आपने सेकेंड वर्ल्ड वार की कहानियां खूब पढ़ी होंगी. इस दौरान आपको वियना के बारे में खूब पढ़ने-सुनने को मिला होगा. यह वियना कोई और नहीं बल्कि यूरोप के एक बेहद खूबसूरत देश ऑस्ट्रिया की राजधानी है. यहीं का दो दिवसीय दौरा पूरा कर पीएम नरेंद्र मोदी बुधवार को स्वदेश लौटे हैं. पीएम मोदी के दौरे पर उनका भव्य स्वागत किया गया और भारत के प्रति ऑस्ट्रिया के लगाव को दर्शाने के लिए वहां के एक ऑर्केस्ट्रा ने वंदे मातरम की प्रस्तुति भी दी.
खैर, हम पीएम मोदी के दौरे की बात नहीं कर रहे हैं. बल्कि ऑस्ट्रिया और भारत के खूबसूरत रिश्ते की कहानी बुन रहे हैं. पीएम मोदी से पहले पूर्व पीएम दिवंगत इंदिरा गांधी ने 1983 में ऑस्ट्रिया का दौरा किया था. दरअसल, भारत और ऑस्ट्रिया के रिश्ते की शुरुआत 1950 के दशक में शुरू होती है. दुनिया वर्ल्ड वार के घाव को भरने में लगी थी. भारत सहित तीसरी दुनिया के तमाम देश आजाद हवा में सांस लेने को बेताब थे. लेकिन, ऑस्ट्रिया में कुछ और ही चल रहा था. विश्व युद्ध में जीत हासिल करने वाली अलायड फोर्सेज यानी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने ऑस्ट्रिया पर कब्जा कर लिया था. उसकी सेनाएं ऑस्ट्रिया में तैनात थीं.
लेकिन, दूसरी तरफ वर्ल्ड वार खत्म होने के तुरंत बाद दुनिया फिर से दो गुटों में बंट गई. एक का नेतृत्व सोवियत संघ और दूसरे का नेतृत्व अमेरिका के हाथों में आ गया. शीत युद्ध का दौर शुरू हो गया. ऐसे में ऑस्ट्रिया को अपने अस्तित्व पर संकट दिखने लगा. उस पर एक नए बैटल ग्राउंड बनने का खतरा मंडराने लगा था. उसके यहां एक तरफ सोवियत रूस और दूसरी तरफ अमेरिकी-फ्रांसीसी और ब्रिटिश सेनाएं मोर्चा संभालने लगीं. लेकिन, यह खूबसूरत देश आजाद हवा में सांस लेना चाह रहा था. वह किसी ताकत का पिछलग्गू नहीं बनना चाहता था. उसके तत्कालीन नेतृत्व ने दुनिया को तबाह होते देखा था. वह वैसी तबाही अपने मुल्क में नहीं चाहते थे. लेकिन, उनके पास ताकत नहीं थी. उनकी अपनी एक नन्ही सी दुनिया थी. उससे बाहर की दुनिया में उनकी सुनने वाला कोई नहीं था.
शीत युद्ध का दौर
ये सभी बातें पीएम नरेंद्र मोदी के साथ वार्ता के बाद ऑस्ट्रिया के चांसलर कार्ल नेहमर ने मीडिया से बातचीत में कही है. उन्होंने बताया कि वर्ल्ड वार के खत्म होने तक ऑस्ट्रिया में एक अस्थाई सरकार थी और जंग के बाद वहां अलायड ताकतों का वर्चस्व हो गया. ऐसे में हमारी स्थिति बहुत बुरी हो गई. शीत यु्द्ध का दौर शुरू हो गया और ऐसी स्थित में सोवियत संघ के साथ किसी भी डील पर पहुंचना लगभग असंभव था.
फिर ऑस्ट्रिया के तत्कालीन विदेश मंत्री कार्ल ग्रुबर ने भारतीय पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू पर नजर डाली. उन्होंने पंडित नेहरू से संपर्क किया और 20 जून 1953 में उनसे स्विटजरलैंड में मुलाकात की. उनके जरिये तत्कालीन सोवियत नेता निकिता ख्रुस्चेव को संदेश भेजवाया गया कि ऑस्ट्रिया एक न्यूट्रल राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व चाहता है. लेकिन, उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि उसकी इस बात की गारंटी कौन लेगा. फिर नेहरू ने इस संदेश को मॉस्को में भारत के राजदूत रहे केपीएस मेनन के जरिये ख्रस्चेव प्रशासन तक पहुंचाया. यहां ऑस्ट्रिया ने भारत को भरोसा दिलाया कि वह भविष्य में भी किसी गुट का हिस्सा नहीं होगा यानी वह परमानेंट न्यूट्रेलिटी का पक्षधर है.
इसके बाद नेहरू के प्रयासों से 1955 में सोवियत संघ, अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक समझौता हुआ. ऑस्ट्रिया एक न्यूट्रल स्वतंत्र देश बनकर उभरा. उसकी न्यूट्रैलिटी आज भी कायम है. नेहरू की इस कोशिश की पूरी दुनिया में सराहना हुई. उस वक्त तमाम कूटनीतिक संदेशों में इसका जिक्र हुआ. यह देश यूरोप में है लेकिन वह नाटो का सदस्य नहीं है. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच इस देश से दुनिया को बड़ी उम्मीद है. अगर रूस-यूक्रेन में किसी भी वार्ता की संभावना बनती है तो ऑस्ट्रिया का नाम सबसे ऊपर आएगा. क्योंकि बीते करीब सात दशकों में इस देश ने अपनी न्यूट्रेलिटी की नीति को कायम रखा है.
Tags: European union, India russia, Jawahar Lal NehruFIRST PUBLISHED : July 11, 2024, 15:44 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed