना की ख़ास हेयर स्टाइल, जिसे ‘साधना-कट’ कहा जाता था, वह भी मुखर्जी साहब की वज़ह से ही सामने आई, ऐसा कहा जाता है. मशहूर फिल्म डायरेक्टर नासिर हुसैन को इस हैसियत में लाने, तैयार करने का श्रेय मुखर्जी साहब को जाता है. उन्होंने 1958 में अपना अलग ‘फिल्मालय स्टूडियो’ बनाया. उसके साथ अदाकारी सिखाने वाला एक स्कूल भी खोला. इस स्कूल से संजीव कुमार जैसे अदाकार अदाकारी सीखकर निकले. तो, ऐसा अहम किरदार जिस शख़्स ने दूसरों की ज़िंदगी में अदा किया, वह भला अपने परिवार को कैसे, क्यूं नज़रंदाज़ करता. मुखर्जी साहब ने भी नहीं किया.
मुखर्जी साहब के दो छोटे भाई प्रबोध और सुबोध मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर बने. उनके सबसे बड़े भाई रबींद्रमोहन का फिल्मों से त’अल्लुक़ नहीं रहा लेकिन उनकी पौत्री रानी मुखर्जी फिल्मों की मशहूर अदाकारा हैं. शशधर के साहबज़ादे जॉय मुखर्जी फिल्मी दुनिया के मशहूर अदाकार हुए. उनके दो अन्य बेटे- देब और शोमू मुखर्जी फिल्मों के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर हुए. इनमें देब मुखर्जी के बेटे अयान मुखर्जी मौज़ूदा दौर के जाने-माने डायरेक्टर, प्रोड्यूसर हैं. जबकि शोमू मुखर्जी की बेटियां काजोल (देवगन) और तनीषा अदाकाराएं हैं. इसीलिए कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि फिल्मी दुनिया में जो असर (पृथ्वीराज) कपूर खानदान का होता है, क़रीब वैसा ही शशधर मुखर्जी साहब के ख़ानदान का भी है. बावजूद ये कि आज शशधर मुखर्जी जब भी याद किए जाते हैं, तो इसलिए कि उन्होंने लता जी को ख़ारिज किया. अचरज है न? पर ऐसा होता है कभी-कभी.
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Tags: Birth anniversary, Kajol Devgan, up24x7news.com Hindi Originals, Rani mukerjiFIRST PUBLISHED : September 29, 2022, 07:37 IST