श्रृद्धांजलि : डोमिनिक दा के लिए उदास है सिटी ऑफ जॉय
श्रृद्धांजलि : डोमिनिक दा के लिए उदास है सिटी ऑफ जॉय
91 साल की उम्र में फ्रेंच लेखक डोमिनिक लेपियर का निधन हो गया. भारत से उनका खास लगाव था. घुमक्कड़ प्रवृत्ति वाले लेपियर ने भारत से जुड़ी हुईं 04 किताबें लिखीं. ये शायद उनके भारत से लगाव का ही परिचायक था. वो जितने दोस्ताना थे उतना ही सहृदय और परोपकारी भी.
हाइलाइट्सकोलकाता से फ्रेंच लेखक डोमिनिक लेपियर को था खास लगाव, इस शहर के लिए बहुत कुछ कियालेपियर ने इतिहास से लेकर जीवनी तक दुनिया को एक दर्जन से ज्यादा बेस्टसेलर बुक्स दींउनकी कई किताबों पर फिल्म बनीं, उनके लेखन को पूरी दुनिया में सराहा गया
“फ्रीडम एट मिडनाइट” जैसी हिट किताब लिखने वाले डोमिनिक लेपियर नहीं रहे. 91 साल की उम्र में अपने देश फ्रांस में उन्होंने आखिरी सांसें लीं. लेपियर ने यूं तो एक दर्जन से ज्यादा बेस्ट सेलर किताबें लिखीं. जब वह पहली बार भारत आए. इस देश को देखा तो उन्होंने इसे दिल में ही बसा लिया. उन्होंने भारत से संबंधित 04 किताबें लिखीं. इतनी किताबें उन्होंने किसी देश पर नहीं लिखीं. सभी खूब चर्चा में रहीं. खूब बिकीं. उन्हें अपनी किताबों पर खूब रायल्टी मिलती थी. वो अकेले ऐसे विदेशी लेखक भी थे, जिन्होंने अपनी रायल्टी की बड़ी रकम भारत में चैरिटी में खर्च कर दी.
कोलकाता के लोगों के लिए वो डोमिनिक दा थे. उनके प्यारे डोमिनिक दा. ये शहर वाकई उनके लिए उदास है. कोलकाता के अखबार आज लेपियर को याद कर रहे हैं कि किस तरह उनका ना केवल इस शहर से जुड़ाव रहा बल्कि उन्होंने इस शहर वो नाम दिया, जिससे अब वह पूरी दुनिया में जाना जाता है – “सिटी ऑफ जॉय”.
डोमिनिक बचपन से ही अलग प्रवृति वाले शख्स थे. शायद यात्राएं उनकी जिंदगी का दूसरा हिस्सा थीं. वो मानते थे कि जिंदगी का सबसे असली आनंद यात्राएं और दुनिया देखना है. 06 साल की उम्र से ही वह आटोमोबाइल्स को लेकर क्रेजी हो गए.
डोमिनिक लेपियर का लेखन (न्यूज18 ग्राफिक्स)
उन्होंने कई पुरानी कारें खरीदीं और उसे चलाया. संभालकर रखा. मुंबई में जब आए तो एक रॉल्स रायस के साथ आए और यहां सांता क्रूज से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और तुर्की की यात्राओं पर निकल गए. वह दुनिया के अकेले लेखक थे, जिन्हें सोवियत संघ ने अपने यहां कार से पूरा देश घूमने की अनुमति दी.
उनकी हर यात्रा किताब का रूप लेती थी
सबसे खास बात ये भी थी उनकी हर यात्रा के बाद उनकी एक किताब संस्मरण, इतिहास या नावेल या नान फिक्सन रिसर्च बुक का रूप ले लेती थी. ज्यादातर भारतीयों ने उनकी “फ्रीडम एट मिडनाइट” जरूर पढ़ी होगी, जिसका हिंदी और कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ, ये भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में भी रही. उनकी किताबों को पढ़ते समय हैरानी होती है कि वो कितनी शिद्दत से अपनी किताबों के लिए बारीक से बारीक चीजों की रिसर्च करते थे.
किताब के लिए कितने ही लोगों से मिलते थे और फिर इसे लिखने में डूब जाते थे. उनकी हर कृति बेजोड़ है. यकीनन वो दुनिया के उन लेखकों में थे, जिन्होंने किताबों से बहुत धन रायल्टी के तौर पर कमाया. लेकिन हमेशा सादगी से रहे. रायल्टी से आए पैसे का बड़ा हिस्सा उन्होंने चैरिटी पर खर्च किया, खासकर भारत में तमाम प्रोग्राम्स में.
डोमिनिक लेपियर का लेखन . उन्होंने एक से बढ़कर एक हिट बुक्स दीं. (न्यूज18 ग्राफिक्स)
कोलकाता से प्यार हो गया
उनका जन्म 30 जुलाई 1931 को फ्रांस के चेटेलेइलोन में हुआ. जब वह कोलकाता में अपनी किताब “सिटी ऑफ जॉय” लिखने आए तो वह मदर टेरेसा के नजदीक सहयोगी बन गए, मदर टेरेसा ने उन्हें ये अधिकार दिया कि वह उनकी जिंदगी और उनके संगठन के कामकाज के बारे में लिखें. बाद में सिटी ऑफ जॉय पर जब फिल्म बनी तो इसकी स्क्रिप्ट खुद लेपियर ने लिखी. इस पर उन्हें कई अवार्ड भी मिले.
17 साल की उम्र में जहाज पर भी काम किया
लेपियर ने 17 साल की उम्र में पेरिस छोड़ा. वह एक समुद्री जहाज पर काम करने लगे. उन्हें मेहनताने के तौर पर 30 डॉलर मिलते थे. फिर वह अमेरिका पहुंचे. उन्होंने फिर उत्तर अमेरिका की 30,000 मील की यात्रा की. ये उनका प्रसिद्धी की ओर पहला कदम था. अपने इस एडवेंचर पर उन्होंने बेस्टसेलिंग किताब लिखी, “ए डॉलर फार ए थाउजेंड माइल्स”. इसके बाद तो वो दुनियाभर में घूमते रहे. स्टोरीज तलाशते रहे. उन पर बेस्ट सेलिंग किताबें लिखते रहे. कहा जा सकता है कि वो ऐसे लेखक थे जो दुनिया के हर कोने तक गए.
ये सच बात है कि केवल 30 डॉलर जेब में लेकर डोमिनिक लेपियर फ्रांस से अमेरिका घूमने चले गए. एक ड्राइवर ने उनका सूटकेस चुरा लिया. बाद में पुलिस से पहले ही उन्होंने उसको खोज निकाला. (न्यूज 18 ग्राफिक)
कैसे लैरी कोलिंस के साथ जोड़ी बनी
जब लेपियर 1954 में अपनी फ्रेंच मिलिटरी सर्विस पूरी कर रहे थे तब वह अमेरिकी सैनिक लैरी कोलिंस से मिले. इसके बाद ये दोस्ती दुनिया की अनूठी लेखक जोड़ी बन गई, जिसने एक से बढ़कर एक किताबें लिखीं. जिसमें “पेरिस बर्निंग”, “ओ जेरूशलम”, “फ्रीडम एट मिडनाइट” लिखी, जिनकी लाखों प्रतियां बिकीं, जिनका 30 से ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हुआ. कुल मिलाकर दोनों ने 06 बेस्ट सेलर बुक्स साथ लिखीं.
भारत उनके दिल में खासतौर पर था
1991 मेंं लेपियर ने “बियांड लव” शीर्षक से किताब लिखी, जो एड्स वायरस की खोज की कहानी कहती है. हालांकि बाद में जब वह भारत आए और यहां की यात्रा पर अपनी संस्ममरण बुक “इंडिया मोन एमोर” लिखी तो फिर वो भारत के प्यार में बंध गए. यहां की पृष्ठभूमि पर उन्होंने ना केवल 04 किताबें लिखीं बल्कि ना जाने कितने चैरिटी वर्क से जुड़े. वहां सहायता के लिए हमेशा आगे रहे. भारत से उन्हें प्यार हो गया था. वह फर्राटे से बंगाली बोलते थे.
कोलकाता में मदद के लिए फाउंडेशन बनाया
कहा जा सकता है कि वह लेखक के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता थे. अपनी किताबों के जरिए भी उन्होंने कई बार ये काम किया तो कई बार जमीन से जुड़कर ये सेवा की. उनके अंदर कई खासियतें थीं. उनके प्रति संस्मरण लिखने वाले लिखते हैं कि वो बहुत जल्दी किसी को भी अपना दोस्त बना लेते थे. कोलकाता के नजदीक हावड़ा में एक कुष्ठ रोगियों की बस्ती है पिखाना, उन्होंने यहां के लोगों की बहुत मदद की. उनकी सहायता के लिए सिटी ऑफ जॉय के नाम से फाउंडेशन बनाया. वैसे कोलकाता में उन्होंने बहुत समय गुजारा.
डोमिनिक लेपियर की सबसे हिट लेखकीय जोड़ी कोलिंस से बनीं. कोलिंस के साथ उन्होंने कई हिट और बेस्ट सेलर बुक्स लिखीं. 2005 में कोलिंस की मृत्यु हो गई. (न्यूज 18 ग्राफिक)
“सिटी ऑफ जॉय” से बंगाल में तकरीबन घर घर में लोग उनको जान गए. फ्रांस से उन्होंने इसके लिए आर्थिक मदद जुटाई और इसे इस तरह भारत भेजा और इस्तेमाल किया कि ये भ्रष्टाचार की भेंट ना चढ़ जाए. इसी किताब को लिखने के दौरान वह मदर टेरेसा के संपर्क में आए थे.बाद में लेपियर को वर्ष 2008 में पदम भूषण सम्मान भी दिया गया.
“फ्रीडम एट मिडनाइट” उनकी बेहतरीन किताब
जब आप उनकी “फ्रीडम एट मिडनाइट” पढ़ते हैं तो लगता है कि लेखक ने कैसे हर पहलू को पकड़ा है, जो भी घट रहा था, वो कुछ भी उनसे नहीं छूटा, चाहे वो बंटवारे की त्रासदी हो या तब देश की मानसिक स्थिति, रजवाड़ों का द्वंद या राजनीति की उधेड़बुन और एक नए बनते देश का संघर्ष. ये किताब उन्होंने 70 के दशक की शुरुआत में प्लान की. देशभऱ की यात्राएं कीं. 1975 में छपकर आते ही ये बेस्ट सेलर बन गई. हालांकि इसको लेकर विवाद भी हुआ.
इसके बाद ही 1985 में उन्होंने “सिटी ऑफ जॉय” लिखी, जो कोलकाता की आत्मा को आत्मसात करती है. इस किताब पर फिल्म भी बनी. हालांकि इस फिल्म को बनाते समय आरोप लगे कि फिल्म बनाने वालों की रुचि कोलकाता की गरीबी और बीमारी दिखाने में ज्यादा है. हालांकि फिल्म बनी. इसकी तारीफ भी हुई. इसी फिल्म के बनने या खत्म होने के दौरान उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर सिटी ऑफ जॉय फाउंडेशन बनाया, जिसने कोलकाता में कई तरह से मदद का काम किया.
इस फाउंडेशन के लिए उन्होंने अपनी रायल्टी का पैसा लगाया, लेक्चर देकर धन बटोरा, दान लिया, पाठकों से मदद मांगी. फिर 9000 बच्चों को कुष्ठ औऱ दूसरे रोगों से मुक्त किया. गरीबी से उबरने में मदद की. उनकी पढ़ाई सुनिश्चित करने का काम किया. यही नहीं कम से कम 1200 गांवों में टीबी के मरीजों तक मदद पहुंचाई. गांवों में हैंडपंप लगवाए. महिलाओं को साक्षर किया. यहां उनकी रायल्टी में कमाए गए धन से एक स्कूल खोला गया, जिसका नाम है बोधोत्सव विद्या मंदिर, ये विशुद्ध तौर पर उनकी बिकी किताबों से मिले धन और पाठकों के दान से खोला गया. ये फाउंडेशन लगातार काम कर रहा है.
भोपाल गैस त्रासदी पर किताब के साथ लोगों की मदद भी
फिर जब भोपाल में गैस त्रासदी हुई तो लेपियर ने स्पेन के जेवियर मोरो के साथ मिलकर इस पर किताब लिखी, इस किताब की रायल्टी को भी उन्होंने पीड़ितों की मदद में लगाया. भोपाल में भी उन्होंने बहुत समय गुजारा, जिस तरह कोलकाता के लोग उन्हें प्यार करने लगे थे उसी तरह भोपाल में भी उन्हें गैस पीड़ितों से भरपूर प्यार और लगाव मिला. ये त्रासदी 1984 में हुई. उनकी इस पर किताब 1997 में आई.
इस किताब की रायल्टी भी उन्होंने भोपाल में एनजीओ क्लिनिक को दे दी, जिससे पीड़ितों को मुफ्त ट्रीटमेंट मिल सके. हालांकि इस किताब पर मध्य प्रदेश की तत्कालीन पुलिस प्रमुख स्वराज पुरी ने उनके खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया कि इस किताब से उनकी मानहानि हुई है. तब इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया गया जो बाद में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले के बाद उठा.
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FIRST PUBLISHED : December 06, 2022, 13:07 IST