कभी नॉन एसी जिंदगी थी रेलवे के एसी डिब्बे की यात्रा लक्जरी होती रही
कभी नॉन एसी जिंदगी थी रेलवे के एसी डिब्बे की यात्रा लक्जरी होती रही
दो -ढाई दशक में जिदंगी का ढांचा बदल गया है. कभी आराम से प्लेटफार्म की बेंच पर रात काट लेना बहुत आम बात थी. एसी तो ऐसी लक्जरी थी जो गरीब तो छोड़िए मिडिल क्लास के सपने में नहीं आता था. सपनों के सांचे में और बहुत सी चींजे थी लेकिन एसी नहीं. अब ये जरुरत बन गई है. इसके बिना तो हिल स्टेशन तक पर गुजरा नहीं हो पा रहा. पढ़िए गुजरे दौर की यादें.
हाइलाइट्स बदलते वक्त से साथ लक्जरी बढ़ी तो परेशानियां में कई गुना इजाफा हुआ थोड़े वक्त पहले बहुत सारे लोग तमाम लक्जरी के सपने भी नहीं देखते थे
दिल्ली के एक डॉक्टर साहब गर्मी से निजात पाने निकले. जाएंगे कहां. ऐसे मौसम में दिल्ली वाले पहाड़ की ओर जाते हैं. डॉक्टर साहब ने भी उत्तराखंड का रुख किया. पहुंच गए रानीखेत. पहले से गेस्ट हाउस बुक करा रखे थे. ठहरे और आस -पास घूमे. रात में बमय परिवार गर्मी से उबल गए. गेस्ट हाउस वालों से कहा- ‘पंखा तो लगा दो.’ उसने टका सा जवाब दे दिया- “साहब, हमारे यहां पहले कभी पंखे की जरूरत नहीं पड़ी थी, सो हमारे पास है ही नहीं.” जैसे-तैसे रात काटी. एसी में रहने वाले बच्चों की जहमत देख आखिरकार उन्हें दिल्ली लौटना पड़ा. वैसे रानीखेत पीछे रह गया, गर्मियों के सबसे राहत वाले डेस्टीनेशन नैनीताल में तो पहले से ही पंखे बिक रहे हैं. डाक्टर साहब की कहानी का जिक्र ये बताने के लिए किया कि अब पहाड़ों में भी तकरीबन हर जगह पंखे और एसी की जरूरत पड़ने लगी है. जबकि अबसे दो दशक पहले दिल्ली तक में नॉन एसी जिंदगी थी.
बहुत पुरानी बात नहीं है
नब्बे के दशक में खूब याद आता है कि रफी मार्ग पर बनी आईएनएस बिल्डिंग में इस लेखक ने भी बिना एसी-कूलर के काम किया है. बिल्डिंग की ऊपरी मंजिल पर अखबार का दफ्तर था. लू के थपेड़े आते थे. लेकिन झेलने लायक थे या शायद झेल लिए जाते थे. दफ्तर में कूलर था. उससे उमस होती थी. लिहाजा रुखसत कर दिया गया. तकरीब डेढ साल तक वहां आराम से पत्रकारिता चलती रही. ये कोई मेरी ही कहानी नहीं है. उस दौर में दिल्ली की बहुत बड़ी आबादी डग्गमार प्राइवेट या फिर डब्बानुमा डीटीसी की बसों से जा कर नौकरी करती रही.
गुम हुई खुशबू की यादें
बच्चे छुट्टियों में इंडिया गेट पर खेला करते थे. बहुत ज्यादा गर्मी हो जाती तो वोट क्लब पर बहने वाले पानी और फुहारों में खुद को तर कर लेते. छोटे शहरों और कस्बों की जिंदगी तो किसी गुम हुई खुशबू की तरह बस जेहन में बसी है. वहां दो -तीन बजे के बाद के वक्त को तो ढलान का समय मान लिया जाता रहा. साढे़ ग्यारह-बारह बजे से गर्मी की तपिश की रेड लाइट पर खड़ी जिंदगी तेजी से चल पड़ती. यानी गर्मी का लिहाज करना होता तो सिर्फ दो-ढाई घंटे. बाकी दिन किसी को कोई चिंता नहीं होती.
एसी कोच की यात्रा मतलब अमीरी
इस साल तो रेलगाड़ियों में बीमार होने तक की खबरें सुनने को मिलीं. रेलगाड़ियों के एसी कोच में चलना बहुत थोड़े से लोगों के बस की बात थी. बहुत पुरानी बात नहीं है. कहा जा सकता है कि 2000 के पहले जो लोग एसी कोच में आते-जाते थे, वे इसका जिक्र गाहे-बगाहे जरुर कर देते. सुनने वाले इसे अमीरी करार दिया जाता रहा. आम तौर पर लोग स्लीपर क्लास में रिजर्वेशन करा कर ही खुश हो जाते थे. एसी और स्लीपर के किराए में अंतर भी अच्छा खासा था. साधारण नौकरियों वाले लोग स्लीपर क्लास में रिजर्वेशन करता रहे. जबकि पढ़ने-लिखने वाले युवा अनारक्षित क्लास के डब्बों में उछले-कूदते एक डेढ़ हजार किलोमीटर की दूरियां तय करते लेते रहे. बाद में पुलिस ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर साधारण क्लास में चढ़ने वालों की लाइनें लगाना शुरु कर दीं. ताकि अव्यवस्था से बचा जाए.
बिना पंखे वाले स्कूल
स्कूलों में एसी तो दूर कूलर तक किसी-किसी प्रिंसिपल के कमरे में ही होता था. पंखों के डयने नटखट बच्चों के लटकने या फिर अज्ञात कारणों से शीर्षासन करते दिखते थे. बहुत लू होने पर टीचर खिड़किया और दरवाजे बंद कर बच्चों को लू से बचाते थे. अब मध्य वर्ग भी कोशिश करता है कि उसके बच्चों का एडमिशन एसी वाले स्कूल में हो जाए. न सफल होने वाले गार्जियन बिना पंखे वाले स्कूल में तो एडमिशन की सोच भी नहीं पाते.
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पंखे नहीं थे, चकरघिन्नी भी नहीं बने थे
युवाओं और छात्रों की बात हो ही रही है तो याद दिला दूं कि पढ़ने वाले बहुत सारे छात्र बगैर पंखे की पूरी गर्मी काट लेते थे. वो भी गांव-कस्बे में नहीं इलाहाबाद जैसे बड़े शहर में ये देखा गया है. उन दिनों इलाहाबाद हिंदू हॉस्टल की देख-रेख इलाहाबाद विश्वविद्यालय नहीं करता था. छात्र अपने तरीके से उसमें रहते थे. बहुतों के पास पंखे नहीं थे. क्लास करने के बाद मन करता तो किसी पेड़ के नीचे बैठ कर पढ़ाई कर लेते और रात खुले आसमान के नीचे आराम से कट जाती थी. ये हालात किसी एक नहीं बहुत सारे शहरों के थे. दिल्ली आ कर किसी की बरसाती में रह कर पढ़ाई या नौकरी की शुरुआत करने वाले भी मुश्किल से पंखे का जुगाड़ कर पाते थे. फिर भी राजधानी में जिंदगी मजे से चलती थी.
‘हर्ड इम्युनिटी’ का दौर
जिन दिनों लोगों की जिंदगी नॉन एसी हुआ करती थी, उस समय लोग कहीं भी किसी दुकान पर वहां का पानी गटगट करके पी लिया करते थे. किसी को राह में ठंडा पानी पीना होता था तो अट्ठनी या फिर रुपये का एक गिलास पानी, उन ढेलों से पी लेता जो अब शायद कस्बों में दिखते हों. बोतलबंद पानी तो साहब लोगों के लिए ही होता था. वो भी सरकारी खर्च पर. ऐसा भी नहीं था कि पानी से होने वाले रोग आज की तुलना में ज्यादा लोगों को होते थे. दरअसल उनके अंदर एक इम्युनिटी होती थी.
इम्युनिटी का जिक्र आने पर कोराना काल की याद आ जाती है. उस समय भी हर्ड इम्युनिटी की बातें जानकार कर रहे थे. दरअसल, लोगों के अंदर रोगों से लड़ने की कुदरती ताकत है ये. इसके मजबूत होने से आदमी बीमारियों से बच जाता था. ऐसी ही एक मानसिक इम्युनिटी गर्मी को लेकर थी.
जरा सी देर में क्यों लग रहा हीट स्ट्रोक
21वीं सदी शुरू होने तक सभी गाड़ियों में एसी नहीं होते थे. मारुति लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गई थी. लेकिन एसी की सुविधा मारुति के जेन में ही थी. लेकिन ज्यादातर लोग मारुति 800 खरीदते थे. जिसमें एसी के बटन तो होते थे, लेकिन चलने वाला एसी नहीं होता था. अब तो तकरीबन सभी गाड़ियां एसी वाली हो गई हैं. दिल्ली या इस तरह के दूसरे महानगरों की बात की जाए तो उन गाड़ियों से लोग जहां नौकरी करने जाते हैं वहां भी एसी लगा होता है. नौकरीशुदा लोगों ने जैसे तैसे घरों में भी एसी लगवा ही लिया है. लिहाजा वे अब ठंडक में ही रहते हैं. बीच में जहां कहीं गर्मी झेलनी पड़ती है तो हीट स्ट्रोक हो जाना सहज है.
Tags: Life styleFIRST PUBLISHED : June 20, 2024, 19:00 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed