मैं स्कूल जाती थी तो मुझे आसान सवाल से ज्यादा कठिन सवाल अच्छे लगते थे. 10वीं तक पढ़ाई की है. लेकिन, कठिन सवालों को सॉल्व करने में खूब मेहनत करती थी. और जब वे सॉल्व हो जाते थे तो खुशी मिलती थी. आशा वर्कर का काम भी मेरे लिए ऐसा ही रहा है. 2006 में जब काम शुरू किया तो न तो मुझे इसके बारे में बहुत जानकारी थी और न गांव वालों को. लेकिन, आज ऐसा लगता है कि आशा वर्कर हैं तो गांव है. और मेरा नाम तो फोर्ब्स की पावरफुल वूमेन की लिस्ट में आ गया. यह कहना है मातिलता कुल्लू का.
46 साल की मातिलता कहती हैं, “मैं फोर्ब्स मैगजीन के बारे में नहीं जानती थी. अखबार और दूसरी मैगजीन भी रेगुलर बेसिस पर नहीं पढ़ती हूं. कहीं दिख गयी और हेल्थ, महिलाओं या किसी महापुरुष पर कोई स्टोरी दिख गई तो पढ़ लेती हूं. बात में पता चला कि फोर्ब्स दुनिया की बहुत बड़ी मैगजीन है. मुझे खुशी है कि इसमें मेरा नाम छपा. एक आशावर्कर को पावरफुल वूमेन की लिस्ट में शामिल किया गया. इससे आशावर्करों को एक सम्मान और पहचान मिली.”
सुंदरगढ़ जिले के बड़ागांव तहसील से 8 किमी दूर गर्गडबहल गांव में रहने वाली मातिलता ने न्यूज18 हिंदी को बताया कि हमें जो गांव दिया जाता है, उसके हर एक घर में जाकर बात करने, कोई बीमार है तो उसका डेटा कलेक्ट करने, उसका इलाज कराने के लिए 3 महीने का टास्क दिया जाता है. इस तीन महीने को हम दिन और घर के हिसाब से डिवाइड करते हैं और ये टार्गेट लेकर चलते हैं कि तीन महीने में इसे पूरा कर लेंगे. अब तो कोविड है तो कोविड को लेकर भी टेस्ट, आइसोलेशन, वैक्सीन ये सब देखना पड़ता है. नहीं तो पहले सिर्फ टीवी और दूसरे नॉन कम्यूनिकेबल डिसीज के मरीजों को देखना पड़ता है. इसके साथ ही बच्चों और प्रेग्नेंट महिलाओं के टीकों को भी देखना हमारा काम होता है.
2005 में पहली बार आशा वर्कर के बारे में सुना
वह कहती हैं, “2005 में पहली बार मैंने आशा वर्कर के बारे में सुना. सेल्फ हेल्प ग्रुप ने 3 गांव के लोगों को बुलाया. यहां हमें बताया गया कि एक आशा दीदी का सेलेक्शन होगा जो प्रेग्नेंट महिला को हॉस्पिटल ले जाएगी. उसका कमीशन 600 रुपये मिलेगा. इसके लिए हम 5 लोगों ने नॉमिनेशन किया. इसके बाद वोटिंग हुई और सेल्फ हेल्प ग्रुप के लोगों ने वोटिंग की. इसमें मुझे सबसे ज्यादा वोट मिले और मेरा सेलेक्शन हो गया.” मातिलता ने बताया कि मुझे अच्छे से याद है कि उन्होंने कहा था, “आपसे बेहतर सेवा कोई नहीं कर सकेगा, इसलिए आपका सेलेक्शन हुआ है.”
लोग सैंपल देने में घबराते हैं
वह कहती हैं,” बीमारियों की टेस्टिंग के लिए बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए टीबी को ले लीजिए. हम घर-घर जाते हैं. किसी शख्स में सिंपटम देखते हैं तो उन्हें कफ सैंपल के लिए कहते हैं. अब लोग इसे देने से घबराते हैं. किसी को अगर बोलेंगे कि आपका कफ लेना है तो वे बोलते हैं कि मेरा कफ नहीं निकलता है. कई बार उन्हें समझाकर आते हैं और दूसरे दिन जाकर पूछते हैं कि कफ रख दिया है, तो भी वे नहीं रखते हैं. कहते हैं भूल गए हैं.
उन्हें लगता है कि उन्हें टीबी की बीमारी का पता लग गया तो वे कैसे रहेंगे. लोग क्या सोचेंगे. इस वजह से वे टेस्ट ही नहीं कराते हैं. ऐसे में उनकी काउंसिलिंग की जाती है. वे हॉस्पिटल तक जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं. तो उन्हें समझाना होता है कि बीमारी ज्यादा न बढ़े उसके लिए पहले ही आपका टेस्ट हो रहा है ताकि आपका उपचार किया जा सके. कई बार तो गाड़ी-भाड़ा भी खुद देना पड़ता है. इसके बाद लेकर उन्हें सीएचसी ले जाते हैं.”
मरीजों के घऱ लगातार जाना होता है
मातिलता कहती है, “कई बार कफ सैंपल के लिए डिब्बा दे देते हैं. उन्हें कहते हैं कि काम पर जाते समय आप डिब्बे को लेते जाइए. जब भी कफ निकले, डिब्बे में उसे निकाल लीजिए और डिब्बे को बेहतर तरीके से बंद कर दीजिए. टीबी पॉजिटिव आने के बाद मरीजों के पास लगातार जाना पड़ता है. क्योंकि दवाइयों से ज्यादा इसमें खान-पान भी देखना पड़ता है. ये बीमारी कमजोरी से ही होती है. ऐसे में खान-पान बढ़िया नहीं होगा तो ठीक जल्दी नहीं होंगे. इसलिए हम लगातार उनके घर जाते रहते हैं और चेक करते हैं कि वे अच्छे से खा-पी रहे हैं कि नहीं.”
वह उदाहरण देते हुए कहती हैं, “एक बुजुर्ग को टीबी हुआ था. वह चावल में पानी डालकर एक मिर्ची के साथ खाना खाते थे. मैं रेगुलर विजिट में उनके घर पहुंची तो नजर पड़ी. उन्हें समझाया कि 10 रुपये का साग खाओगे तो सेहत बढ़िया हो जाएगी. काउंसिलिंग के बाद उन्होंने ध्यान देना शुरू किया और वह ठीक हुए. एक आदमी तो कह रहा था कि इतने बड़े अस्पताल में भर्ती होने के बाद नहीं ठीक हुआ तो एक टेबलेट से क्या ठीक हो जाऊंगा? ऐसे में उस आदमी को रोज जाकर अपने हाथ से दवाई खिलाते थे. वह दवा खाना नहीं चाहते थे. धीरे-धीरे वह ठीक होने लगे तो उन्हें समझ में आया कि क्या छूट रहा था. उन्होंने. फिर कोर्स पूरा किया और आज पूरी तरह से फिट हैं.”
आशा दीदी का काम है सबको पहचानना
अपनी सुरक्षा को लेकर वह कहती हैं कि सरकार की तरफ से उन्हें मास्क मिलता है. वह मास्क पहनकर ही यह सब काम करती हैं और हाथों की सफाई का विशेष ध्यान रखती हैं. वह कहती हैं, आशा दीदी का एक काम है सबको पहचानना. गांव के सभी लोगों को पहचानना. किसके घर में कौन सी बीमारी है उसे पहचानना. क्योंकि उसके हिसाब से काम करते हैं.
वह कहती हैं, “मैं मैट्रिक (10वीं) पास हूं. पति खेती करते हैं और बकरी रखे हैं. एक बेटी और बेटे हैं जो पढ़ाई करते हैं. दोनों का ग्रेजुएशन पूरा हुआ है. 2006 में जब काम शुरू किया तो बहुत चैलेंज था. गाांव में भी किसी को पता नहीं था कि आशा काम क्या करेगी? हम लोग की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी. सैलरी फिक्स नहीं थी. डिलीवरी के लिए कमीशन मिलता था. वह भी तुरंत नहीं मिलता था. एक-दो महीने में एक बार मिलता था. एक डिलीवरी पर 600 रु. मिलते थे. एनएम हमें लिस्ट दे देते थे. हमें लोगों का घर भी नहीं पता होता था. धूप हो या बारिश हो. साइकिल से उनका घर पूछते-पूछते पहुंचते थे. कई-कई बार उनके घर जाना पड़ता था.”
पहले कोई पानी के लिए भी नहीं पूछता था
मातिलता बताती हैं, “डिलीवरी के लिए भी किसी को लेकर जाते थे तो 4-5 घंटे खड़ा रहना पड़ता था. कोई पानी के लिए भी नहीं पूछता था. इसके साथ-साथ टीकाकरण में भी हमारी ड्यूटी लगने लगी. टीके के लिए पहले 50 रुपये और अब 75 रुपये मिलते हैं. हम लोगों के पास भी उतनी जानकारी नहीं थी. ऐसे में गांव से लौटकर अपने अफसरों से जानकारी लेकर फिर से लोगों को समझाने जाना पड़ता था. ऐसे में एक ही गांव और घर में कई-कई बार जाना पड़ता था. उस समय लगता था कि काम छोड़ दें. इसके बाद धीरे-धीरे ट्रेनिंग मिलने लगी. एनएम लोग हेल्प करने लगे. लोग भी सपोर्ट करने लगे. लोग भी जानने लगे कि आशा दीदी लोगों के द्वारा ये काम होता है. हम लोगों को भी धीरे-धीरे आदत पड़ी.
मैं साइकिल से 3 किमी दूर गांव जाती थी और पूरे गांव में घूम-घूम कर लोगों के घर जाती थी. बच्चों के टीकाकरण और प्रेग्नेंट मां के टीकाकरण का भी काम मिलने लगा. उसमें भी कमीशन मिलने लगा. ये समय के साथ बढ़ता गया और बढ़कर 75 रु. हो गया. ये काम हर महीने फिक्स रहता है. इसके बाद सेक्टर लेवल की मीटिंग होने लगी. लोग अपने एक्सपीरियंस शेयर करने लगे. इसमें मेडिकल स्टाफ, एनएम, आशावर्कर सभी रहते थे. ये उस समय की बात है जब 350 से 400 रुपये महीने मिलते थे. डिलीवरी हुई तो एक डिलीवरी पर 600 रुपये कमीशन मिलता था, जो जुड़ जाता था. अब कंपल्सरी काम भी मिलने लगा. अभी तो हर महीने 4500 रुपये मिलते हैं. इसके साथ ही ओडिशा सरकार ने सिम दिया है, जिसे रिचार्ज सरकार कराती है. इसके अवाला इंटरनेट के लिए 250 रुपये महीने मिलता है.”
शुरुआत के दिनों में लगता था, काम मुश्किल है
वह कहती हैं, “शुरुआत के दिनों में ऐसा लगता था कि काम मुश्किल है. हमें आंगनवाड़ी का काम भी करना पड़ता था. बिना पैसे के करना पड़ता था और वे जबरदस्ती कराते थे. टीकाकरण के लिए दूर-दूर गांव में जाकर उन्हें बुलाकर लाना पड़ता था. अब तो लोग पानी के लिए पूछते हैं उस समय तो पूछते भी नहीं थे. साइकिल से जाती थी. अस्पताल में भी लेबर बेड के पास घंटों रहना पड़ता था. तब बहुत मुश्किल लगता था. धीरे-धीरे सिस्टम भी चेंज हुआ.
हमारे काम का तरीका भी बदला. हमें भी ज्यादा नॉलेज हुई बाद में समझ में आया कि मंदिर, मस्जिद या चर्च जाने से बड़ा काम आशा वर्कर कर रही हैं. जिस फैमिली के लिए काम किया उसका आशीर्वाद मिलता है. अब ब्लॉक के अफसर भी हमारी बात सुनते हैं. प्रॉब्लम सॉल्व करते हैं. जो हमारी सेवा से ठीक हो जाते हैं, वे पूरी जिंदगी हमें याद रखते हैं.”
आशा वर्कर को पहचान दिलाने का लक्ष्य था
फोर्ब्स की लिस्ट को लेकर वह कहती हैं, “मुझे फोर्ब्स के बारे में जानकारी नहीं थी. ऐसे ही एक बार ऑल इंडिया आशा फेडरेशन की जनरल सेक्रेटरी विजय लक्ष्मी जी का कॉल आया. दोस्त की तरह बात करते हुए उन्होंने हमारे बारे में पूरी जानकारी हासिल की. हम कैसे काम करते हैं, क्या करते हैं. सब कुछ. इसके बाद उन्होंने बताया कि ऑल इंडिया लेवल पर एक आशा वर्कर को सेलेक्ट कर रहे हैं और उसके लिए आपका नाम दे रहे हैं.
मेरे दिमाग में ये पहले से था कि आशा वर्कर को पहचान दिलानी है. क्योंकि उनकी वजह से गांवों में बहुत बदलाव आया है. वे बहुत काम करती हैं. आशा दीदी न हों तो शायद गांव बेहतर न हो. इसके बाद लक्ष्मी जी का कॉल आया कि एक मैगजीन के लोग बात करेंगे तो कर लेना. फिर जैसे आप रिकॉर्डिंग कर रहे हैं वैसे ही उन्होंने भी बातचीत रिकॉर्ड की. मैगजीन के लोगों ने बताया कि आपका 20 पॉवरफुल लोगों में नाम आएगा. तो मुझे लगा कि ऐसा ही कुछ होगा. कोई बड़ी बात नहीं है. फिर जब मैगजीन में छपा तो लोकल रिपोर्टर घर आने लगे. उन्होंने जब पूरी चीज बतायी तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि एक ही बार में क्या इतना बड़ा हो गया. इतने लोग मेरे पास आ रहे थे कि मुझे खाने-पीने तक की फुर्सत नहीं मिल रही थी.”
अब डॉक्टर और नर्स हमारी बात सुनते हैं
फोर्ब्स की लिस्ट में नाम आने के बाद लोगों ने बहुत ज्यादा सम्मानित किया. मुझे ही नहीं सभी आशा वर्कर को सम्मान मिलने लगा. सुंदरगढ़ जिले के हेडक्वार्टर में भी अब डॉक्टर और नर्स हमारी बात सुनते हैं. कोई परिवर्तन लाने के लिए कहते हैं तो पहले वे ऑब्जेक्शन करते थे, लेकिन अब नहीं करते हैं. अब वे मोटिवेट करते हैं. ये सब फोर्ब्स की लिस्ट में नाम आने के बाद बदलाव हुआ.
जिंदगी में क्या बदलाव आया के सवाल पर वह कहती हैं, मेरी आर्थिक स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है. मेरी फैमिली मेरे पर ही डिपेंट रहती है. कम पैसे में बहुत कुछ संभालना आसान नहीं है. मैं अब भी काम पर साइकिल से जाती हूं. पूरी मेहनत से काम करती हूं. इस बीच कोविड आ गया. इसमें पहले टेस्टिंग, फिर आइसोलेशन के लिए ड्यूटी लगने लगी. बाद में वैक्सीन के लिए भी ड्यूटी लगने लगी. हम लोग प्रोटेक्शन लेते थे. हाथ सैनिटाइज करते थे. मास्क पहनते थे. डर तो हमने शायद न के बराबर देखा है. कोविड पेशेंट के घर जाकर उनके आसपास के लोगों को जागरूक करते थे. कई बार तो पड़ोसियों का हाथ पकड़कर लाना पड़ता था और टेस्ट कराना पड़ता था.
कोविड के दौरान घर घर जाना पड़ता था
वह बताती हैं, “ये ऐसा समय था जब हमें पानी और खाने की दिक्कत होती थी. हम पेशेंट के लिए बीच में रहते थे. फिर साबुन कभी-कभी मिल जाए तो हाथ धोकर पानी पीते थे. हमें सीजन के साथ बीमारी देखने की आदत है. जैसे बारिश में डेंगू-मलेरिया भी देखना पड़ता है. लेकिन, कोविड का अनुभव नया था. हम लोग घर-घर जाकर सिंपटम देखते थे.” 2021 में उन्हें भी कोरोना हो गया था. लेकिन फिर भी लोगों को हम लोग हौसला देते थे. आइसोलेशन सेंटर में जाते थे और लोगों को मोटिवेट करते थे.
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Tags: Forbes, Health Workers, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : June 17, 2022, 17:50 IST