Women@75: तीन महिलाएं लिख रही हैं नए कश्मीर की इबारत
Women@75: तीन महिलाएं लिख रही हैं नए कश्मीर की इबारत
आज़ाद भारत अपने 75 साल पूरे करने जा रहा है और कोई भी उत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) बगैर महिलाओं के सम्मान के पूरा नहीं होता है. इस श्रृंखला में न्यूज 18 ऐसी महिलाओं (Women Achiever) के जज्बों को सलाम करता है जिन्होंने भारत को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने के लिए तमाम बाधाओं को तोड़ दिया.
हाइलाइट्सआजादी के अमृत महोत्सव में महिलाओं का सम्मान भीन्यूज18 का कश्मीर की महिला अचीवर्स को सलाम नए कश्मीर को बनाने में दे रहीं हैं योगदान
आज़ाद भारत अपने 75 साल पूरे करने जा रहा है और कोई भी उत्सव (Azadi Ka Amrit Mahotsav) बगैर महिलाओं के सम्मान के पूरा नहीं होता है. खासकर उन महिलाओं (Women Achiever) का सम्मान जिन्होंने राष्ट्र को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में महती भूमिका निभाई हो. इस श्रृंखला में न्यूज 18 ऐसी महिलाओं के जज्बों को सलाम करता है जिन्होंने भारत को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने के लिए तमाम बाधाओं को तोड़ दिया.
इस खंड में हम कश्मीर की उत्साही वुशु खिलाड़ी, एक युवा उद्यमी, जिनका सपना है कि वह एक दिन राजनीति में प्रवेश करें और कश्मीर की पहली महिला वक्फ बोर्ड अध्यक्ष से मिलेंगे. यह वह महिलाएं हैं जिन्होंने अपने सपनों को पूरा करने के लिए समर्थन के अभाव को आड़े नहीं आने दिया.
वुशु विश्व स्वर्ण पदक विजेता सादिया तारिक़ स्वभाव से ही निडर हैं. यह उनका निडर स्वभाव ही था जिसने उन्हें इस राह पर चलाया. जब कक्षा तीन में पहली ताइक्वांडो क्लास में वह चोटिल हुईं और उनका होंठ खून से सना हुआ था. लेकिन अपनी शुरुआती तमाम तरह की बाधाओं-विरोधों से पार पाते हुए उन्होंने चीनी मार्शल आर्ट वुशु को अपनाने का फैसला लिया.
वुशु खिलाड़ी बनने में पिता से मिला सहयोग
वह कहती हैं कि मुझे कुश्ती में बहुत दिलचस्पी थी. मेरे नाना जी उसे देखा करते थे, फिर मुझे वुशु से प्यार हुआ और मैंने उसका अभ्यास करने का मन बनाया. वुशु का एक छोटा मुकाबला खेलने के बाद मैं बुरी तरह घायल हो गई थी. लेकिन मुझे यह बात अच्छी लगी कि मैं खेल के दौरान घायल हुई थी. हालांकि जब मैं घर लौटी तो मेरी मां ने तो रोना शुरू कर दिया, उनके साथ साथ मेरे दूसरे रिश्तेदारों ने साफ हिदायत दे दी कि आगे से मैं यह खेल नहीं खेलूंगी. लेकिन मेरा साथ मेरे पिताजी ने दिया उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है आराम से खेलो.
दो बहनों में सादिया छोटी हैं और उनके पिता श्रीनगर में एक वीडियो पत्रकार हैं. तमाम उथल पुथल से निकली इस बच्ची ने देश के लिए अपेक्षाकृत नए खेल में लगातार तीन बार स्वर्ण पदक हासिल करने का गौरव प्राप्त किया है.
वुशु विश्व चैंपियनशिप में जीतने पर पीएम ने दी बधाई
कश्मीर से आने वाली सादिया की उपलब्धियों पर लोगों का ध्यान तब गया जो खुद उसके लिए भी एक बड़ा आश्चर्य था जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच में हुई मास्को वुशु चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने के बाद उन्हें बधाई देते हुए ट्वीट किया था.
हालांकि सादिया का सफर इतना आसान नहीं रहा और उन्हें शुरुआत में असफलताओं का सामना करना पड़ा. 2019 में कोलकाता में अपने पहले मैच ही वह हार गई थीं. लेकिन इस निर्भीक लड़की ने हार नहीं मानने की ठानी. इस पूरे सफर में उनके पिता उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा रहे. वह कहती हैं कि 2020 में, मैंने हरियाणा में खेला और अपना पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया. मैं बहुत खुश थी कि मैंने जीत हासिल कर ली, फिर मुझे अपने पहले अंतरराष्ट्रीय मैच के लिए रूस जाने का मौका मिला, जहां मैंने फिर स्वर्ण पदक जीता.
विदेश में दबाव अपने चरम पर था. खराब सेहत और विश्व स्तरीय खिलाड़ी जो बेहतर सुविधा और प्रशिक्षण पाते हैं, सादिया ने उनके सामने खुद को तैयार किया. यहां सबसे पहली बाधा थी प्रतिस्पर्धियों का कद जिससे उन्हें पार पाना था. वह बताती हैं, ‘चेक प्रतिद्वंद्वी बलिष्ठ और ऊंची थी. मैं उसकी तुलना में बहुत छोटी थी, लेकिन मैं जानती थी कि मुझे यह करना ही है. जब तीन राउंड के बाद जीत के लिए मेरा हाथ ऊपर किया गया तो मैं फूट फूट कर रो पड़ी. तभी मुझे बताया गया कि खुद प्रधानमंत्री ने मेरे लिए ट्वीट किया है, मुझे सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ. मैं वापस होटल जाकर अपने माता-पिता से बात करना चाहती थी.सादिया की जीत उन सैकड़ों कश्मीरी लड़कियों की जीत है जिन्हें समाज की रूढ़िवादी सोच के चलते किसी भी तरह के खेल में भेजना पसंद नहीं किया जाता है.
मां के लिए रिश्तेदारों के तानों से बचाना थी चुनौती
सादिया की मां जिनके लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने बच्चे को रिश्तेदारों के तानों से बचाना था, वह कहती हैं कि लेकिन जब एक बार मेरी बेटी ने अवार्ड जीता, तो कई रिश्तेदार खुद ही चुप हो गए और अब कई लड़कियां खेलना चाहती हैं. वह कहती हैं कि सादिया मुझसे कहती है कि कई रिश्तेदार सामने तो अच्छे बनते हैं लेकिन पीठ पीछे यही कहते हैं कि लड़कियों को खेलने नहीं दिया जाना चाहिए. लेकिन मुझे उनकी परवाह नहीं है क्योंकि मुझे और जीतना है और उनका मुंह बंद करना है. मेरी मां पर भी दबाव तो रहता है लेकिन मेरे माता-पिता का ध्यान इस बात पर रहता है कि मुझे सभी सुविधाएं और अच्छा पोषण मिले.
वुशु खेलते हुए सादिया एक पुलिस अधिकारी बनना चाहती हैं.
प्रशिक्षण के लिए बस से स्टेडियम जाने के दौरान उसे कई लोगों का घूरना और उसके माता-पिता को भी लोगों के ताने सहन करने पड़े. सरकारी मदद की कमी थी, उसके माता-पिता केवल उसके खाने पर ही 1000 रुपये खर्च कर रहे थे. इन सभी बातों ने सादिया के संकल्प को और मजूबत किया कि उसे लोगों को दिखाना है कि वह क्या कर सकती है. चाहे फिर पुलिस अधिकारी बनने की बात हो या फिर वुशु की. यह मेरे लिए, मेरे परिवार के लिए और कश्मीर लिए बहुत ज़रूरी है. और हां मैं आदमियों और लड़कों को यह बताना चाहती हूं कि मैं उनको भी धूल चटा सकती हूं.
इंशा मुज़फ्फर- छोटी शुरुआत से रखे बड़े कदम
श्रीनगर के बर्ज़ुला में इंशा मुज़फ्फर का दफ्तर है. जो पूरी तरह से गहरे गुलाबी रंग में रंगा हुआ है. इस रंग को देखकर इस 23 साल की लड़की की जिंदगी को लेकर रंग के बारे में जो लिंग संबंधी धारणा है वह कायम की जा सकती है. लेकिन ऐसा है नहीं, इस युवती की उद्यमिता का सफर तब शुरू हुआ जब महज 21 साल की उम्र में इन्होंने बैंक से 30 लाख का लोन लेकर अपना काम शुरू किया. इंशा ने एक सैलून के साथ अपने काम की शुरुआत की और अब वह एक सफल डर्मा क्लीनिक और मौलीज नाम का एक कैफे चलाती हैं.
इंशा कहती हैं कि जिस इमारत में, मैं काम करती हूं वह मेरे पिता की है, बस यही मदद थी जो मैंने उनसे ली. ज्यादातर लोगों ने मुझसे कहा कि जोखिम मत उठाओ और आराम से सैलून चलाती रहो. लेकिन मैंने डर्मा क्लीनक खोलने का फैसला कर लिया था और आज मेरे क्लाइंट में नामचीन लोगों के नाम शुमार हैं.
सभी को गलत साबित किया
हालांकि इंशा को हर कदम पर उसके लड़की होने का अहसास कराया जाता रहा. उनका देर तक काम करना, सुबह 9 बजे दफ्तर पहुंचना और रात में 10 बजे तक लौटना. उनके कई रिश्तेदारों को बहुत खटकता था. उनमें से कइयों ने तो उनके चरित्र पर सवाल भी खड़े किए. सैलून खोलने की अनुमति मिलने और बैंक से लोन स्वीकृत हो जाने के बाद उन लोगों ने हैरानी जताई की क्या यह कुछ कर सकती है. लेकिन इंशा ने सभी को गलत साबित कर दिया.
आज उनका आरके स्टूडियो राज्य के सबसे सफल और प्रतिष्ठित सैलून में शुमार है. वहीं उनका कैफे हमेशा युवाओं से गुलजार रहता है औऱ उनके डर्मा क्लीनिक पर आने वाले ग्राहकों में राजनेताओं से लेकर कश्मीर की दूसरी हस्तियों तक लंबी सूची है.
बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ा
इंशा कहती हैं कि जब मैंने काम करना शुरू किया, तब मुझे बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ा. मैं अपने दोस्तों और परिवार को समय नहीं दे पाती थी. अपनी उम्र की लड़कियों की तरह मैं शादी और दूसरे फंक्शन में नहीं जा पाती थी. यही वजह थी कि इंशा ने फिलहाल शादी नहीं करने का फैसला किया है. वह जानती हैं कि वह लंबे समय तक इससे बच नहीं सकती हैं लेकिन अभी उनके सिर पर 60 लाख का कर्ज है. यह युवा लड़की जानती है कि शादी का मतलब काम के वक्त और महत्वाकांक्षाओं को कम करना.और वह अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं.
इंशा का लक्ष्य अभी अपने बिजनेस को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाना है. जिसकी शुरुआत अपना कर्ज चुकाने से हुई है. मैं जानती हूं कि मेरे ससुराल वाले शायद इतना सहयोग देने वाले ना हों ऐसे में मैं अपने सपनों की तिलांजलि नहीं देना चाहती हूं.
किए कई तरह के समझौते
ऐसा नहीं है कि इस 23 साल की युवा उद्यमी को कई तरह के समझौते करने के लिए मजबूर नहीं किया गया हो. उन्हें अपनी निजी जिंदगी को तो छोड़ना ही पड़ा इसके साथ ही वह अपनी पसंद के कपड़े भी नहीं पहन सकती हैं. मैं वेस्टर्न ड्रेस नहीं पहनती हूं बल्कि सलवार कमीज पहनती हूं. पहले मैं जींस पहना करती थी लेकिन मैंने पाया कि सरकारी कर्मचारी या बैंक के लोग मुझे घूरते हैं और गंभीरता से नहीं लेते हैं. लगातार होने वाला यह चरित्र हनन मुझे बहुत परेशान करता है. हम एक छोटी जगह मैं रहते हैं जहां हर एक, एक दूसरे को जानता है. और आपके कपड़ों से आपको लेकर धारणा बना लेता है. मेरे यहां आने वाली कई महिला राजनेता भी मुझे बताती हैं कि उन्हें भी खास तरह के कपड़े पहनने होते हैं. हम वह नहीं हो सकते हैं जो हम होना चाहते हैं.
राजनीति में आने का ख्वाब
महिलाओं से विशेष तरह के कपड़े पहनने की अपेक्षा करना महिला सशक्तिकरण का विरोधाभासी है. शायद तभी इंशा ने अपने दिल में एक ख्वाब सजा रखा है- किसी दिन वह राजनीति में आना चाहती हैं. वह कहती हैं कि असल ताकत तब होती है जब आप राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली हो जाते हैं. मुझे लगता है अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से राजनीतिक स्थिरता आई है. इंशा हंसते हुए कहती है कि मुझे लगता है कि अब पुरुषों को सशक्त बनाने की ज़रूरत है क्योंकि महिलाएं ज्यादा सशक्त हो रही हैं.
आत्मविश्वास से लबरेज इंशा कहती हैं कि जब मैं अकेली होती हूं तो आइने में देखकर, काल्पनिक भीड़ के सामने हाथ हिलाती हूं. मैं किसी दिन नेता बनना चाहती हूं. इंशा कहती हैं कि उनका सपना एक दिन ज़रूर पूरा होगा… इंशाल्लाह.
दरक्षण अंद्राबी- बनाई खुद की पार्टी
दरक्षण अंद्राबी के लिए कॉलेज नेता से लेकर कश्मीर के वक्फ बोर्ड की पहली महिला अध्यक्ष बनने तक का सफर अपने विद्रोहियों, विपक्षियों की अस्वीकृति से भरा रहा है. जब किसी भी दल ने उन्हें स्वीकृति नहीं दी तो उन्होंने सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी के नाम से खुद का दल बनाया. यहां तक कि उनके खुद के परिवार ने उन्हें कभी सहयोग नहीं किया और यह कटुता और दुख कई बार साफ नजर आ जाता है.
वह कहती हैं कि मैंने तिरंगा फहराने के लिए कहा, मैंने अलगाववादियों के विरोध में कहा. यह वह सब बातें थीं जो कोई मानने के लिए तैयार नहीं था. मैं अकेले अपने पैसों के दम पर लड़ी. मुझे लगातार धमकी मिलती रही लेकिन मैंने अपनी राह नहीं छोड़ी. यहां तक कि मेरे माता पिता ने भी मेरा सहयोग नहीं किया.
महिलाओं को लेकर नहीं बदला समाज
अंद्राबी कहती हैं कि वक्त भले ही कितना भी बदल गया हो लेकिन महिलाओं को लेकर हमारे समाज का रवैया वैसा का वैसा ही है. उनको लगता है कि अगर कोई राजनीति में गई है तो ज़रूर उसने किसी तरह का कोई समझौता किया होगा या फिर कुछ ऐसा हुआ होगा जिसने उसे ऐसा करने को मजबूर कर दिया. महबूबा मुफ्ती जैसी महिलाओं के लिए यह आसान होता है क्योंकि उनके पिता मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन मेरी जैसी महिलाएं जिनका ना तो कोई राजनीति में है और ना ही उनका परिवार उनके समर्थन में हो. उनके लिए यह सफर बेहद मुश्किल होता है.
अंद्राबी ने उन बातों को कहने की हिम्मत की है, जिनके बारे में लोगों ने सोचा भी नहीं था. उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन करने का फैसला किया, जो जम्मू-कश्मीर में एक बड़ी पार्टी है. अलगाववादियों को लेकर उनका रुख बेहद सख्त है. यही वजह है कि वह उनके लिए एक आसान लक्ष्य हैं. इसलिए वह श्रीनगर के अत्यधिक संरक्षित तुलसी बाग इलाके में किले जैसे अपार्टमेंट में रहने को मजबूर हैं.
खुद से भी लड़ना पड़ता है
जबकि उनकी पार्टी ने अभी तक राजनीतिक तौर पर कोई खास प्रदर्शन नहीं दिखाया है. वैसे अंद्राबी कभी भी लड़ने और उम्मीदवारों को खड़ा करने से नहीं कतराती हैं. वह अब कश्मीर की पहली महिला वक्फ बोर्ड अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त हुई हैं. इसका भी कई लोग मजाक उड़ा रहे हैं और उन्हें खासतौर पर 370 के निरस्त होने के बाद विचारधारा से समझौता करने वाला मान रहे हैं. वह कहती हैं कि ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब मैंने यह नहीं सोचा कि मुझे यह सब छोड़ देना चाहिए और पार्टी छोड़ देनी चाहिए लेकिन फिर शाम तक मैं खुद को इकट्ठा करती और दोबारा लड़ने का फैसला कर लेती.
अंद्राबी कश्मीर में एक विवादित नेता हैं. वह कहती हैं कि मैं जानती हूं कि यहां ऐसे कई लोग हैं जो मेरी मौजूदगी स्वीकार नहीं कर पाते हैं. उनकी हंसी में छिपी नफरत को मैं जानती हूं लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है. मैं वहीं करती हूं जो मुझे करना है. अपने माता-पिता से नहीं मिलने वाला समर्थन उन्हें परेशान ज़रूर करता है लेकिन वह इसे भी एक चुनौती की तरह ही लेती हैं.
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Tags: Azadi Ka Amrit Mahotsav, Women AchieverFIRST PUBLISHED : July 28, 2022, 19:29 IST