क्या संघ प्रमुख गोलवलकर ने कश्मीर के महाराजा को भारत में विलय के लिए राजी किया

कश्मीर चुनावों के दौरान अक्सर इस राज्य के विलय की स्थितियों पर भी बहस शुरू हो जाती है. कुछ समय पहले यूपीए राज के आला नौकरशाह अरुण भटनागर की किताब इस मामले में खूब चर्चित हुई

क्या संघ प्रमुख गोलवलकर ने कश्मीर के महाराजा को भारत में विलय के लिए राजी किया
हाइलाइट्स मेहरचंद ने अपनी किताब में लिखा क्यों नेहरू और महाराजा के संबंधों में था तनाव सरदार पटेल की महाराजा को विलय के लिए राजी करने में क्या भूमिका थी क्या सरदार पटेल के कहने पर ही गुरु गोलवलकर महाराजा से मिलने गए थे जम्मू-कश्मीर में चुनाव हो रहे हैं. इस बार यहां चुनावों में महाराजा हरिसिंह के नाम की चर्चा आमतौर पर नदारद है. उनका कोई पोता भी इस बार चुनाव मैदान में नहीं है. अलबत्ता आर्टिकल 370 का जिक्र भाषणों में जरूर है. इसे खत्म किया जा चुका है. सबसे बड़ी बात है कि जम्मू – कश्मीर अब ना तो पूर्ण राज्य रहा और ना ही विशेष दर्जे वाला राज्य. हालांकि ये सवाल अब भी उठता है कि आखिर महाराजा कश्मीर हरिसिंह क्या करना चाहते थे. वह किधर जाना चाहते थे. तथ्य ये है कि वह हमेशा चाहते थे कि उनका राज्य भारत में शामिल हो जाए. उन्होंने पाकिस्तान के उन कई प्रयासों को ठुकरा दिया, जिनमें उन्हें पाकिस्तान का हिस्सा बनने या भारत का हिस्सा नहीं बनने के लिए मजबूर किया गया. पटेल की सलाह पर मेहरचंद बने थे कश्मीर के प्रधानमंत्री  न्यायमूर्ति मेहर चंद महाजन, जिन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के अनुरोध पर 15 अक्टूबर 1947 को जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री का पद संभाला था, उन्होंने अपनी आत्मकथा, लुकिंग बैक में महाराजा की देशभक्ति और भारत समर्थक भावनाओं को याद किया है. संयोग से, महाजन को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त होने के लिए तत्कालीन पंजाब उच्च न्यायालय से आठ महीने की छुट्टी दी गई थी. बाद में वह भारत के मुख्य न्यायाधीश बने.महाजन ने लुकिंग बैक में लिखा, “मेरे प्रधानमंत्री बनने से पहले, मोहम्मद अली जिन्ना ने तीन बार श्रीनगर आने और वहां रहने का प्रयास किया, जाहिर तौर पर स्वास्थ्य कारणों से.” महाराजा हरिसिंह को जिन्ना ने खत भिजवाया कि वो श्रीनगर आकर रहना चाहते हैं लेकिन महाराजा ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. (फाइल फोटो) जिन्ना कश्मीर आना चाहते थे किताब में लिखा है, “उन्होंने अपने अंग्रेज सैन्य सचिव से महाराजा हरिसिंह के पास दो बार निजी पत्र भेजवाया. अनुरोध किया कि उनके चिकित्सकों की सलाह के अनुसार उन्हें घाटी का दौरा करने की अनुमति दी जानी चाहिए. वह एक निजी नागरिक के रूप में आने और अपने रहने की व्यवस्था खुद करने को तैयार थे.” महाराजा ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया न्यायमूर्ति महाजन ने लिखा, “महाराजा को संदेह था कि श्रीनगर की उनकी यात्रा का उद्देश्य उन्हें मजबूर करना था ताकि कश्मीर का पाकिस्तान में विलय सुनिश्चित हो सके, राज्य पर कब्जा किया जा सके और कश्मीर सहित पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के रूप में वहां ईद मनाई जा सके.” “महाराजा ने इस तथ्य पर जोर दिया गया कि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल होने के नाते वे राज्य का दौरा तभी कर सकते हैं, जब पड़ोसी राज्य के प्रमुख के रूप में उनकी स्थिति के अनुसार राज्य सरकार द्वारा उनके ठहरने की उचित व्यवस्था की जा सके और उचित सुरक्षा व्यवस्था संभव हो. महाराजा ने तब कहा था कि ऐसी परिस्थितियों में उन्हें राज्य में आमंत्रित करने की स्थिति में सक्षम नहीं हैं.” कश्मीर के महाराजा हरिसिंह को शेख अब्दुल्ला की नेहरू से नजदीकी पसंद नहीं थी. उन्हें लगता था कि शेख अब्दुल्ला की वजह से नेहरू के साथ उनके संबंधों में तनाव रहता है. (फेसबुक) क्यों महाराजा राजी नहीं हुए महाजन के अनुसार, “यदि महाराजा ने अनुरोध अस्वीकार नहीं किया होता, तो जिन्ना किसी न किसी तरह कश्मीर में ऐसी स्थिति पैदा कर देते, जिससे उसका पाकिस्तान में विलय हो जाता.” कैसे जिन्ना महाराजा को लुभाने की कोशिश में लगे थे उन्होंने किताब में लिखा, “श्री जिन्ना ने खुलेतौर पर घोषणा की थी कि कानूनी तौर पर विलय का सवाल पूरी तरह से शासक की पसंद पर निर्भर करता है. राज्य के लोगों को उनकी पसंद पर सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है.” “महाराजा को लगातार बताया जा रहा था कि वह एक स्वतंत्र संप्रभु हैं, उन्हें राज्य के विलय के मामले में किसी से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं है… पाकिस्तान में विलय के बाद भी वह राज्य के पूर्ण शासक बने रह सकते हैं.” क्यों नेहरू और महाराजा में संबंध अच्छे नहीं थे न्यायमूर्ति महाजन ने शेख अब्दुल्ला के बारे में भी दिलचस्प टिप्पणी की, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का करीबी माना जाता था. किताब में लिखा गया है कि अगर नेहरू और महाराजा हरि सिंह के बीच संबंध तनावपूर्ण हो चले थे तो उसकी मुख्य वजह शेख अब्दुल्ला थे. “…शेख अब्दुल्ला को पहली बार ध्यान से देखने पर मुझे लगा कि वह किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं. सत्ता हासिल करने के लिए वह अपने मित्र और भारत के प्रधानमंत्री को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे…” यही हुआ भी. जम्मू-कश्मीर प्रशासन की बागडोर शेख अब्दुल्ला को सौंपने पर नेहरू का जोर महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने में देरी करने के प्रमुख कारणों में एक था. गुरु गोलवलकर फ्लाइट पकड़कर दिल्ली से श्रीनगर पहुंचे. वहां वह महाराजा से मिले और विलय के लिए उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की. (विकी कामंस) गोलवलकर की भूमिका यह भी कहा जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर, जिन्हें ‘गुरुजी’ के नाम से जाना जाता था. उन्होंने महाराजा को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए राजी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. गोलवलकर और महाराजा के बीच बैठक हुई गोलवलकर 17 अक्टूबर 1947 को दिल्ली से हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंचे. उनके और महाराजा हरि सिंह के बीच बैठक 18 अक्टूबर की सुबह हुई, जब गुरुजी ने महाराजा को बिना किसी देरी के अपने राज्य को भारत में एकीकृत करने के लिए राजी कर लिया. आला नौकरशाह ने किताब में क्या लिखा यूपीए शासन के दौरान सोनिया गांधी के करीबी सहयोगी और पूर्व नौकरशाह अरुण भटनागर ने भी अपनी किताब इंडिया: शेडिंग द पास्ट, एम्ब्रेसिंग द फ्यूचर, 1906-2017 में इस घटना का जिक्र किया है. 1966 बैच के आईएएस अधिकारी भटनागर ने लिखा है कि सरदार पटेल द्वारा इस मामले को उठाने के आग्रह के बाद गुरुजी महाराजा हरि सिंह से मिलने गये थे. उस समय आरएसएस के जम्मू-कश्मीर और पंजाब के प्रांत प्रचारक रहे माधवराव मुले ने भी अपनी पुस्तक “श्री गुरुजी समग्र दर्शन” में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है. महाराजा के फैसला लेने में काफी देर पर भी सवाल हालांकि इसका दूसरा पक्ष ये भी है  कि महाराजा चाहते थे कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच आजाद देश बना रहे. वो किसी भी ओर विलय नहीं करे. इस तथ्य को कहते हुए भी कई किताबें लिखी जा चुकी हैं. इसी वजह से जब 15 अगस्त तक ज्यादातर भारतीय रियासतों के राजाओं ने भारत में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, तो कश्मीर इससे अलग था. जब भारत में तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन इस मामले में खुद कश्मीर के महाराजा से मिलने कश्मीर गए तो बीमारी का बहाना बनाकर कश्मीर के महाराजा ने उनसे मिलने से मना कर दिया. लेपियर कौलिंस की किताब “फ्रीडम एट मिडनाइट” में साफतौर पर महाराजा पर तोहमत मढ़ी कि अगर महाराजा ने फैसला लेने में इतनी ज्यादा देर नहीं की होती तो कश्मीर में हालात इस कदर नहीं बिगड़ते. Tags: Jaamu kashmir, Jammu Kashmir Election, Jammu kashmir election 2024, Jammu kashmir newsFIRST PUBLISHED : September 11, 2024, 22:07 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed