जमानत देने में क्यों हिचकते हैं हुजूर CJI चंद्रचूड़ की बात तो मान लीजिए

सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने जमानत को लेकर ट्रॉयल कोर्ट के जजों पर जो टिप्पणी की है, वो बहुत महत्वपूर्ण है. साथ ही इससे भारत के प्रधान न्यायाधीक की ये मंशा भी साफ होती है कि वे नहीं चाहते कि किसी की आजादी पर असर पड़े. फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि देश की जेले विचाराधीन कैदियों से भरी पड़ी है. आखिर क्यों जज हुजूर जमानत देने से हिचकते हैं.

जमानत देने में क्यों हिचकते हैं हुजूर CJI चंद्रचूड़ की बात तो मान लीजिए
‘अपराध हुआ तो फरार हो जाना है.’ ये अपने यहां इतनी आम फहम धारण है कि समाज के साथ फिल्मों कहानियों में भी ऐसा ही दिखाया औ लिखा जाता है. कम सजा के कानून वाला कोई छोटा अपराध हो या बड़ा, हर बार पुलिस आती है और लेकर जेल में डाल देती है. जमानत में छह महीने से साल भर तक का वक्त लग ही जाता है. ट्रॉयल कोर्ट से जमानत के आंकड़े बहुत ही कम हैं. अपीलेंट कोर्ट मतलब हाई कोर्ट या कई सुप्रीम कोर्ट से ही जमानत मिल पाती है. अब तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने भी मान लिया है कि ट्रॉयल कोर्ट जमानत देने के मामले में जो व्यवहार करते हैं उसे ‘सेफ प्ले’ कहा जा सकता है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जो खिलाड़ी सेफ खेल रहा हो, वो किसी तरह का जोखिम नहीं उठाता. न्याय व्यवस्था की दुखती रग और सही कहा जाय तो सीजेआई ने भारतीय न्याय-व्यवस्था की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. किसी भी मामले में अगर पुलिस ने किसी व्यक्ति को पकड़ कर जेल भेज दिया तो फिर हो गया काम. अगर अपराध सिविल जज या फिर न्यायिक मजिस्ट्रेट या एसीजीएम-सीजीएम की अदालत में चला गया तो आरोपी को जल्दी जमानत नहीं मिलने वाली. फौजदारी के मसलों में पुलिस चाहे तो मजिस्ट्रेट से उसे रिमांड पर मांग सकती है. और पुख्ता सुबूत खोजने के नाम पर पुलिस उसे बड़ी सहजता से कुछ और दिनों के लिए अपनी हिरासत में रख सकती है. दिक्कत क्या है जमानत न देने के कारण को भी सीजेआई ने रेखांकित किया है. उन्होंने कहा कि ये दुर्भाग्य है कि निचली अदालतों की ओर से दी गई किसी भी राहत को संदेह के नजरिए से देखा जाता है. कहा जाय कि ये सबसे बड़ी वजह है जमानत न दिए जाने की. ये भी एक बड़ी हकीकत है. जब भी दो पक्षों के किसी मामले में अगर मजिस्ट्रेट की अदालत जमानत दे देते हैं तो विरोधी पक्ष इस बात की शिकायत हाई कोर्ट तक ले जाते हैं. बहुत सारे मसलों में हाई कोर्ट से शिकायत की जांच शुरु करा दी जाती है. इसका सीधा असर न्यायिक मजिस्ट्रेट के करियर पर पड़ता है. हालांकि इसकी एक बड़ी वे वजह ये भी है कि अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था में जुडिशियल मजिस्ट्रेट प्रशासन के हक में काम किया करते थे. और अगर कहा जाय कि वो व्यवस्था बहुत हद तक उसी तरह चल रही है तो बहुत गलत न होगा. जमानत न मिलेने के मामलों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि अभी भी जुडिशियल मजिस्ट्रेट जमानत न देने की सोच के साथ ही सुनवाई करते हैं. अगर आंकड़ों को किनारे भी रख दिया जाय तो भी जिलों की अदालतों से जेल भेजे जाने वालों को देखते हुए इसकी तसदीक की जा सकती है. जानकारों की राय हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील रवींद्र सिंह ये कहते हैं ऐसा नहीं कि सारा दोष निचली अदालतों को ही दिया जाय. उनका कहना है कि इस पूरी व्यवस्था को देखना और समझने की जरुरत है. वे कहते हैं -“निचली अदालतों के जज एलएलबी करने के बाद पीसीएस जे की परीक्षा पास करते ही उन्हें जज बना दिया जाता है. उनकी कोई ट्रेनिंग नहीं होती. उन्हें पूरी ट्रेनिंग देनी होगी.” वे ये भी कहते हैं युवा ऊर्जावान होते हैं. उनकी समझ भी बहुत होती है, लेकिन व्यवस्था को ठीक से समझने के लिए ट्रेनिंग देना जरूरी है. गाइड लाइन बने इसके अलावा वे ये भी कहते हैं कि जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से पूरी गाइड लाइन होनी चाहिए. उस गाइड लाइन की प्रक्रिया का पूरा पालन कराना भी सुनिश्चित कराना चाहिए. अगर गाइड लाइन का पालन होगा तो निचली अदालतों का काम आसान हो सकता है. इसी तरह की गाइड लाइन हाई कोर्ट के लिए भी बनाने की जरुरत है. इससे हर फैसला सुप्रीम कोर्ट तक जाने से रुक सकेगा. वे इस ओर भी ध्यान खींचते हैं कि हाई कोर्ट के फैसले भी अक्सर सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं जहां से उससे उलट फैसले आते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट बार एसोशिएशन के पूर्व अध्यक्ष और ऑल इंडिया बार एसोसिएशन के चेयरमैन आदिश सी अग्रवाल का कहना है कि निचली अदालतें जमानत को लेकर बहुत संवेदनशील हैं, क्योंकि उनके ऊपर सुपरवाइजरी के तौर पर हाई कोर्ट जज होंते हैं. करप्शन के आरोप न लगे इसलिए वे जमानत देने से पहले कई बार सोचते हैं. अगर वे जमानत देने लगते हैं तो ये पर्सेप्शन बना लिया जाता हैं कि भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. इससे उनके करियर भी असर पड़ता है. ये भी पढ़ें : खनिजों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश या राज्यों के लिए खजाने की खान, किन-किन को मिलेगा ज्यादा राजस्व, जानिए विस्तार से हालांकि इसमें कोई शक नहीं है कि अगर निर्धारित प्रक्रिया का पालन कर ट्रॉयल कोर्ट से लोगों को जमानत मिल जाय, तो बहुत सारी समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है. सबसे बड़ी बात कि लोगों को आजाद रहने का हक मिल सकेगा. जो संविधान का अनुच्छेद 21 देता है. जेल में बंद लोगों की संख्या घट सकेगी. हाई कोर्ट में सिर्फ जमानत के लिए जाने वालों की संख्या कम हो सकता है. पुलिस का डंडा और हथकड़ी ये तो न्यायिक प्रक्रिया का मसला हो गया. पुलिस व्यवस्था भी इससे जुड़ी एक महत्वपूर्ण कड़ी है. पहले की सीआरपीसी की धारा 41 और 41 ए व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बारे में पुलिस को दिए गए अधिकारों से जुड़ी है. इसमें सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी आया था. इसके तहत कहा गया है कि गिरफ्तारी में अगर 41 और 41 ए का उल्लंघन किया गया हो तो इसे चुनौती दी जा सकती है. इसके आधार पर जमानत मिल सकती है. इन्हीं नियमों के आधार पर समय समय पर कई राज्यों में पुलिस प्रमुखों ने भी विभाग को निर्देश दे रखा है कि ऐसे अपराध जिनमें अधिकतम सजा 7 साल तक की होती है, उनमें किसी व्यक्ति को बगैर गिरफ्तार किये मामले में अदालत में उपस्थित होना सुनिश्चित करने की बात कहीं गई है. इसमें पुलिस अधिकारी के विवेक की बात कही गई है. ये अलग बात है कि अपने उस विवेक का उपयोग करने में पुलिस अधिकारी भी जोखिम नहीं उठाते. हथकड़ी लगा कर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करना ही उसे भी ठीक लगता है. यानी जोखिम न लेने के कारण ज्यादातर आरोपियों को जेल में बहुत सा समय काटना ही पड़ता है. ( डिसक्लेमर: लेखक पत्रकार हैं और इनकी राय से न्यूज 18 का सहमत होना जरूरी नहीं है.) Tags: Justice DY Chandrachud, OpiFIRST PUBLISHED : July 29, 2024, 16:43 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed