जम्मू कश्मीर: क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस पर भारी पड़ रही शेख अब्दुल्ला की गलती

Jammu Kashmir Chunav: जम्‍मू-कश्‍मीर में 10 साल के बाद विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इस बार के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के साथ ही नेशनल कॉन्‍फ्रेंस भी बड़ा प्‍लेयर है. पिछले कई चुनावों से शेख अब्‍दुल्‍ला की गठित नेशनल कॉन्‍फ्रेंस के राजनीतिक रसूख में कमी देखी गई है, ऐसे में इस बार का चुनाव में पार्टी के परफॉर्मेंस पर सबकी नजरें टिकी होंगी.

जम्मू कश्मीर: क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस पर भारी पड़ रही शेख अब्दुल्ला की गलती
नई दिल्‍ली. जम्मू कश्मीर में पहले चरण की वोटिंग हो चुकी है. इस बार के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की दिलचस्पी इस बात को लेकर ज्यादा है कि भाजपा वहां कैसा प्रदर्शन करती है? इसकी दो मुख्य वजह है. एक तो केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा धारा 370 निरस्त किए जाने के बाद यह पहला चुनाव है. दूसरी वजह यह भी है कि भाजपा राज्य में लगातार अपना चुनावी प्रदर्शन बेहतर करती रही है. साल 1983 में जम्मू कश्मीर में तीन प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा ने 2014 में 23 फीसदी वोट पाए थे. इस चुनाव में देखने वाली एक और बात यह होगी कि नेशनल कॉन्फ्रेंस का क्या होता है? यह चुनाव मैदान में उतरी पार्टियों में से कांग्रेस के बाद सबसे पुरानी पार्टी है. पर, इस चुनाव में अब्दुल्ला खानदान की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस जिस कमजोर स्थिति में लड़ रही है, वह उसकी पुरानी ताकत खोने का साफ असर बयान करता है. यह पार्टी बनाने वाले शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक शख्सियतों में से एक थे, लेकिन उनकी राजनीतिक ताकत लगातार कम होती गई. एक समय (1962 में) विधानसभा की 93 फीसदी सीटों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस का कब्जा था, जो साल 2014 में 17 फीसदी पर आ गया था. बाप के बाद बेटा और फिर पोता… शेख अब्दुल्ला शेर-ए-कश्मीर कहे जाते थे. उन्होंने साल 1920 के दशक में राजनीति शुरू की थी. कई उतार-चढ़ाव के बावजूद उन्होंने कश्मीर को लगभग हमेशा अपनी मजबूत पकड़ में रखा, लेकिन बेटे को विरासत सौंपने के बाद वह जलवा कायम नहीं रह सका. असल में उन्होंने बेटे की मर्जी के खिलाफ उनपर पार्टी की विरासत थोपी थी. अपना सारा राजनीतिक काम करवाने वाले दामाद की भी अनदेखी कर दी थी. अंतिम दिनों में वह छह साल का निर्वासन झेलने के बाद साल 1975 में एक बार फिर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने थे. इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ दिल्ली समझौते पर दस्तखत करना पड़ा था. वह चाहते थे कि अपनी राजनीतिक विरासत बड़े बेटे फ़रूक को सौंप दें, लेकिन बेटा इसके लिए तैयार नहीं था. जम्मू कश्मीर में 1983 से 2014 तक के विधानसभा चुनावों में BJP को मिले वोट का प्रतिशत 1983: 3.15% 1987: 5.1% 1996: 12.13% 2002: 8.57% 2008: 12.45% 2014: 22.98% शेख अब्‍दुल्‍ला की राजनीतिक विरासत शेख अब्दुल्ला के पाँच बच्चे थे. सबसे बड़ा बेटा फ़रूक अब्दुल्ला. दो और बेटे- शेख मुस्तफा कमाल और तारिक अब्दुल्ला और बेटियां खालिदा व सुरैया. पांचों में सबसे बड़ी खालिदा थीं. फ़रूक साल 1965 में डॉक्टरी करने लंदन चले गए थे. वहीं, एक ब्रिटिश लड़की से शादी करके ब्रिटिश नागरिकता ले ली थी. लेकिन, साल 1975 में पारिवारिक कारणों से उन्हें कश्मीर लौटना पड़ा. शेख अब्दुल्ला का सारा राजनीतिक काम उनके दामाद (खालिदा के पति) देखा करते थे. पर वह चाहते थे कि उनकी राजनीतिक विरासत बड़ा बेटा फारूक संभाले. इसके लिए उन्होंने बेटे को मनाया. अश्वनी भटनागर और आरसी गंजू कि किताब ‘फारूक ऑफ कश्मीर’ के अनुसार शेख अब्दुल्ला ने फ़रूक से कहा कि आप अस्पताल चलाकर देश की मदद कर सकते हैं, लेकिन राजनीति में किसी भी पेशे से ज्यादा ग्लैमर है. शेख अब्दुल्ला ने साल 1980 में फ़रूक अब्दुल्ला को श्रीनगर लोकसभा सीट से उम्मीदवार भी बना दिया. दामाद की अधूरी ख्‍वाहिश अगले साल तक शेख साहब की उम्र 75 साल हो गई थी और वह बीमार भी रहने लगे थे. 21 अगस्त 1981 को उन्होंने बड़े जलसे में काफी भावुक तरीके से और बड़ी जनसभा में तकरीर के साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस की कमान फ़रूक अब्दुल्ला को सौंप दी. 50 साल खुद पार्टी चलाने के बाद बड़े गर्व से शेख अब्दुल्ला ने बेटे फारूक को नेशनल कॉन्फ्रेंस का अध्यक्ष बना दिया. दामाद जीएम शाह की दावेदारी भी धरी की धरी रह गई. ढलान पर ही उतरती गई नेशनल कॉन्फ्रेंस 44 साल के फारूक ने साफ कर दिया कि उनका ज़ोर युवाओं को आगे बढ़ाने पर होगा. हालांकि, पार्टी के लिए वह कुछ खास नहीं कर पाए. साल 1983 में हुए विधानसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस का वोट शेयर 1977 की तुलना में मात्र एक प्रतिशत बढ़ा (46 से 47). सीट शेयर तो एक प्रतिशत कम (62 से 61) ही रहा. उसके बाद से भी लगातार पार्टी का वोट शेयर कम ही होता गया. साल 1996 में सीट शेयर जरूर 66 फीसदी रहा, लेकिन इस एक अपवाद को छोड़ कर सीट शेयर भी ढलान पर ही रहा. इस बीच उन्होंने कुछ समय के लिए बेटे उमर अब्दुल्ला को भी पार्टी सौंपी, लेकिन फिर कमान अपने ही हाथ में ले ली. एक बात यह भी है कि उसके बाद के वर्षों में जम्मू कश्मीर के हालात और वहां की राजनीति में कई उतार-चढ़ाव आए. इस दौरान राज्य ने आतंकवाद का दर्द झेला और भाजपा और पीडीपी जैसी दो अहम पार्टियां भी राजनीति में आईं. इस लिहाज से नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए स्थिति चुनौतीपूर्ण रही. इस चुनौती का सामना करने में अब्दुल्ला सफल नहीं माने जा सकते, कम से कम चुनावी राजनीति के लिहाज से तो नहीं. और, न ही पार्टी में कोई मजबूत नेतृत्व खड़ा करने के मामले में. दिल्ली से 700 किमी दूर कश्मीर में हो रहा चुनाव, मगर राजधानी में डाले जा रहे वोट, क्यों? चुनाव बाद भी केंद्र के हाथों में ताकत इस चुनाव के नतीजों के बाद भी जम्मू-कश्मीर एक नए बदलाव का ही गवाह बनेगा. इस चुनाव से पहले साल 2014 में आखिरी बार चुनाव हुआ था. तब तक अनुच्‍छेद 370 के चलते कुछ मामलों (रक्षा, विदेश, संचार आदि) को छोड़ कर राज्य स्वतंत्र था. साल 2019 में धारा 370 रद्द कर दी गई. अब केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकार के पास पहले जैसे अधिकार नहीं होंगे. जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 32 के प्रावधान के मुताबिक ‘पब्लिक ऑर्डर’ और ‘पुलिस’ से जुड़े कानून बनाने का अधिकार विधानसभा के पास नहीं होगा. इनके अलावा नौकरशाही और एंटी करप्शन ब्यूरो भी एलजी के नियंत्रण में रहेंगे. साथ ही, ऐसे विषय जो केंद्र और राज्य दोनों के अंतर्गत आते हैं, उनपर विधानसभा द्वारा बनाया गया कानून केंद्र के कानून का विरोधाभासी नहीं हो सकता. साथ ही धारा 36 के प्रावधानों के मुताबिक वित्तीय मामलों से जुड़े कानून बनाने में भी विधानसभा के अधिकार सीमित कर दिए गए हैं. बदले माहौल में हो रहा चुनाव दस साल बाद हो रहे इस चुनाव में भी जम्मू कश्मीर की हैसियत बदली हुई है. वह एक राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बन गया है. और, लद्दाख उससे अलग केंद्र शासित प्रदेश है. अनुच्‍छेद 370 हटाए जाने के बाद यह पहला चुनाव है. ऐसे माहौल में जम्मू कश्मीर का पूरा चुनाव नए मुद्दों पर, नए हालत के बीच हो रहा है. राज्य में समाजवादी पार्टी एक बार फिर किस्मत आजमा रही है. कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनाने वाले गुलाम नबी आजाद, भले ही आधे मन से, पर चुनाव मैदान में उतरे हुए हैं. हालांकि, ये सब कोई बड़े खिलाड़ी तो नहीं हैं, लिहाजा एक शेर के जिंदा होने या नया शेर के आने कि कहानी ही बनेगा यह चुनाव. Tags: Farooq Abdullah, Jammu Kashmir Election, Jammu kashmir election 2024, National NewsFIRST PUBLISHED : September 18, 2024, 18:34 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed