दास्तान-गो : गुरु को सिर पे राखिए चलिए आज्ञा मान…और चलते-चलते वे आशुतोष राना हो गए!
दास्तान-गो : गुरु को सिर पे राखिए चलिए आज्ञा मान…और चलते-चलते वे आशुतोष राना हो गए!
Daastaan-Go ; Ashutosh Rana Birth Anniversary : ...हर साल पूज्य दद्दा कहते थे कि बेटा, इस साल किसी और को लड़वाना है. और करते-करते, करते-करते वो मुझे लास्ट ईयर तक ले के आ गए. तब मैंने कहा- दद्दा, अब तो यूनिवर्सिटी प्रेसिडेंट भी हमारा हो गया है. तो बोले कि नहीं बेटा, दिल्ली में एक नाटक का स्कूल (राष्ट्रीय नाट्य संस्थान) है. तो अब समय आ गया है कि अपने शौक़ को, अपने व्यवसाय में रूपांतरित करना है...ये 1991 में उन्होंने मुझसे कहा. वो जो उन्होंने कहा और फर्स्ट अटेंप्ट में हमारा सिलेक्शन हो गया. वहां से हम 1994 में पासआउट हुए, एनएसडी से, तो दद्दा ने कहा- बेटा, अब तुमको मुंबई जाना है. तो मुंबई चले आए.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दुस्तान में फिल्मों की दुनिया के मशहूर अदाकार हैं आशुतोष राना. वही, जिन्होंने ‘दुश्मन’ (1998) में गोकुल पंडित और ‘संघर्ष’ (1999) में लज्जाशंकर पांडेय जैसे ख़तरनाक मगर यादगार किरदार अदा किए. ऐसे और भी बहुत से असरदार किरदार वे अदा कर चुके हैं, जो लोगों के ज़ेहन में उनकी एक तस्वीर चस्पां करते हैं. लेकिन फिल्मों से अलहदा उनकी शख़्सियत इन किरदारों से एक-दम ज़ुदा है. अस्ल ज़िंदगी में उन्हें लोग एक पारिवारिक शख़्सियत के तौर पर जानते हैं. वे बोलते अच्छा हैं. कविताएं लिखते हैं और किताबें भी. इतने सब के बाद लोगों की उनके बारे में जानने की दिलचस्पी ज़्यादा से ज़्यादा होती जाती है. मगर वे ख़ुद इस पर क्या कहते हैं? ये कि, ‘अगर मेरा सत्य जानना है तो आपको मेरे सामने नहीं, मेरे साथ आना पड़ेगा… आशुतोष को जानने के लिए आपको आशुतोष के अंदर रहना और उसकी यात्रा करनी आवश्यक है’.
तो जनाब, आज 10 नवंबर को उनके जन्मदिन के मौके पर इस दास्तान के लिए आशुतोष जी के साथ हो लेते हैं. कुछ देर उनके अंदर रह लेते हैं. इसी साल जून के महीने में जानी-मानी पत्रकार ऋचा अनिरुद्ध के साथ आशुतोष जी लंबी बातचीत हुई थी. इसमें उन्होंने अपनी ज़िंदगी के कई राज़ खोले. जो पहले से खुले थे, उनकी पुख़्तगी की. सो, उसी बातचीत काे ज़रिए से, उन्हीं की ज़ुबानी, उनके बारे में जानने की कोशिश करते हैं. शुरुआत से शुरू करते हैं, ‘हमारे घर में, गाडरवारा (मध्य प्रदेश में जबलपुर के पास एक क़स्बा) में, श्रावण मास में रोज़ मिट्टी के महादेव बनाए जाते थे. जिन्हें हम पार्थिव शिवलिंग कहते हैं. और उनका अभिषेक किया जाता था. ऐसे ही एक दिन अभिषेक हो रहा था. भगवान राम की तस्वीर सामने रखी थी. हम लोग रुद्राभिषेक कर रहे थे. मैं माता जी की गोद में बैठा था. तो अभिषेक में एक मंत्र आता है- ऊं आशुतोषाय नम:’
‘…तो मैंने उत्सुकतावश पूछा कि इसका मतलब क्या होता है. इस पर पंडित ने कहा कि शंकर जी का नाम है. तब मैंने कहा कि शंकर जी का नाम तो है, पर आप ही लोगों ने बताया है कि भगवान के नाम उनके कामों के आधार रखे गए हैं. तो इसका मतलब क्या है. तब उन्होंने बताया कि ‘आशुतोष’ का मतलब है कि जल्दी से प्रसन्न होने वाला. शीघ्र ही संतुष्ट होने वाला. एक बेलपत्र चढ़ा दो. एक बार उन पर जल डाल दो, वे ख़ुश हो जाते हैं. तब मैंने रामचंद्र जी तस्वीर उठाकर पूछा कि ये हैं वो? तो पंडित जी बोले- नहीं वो ये नहीं, ये हैं (पार्थिव शिवलिंग की तरफ़ इशारा). तो मैंने फिर पूछा- आपने तस्वीर इनकी रखी है, पूजा इनकी कर रहे हैं. तब पंडित जी ने कहा- श्रीराम और महादेव के बीच बड़ा ही सुंदर संबंध है. दोनों ही एक-दूसरे को अपना ईश्वर मानते हैं. इसीलिए. तब मैंने वहीं माता जी से कहा कि मुझे भी अब अपना नाम आशुतोष रखना है’.
‘…और तब से मेरा नाम आशुतोष हो गया. आशुतोष नीखरा. फिर ‘राना’ कैसे जुड़ा, उसका भी एक क़िस्सा है. हमारे परिवार का पूरे इलाके में काफ़ी सम्मान रहा है. लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा रही है हमारे परिवार पर… और मैं जब छोटा था तो मेरे अंदर काफ़ी क़िस्म के अपने उत्साह थे. उजड्ड और उद्दंड. जब ऊर्जा आपके अंदर प्रवाहित होती है और उसे निर्देशन नहीं मिल रहा होता है, दिशा नहीं मिल रही होती है तो फिर वो ऊर्जा ठोकर मारती है. फिर वो कई ऐसे अवांछित कामों को करवाती है, जहां पे आपको ख़ुद तो तृप्ति मिलती है, लेकिन वे अवांछित कार्य अभिनंदनीय नहीं होते. तो जब बड़े होते रहे, मैट्रिक में आए तो एक दिन हमारे बड़े भाई ने हमसे कहा कि तुमको भले लगता है कि तुम्हारे पावर के कारण लोग तुमसे नहीं बोलते हैं. पर ये जो तुम्हारे पीछे ‘नीखरा’ लगा है न, इसके प्रभाव के कारण लोग तुम्हारी ग़लतियों को क्षमा कर देते हैं’.
‘…उन्होंने कहा कि अगर तुमको सचमुच में लगता है, अपने व्यक्तित्त्व के विकास के लिए, तो एक बार इस शब्द (नीखरा) से ज़रा विमुख हो के विचार कर के देखो. मुझे उनकी बात जम गई. और मुझे लगा कि सच बात है. अभी तक संभवत: मैं अपने परिवाार की आभा से प्रकाशित हो रहा हूं. जिसे मैं अपनी आभा समझ रहा हूं. तो एक बड़े गुरु-मंत्र, सूक्ति-वाक्य के तौर पर ये हमारे सामने आया. और हमको लगा कि हां यार, एक ऐसी जगह पे जाना चाहिए, जहां पे आपके परिवार की प्रतिष्ठा, आपके परिवार का प्रभाव, उसका लाभ आपको न मिले. और आप अपने चरित्र का, अपनी क्षमताओं का, अपने प्रकाश का सृजन स्वयं कर सकें. तो हमने 11वीं के बाद अपने उस सरनेम को हटा दिया. ‘राना’ सरनेम मुझे मां ने दिया. क्योंकि हमारे पिताजी का जो नाम है, वो रामनारायण है. तो राम का ‘रा’ और नारायण का ‘ना’ मिलकर राना हो गया. आशुतोष राना’.
इस तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी होते-होते आशुतोष जी अपने उत्साह, अपनी ऊर्जा, अपने प्रभाव, अपनी उत्सुकताओं के साथ, अब अपनी अलग पहचान भी शख़्सियत में जोड़ चुके होते हैं. और यह सब लिए हुए पहुुंचते हैं सागर विश्वविद्यालय. कॉलेज की पढ़ाई के लिए. यहां वे ख़ुद को ‘रॉबिनहुड’ के सांचे में फिट कर लेते हैं. जो ज़रूरतमंद हैं, परेशान हैं, उनकी मदद करते हैं. और जो लोग असरदार हैं, उनसे ‘दबंगई के ज़ोर’ पर काम निकलवाते हैं. अदाकारी का शौक़ बचपन से है. गाडरवारा में रामलीला में हिस्सा लेते रहे हैं. और यहां कॉलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रमों, नाटकों में, युवा महोत्सवों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. मगर अभी तक ये नहीं सोचा है कि अदाकार ही बनना है. बल्कि वे तो सियासत में आने का मंसूबा बांधे बैठे हैं. और ये जो ‘रॉबिनहुड’ जैसी छवि गढ़ने की कोशिश है, वह उसी मंसूबे को पूरा करने की तरफ़ एक क़दम है उनका.
पर तभी आशुतोष जी की ज़िंदगी में ‘गुरु’ का प्रवेश होता है. गृहस्थ संत आचार्य पंडित देवप्रभाकर शास्त्री ‘दद्दा जी’. और यहां से उनकी दशा, दिशा बदल जाती है. वे याद करते हैं, ‘मेरी माता जी का साल 1984 में, जनवरी में, देहावसान हुआ. और एक जुलाई 1984 को मैं परमपूज्य दद्दा जी के पास ले जाया गया. हमारे अंदर तब जितने भी तर्क-वर्क चल रहे थे, उनसे जुड़े सारे सवाल ले के गए हुए थे कि इन सवालों के बारे में बात करेंगे. और इन सवालों के उत्तर, मुझे पता है कि ये निरुत्तर करने वाले हैं. तो जब परमपूज्य दद्दाजी के पास हम गए और मेरे बहनोई साब ने परिचय कराया, और मैं अपने आप को बड़ा विशेष व्यक्ति समझता था कि परमात्मा ने सिर्फ़ मुझे बनाया है, यौवन का जो मद होता है, उस मद में, तो उन्होंने जब मिलवाया कि ये मेरे साले हैं, सागर आए हैं दद्दा और ये चुनाव लड़ना चाहते हैं, फर्स्ट ईयर में हैं. इस तरह उन्होंने परिचय कराया मेरा’.
‘…मगर दद्दा ने मेरी तरफ़ देखा तक नहीं’. इग्नोर करना एक चीज़ होती है. इसमें आपको पता होता है कि सामने वाला इग्नोर कर रहा है. उसमें एक कनेक्टिविटी होती है. लेकिन एक चीज़ और होती है, जिसे आप कहते हैं नॉन एक्ज़िस्टेंस. तो वहां मैं परमपूज्य दद्दा के लिए एक्ज़िस्ट ही नहीं कर रहा था. उस जगत में मैं हूं ही नहीं. तो सबसे पहले मेरे अहंकार पे चोट पड़ी. तो हमने कहा कि अगर मैं इस चैतन्य के लिए एक्ज़िस्ट ही नहीं करता हूं, तो मैं भी दूर जा के बैठ गया. तो मैं उनकी कुटिया की दीवार से दूर टिककर बैठा हूं ओर बहनोई साब चर्चा कर रहे हैं. तो उन्होंने एक घंटे चर्चा करने के बाद कहा- बेटा आदेश है, निकल जाओ. तो उन्होंने भी कहा कि जी दद्दा जो आदेश. उन्होंने साष्टांग दंडवत की. इतने में मैं भी वहीं के वहीं उठा और निकलने लगा. अचानक मेरे कान में मेरा नाम इतने आनंद, आह्लाद और आत्मीयता के साथ उच्चरित हुआ- बेटा, आशुतोष’.
‘…तो मैं पलटा. और अब जो स्थिति थी वो ये थी कि इस संसार में मेरे अलावा कोई और है ही नहीं, दद्दा के लिए… बोले- बेटा, अच्छा हुआ, आ गए. अब बड़े हो रहे हो. और जब हम बड़े होते हैं, तो कई क़िस्म के प्रश्न खड़े होते हैं, भ्रम खड़े होते हैं. और भ्रमों का निवारण हम अपने बुज़ुर्गों के जीवन-चरित्र से करते हैं. तो जब हम भी बड़े हो रहे थे, तो हमारे मन में भी ये प्रश्न आता था कि बताइए, परमात्मा श्रीराम, हम उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं, उन्होंने अपनी गर्भवती पत्नी को जंगल भेज दिया? तो बेटा, बड़ा बेचैन होते थे… अब मैं सनाका खा गया हूं क्योंकि एक सवाल मैंने ये भी लिख के रखा हुआ है… बोले बेटा, जैसे-जैसे हम बड़े हुए, हमको इसका उत्तर मिला. कि अगर यही सवाल बेटा, परमात्मा श्रीराम से राजसभा की जगह राजभवन में पूछा होता तो बेटा, मातेश्वरी के हरण के लिए लंका में जा के रावण का सर्वनाश करने वाले राम उस धोबी को छोड़ देते?’
‘…राम से राजसभा में ये चर्चा हुई, तब राम के मन में प्रश्न खड़ा हो गया कि राजा राम ज़वाब दे या पति राम ज़वाब दे. और राजसभा में पति राम को ज़वाब देने की मर्यादा नहीं है. क्योंकि राजा की मर्यादा ये कहती है कि अगर अपना अहित कर के भी समाज की शंका का समाधान किया जा सकता है, तो राजा का प्रथम कर्त्तव्य है, समाज की शंका का समाधान करना. तो बोले बेटा, जिसने राजा की मर्यादा का पालन किया हो, पति की मर्यादा का पालन किया हो, पुत्र की मर्यादा का पालन किया हो, मित्र की मर्यादा का पालन किया हो, शत्रु की मर्यादा का पालन किया हो, जीवन के तमाम अंगों में जिसने अपने जिस रिश्ते की जो मर्यादा है, उसका पालन किया हो, जो राम ने किया. इसलिए हम उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं. और उन्होंने कहा- बेटा, जाओ इस साल अपन को चुनाव नहीं लड़ना है, अगले साल विचार करेंगे’. अब मैं उनके चरणों में था, साष्टांग’.
‘…हर साल पूज्य दद्दा कहते थे कि बेटा, इस साल किसी और को लड़वाना है. और करते-करते, करते-करते वो मुझे लास्ट ईयर तक ले के आ गए. तब मैंने कहा- दद्दा, अब तो यूनिवर्सिटी प्रेसिडेंट भी हमारा हो गया है. तो बोले कि नहीं बेटा, दिल्ली में एक नाटक का स्कूल (राष्ट्रीय नाट्य संस्थान) है. तो अब समय आ गया है कि अपने शौक़ को, अपने व्यवसाय में रूपांतरित करना है…ये 1991 में उन्होंने मुझसे कहा. वो जो उन्होंने कहा और फर्स्ट अटेंप्ट में हमारा सिलेक्शन हो गया. वहां से हम 1994 में पासआउट हुए, एनएसडी से, तो दद्दा ने कहा- बेटा, अब तुमको मुंबई जाना है. तो मुंबई चले आए. पूज्य दद्दा जी ने ही हमसे कहा था- बेटा, काम छोटा-बड़ा नहीं होता, ध्यान रखना. अवसर छोटे-बड़े नहीं होते, परिणाम उसके विलक्षण होते हैं. तो बड़े परिणाम के लिए हमेशा बड़े अवसरों की तलाश मत करना. परमात्मा बहुत बड़ा है. उसके इशारे छोटे समझ में आते हैं. इसीलिए उसकी कृपा से जो चीज़ तुम्हारे हिस्से में आए, उसे स्वीकार करना. और वही मैंने किया. उन्होंने ही कहा- महेश भट्ट नाम के शख़्स से मिलना है, तो उनसे मिला. इसके बाद जो हुआ, सब सामने है’.
तो जनाब, आशुतोष जी की ज़िंदगी के ये कुछ पहलू थे. ऐसे और बहुत हैं. लेकिन शब्दों की अपनी सांख्य-सीमा है. उसको मानना होता है. लिहाज़ा, बाकी फिर कभी.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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Tags: Ashutosh rana, Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : November 10, 2022, 08:56 IST