आरक्षण कश्मीर सहित कई मुद्दों पर मतभेद लेकिन नेहरू करते थे आंबेडकर का सम्मान
आरक्षण कश्मीर सहित कई मुद्दों पर मतभेद लेकिन नेहरू करते थे आंबेडकर का सम्मान
Nehru-Ambedkar Relationship: राज्यसभा में संविधान के 75 साल पूरे होने पर हुई चर्चा में कई मुद्दे उछले. उसमें डॉ. बीआर आंबेडकर का कौन कितना सम्मान करता है यह तो मुख्य था ही. लेकिन वाद-विवाद में आंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू के खराब रिश्तों की भी बात हुई. दोनों के बीच कैसे थे रिश्ते इसी की पड़ताल करती पेश है ये रिपोर्ट
Nehru-Ambedkar Relationship: संविधान के 75 साल पूरे होने पर हफ्ते की शुरुआत में राज्यसभा में दो दिवसीय चर्चा हो रही थी. इसके समापन पर अपने संबोधन में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने डॉ. भीमराव आंबेडकर को लेकर कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा. अमित शाह ने कहा, “अभी एक फैशन हो गया है- आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर. इतना नाम अगर भगवान का लेते तो स्वर्ग मिल जाता.” कांग्रेस ने अमित शाह की आंबेडकर के बारे में टिप्पणी के लिए उनसे माफी की मांग की. विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि अमित शाह की यह टिप्पणी दर्शाती है कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के नेताओं में डॉ. बीआर आंबेडकर को लेकर नफरत भरी हुई है.
कांग्रेस को लेकर क्या बोले अमित शाह
अमित शाह ने कांग्रेस और डॉ. बीआर आंबेडकर के संबंधों को लेकर कहा कि ये वही लोग हैं कि जिन्होंने जीवन भर बाबा साहेब का अपमान किया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस और उसके बड़े नेताओं ने न केवल आंबेडकर के सिद्धांतों को दरकिनार किया, बल्कि सत्ता में रहते हुए बाबा साहेब को भारत रत्न नहीं मिलने दिया. आरक्षण के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाईं, वे लोग आज बाबा साहेब के नाम पर भ्रांति फैलाना चाहते हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ किस तरह के रिश्ते थे.
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नेहरू ने बनाया था कानून मंत्री
इसके लिए आपको इतिहास के पन्ने खंगालने होंगे. भारत के आजाद होने से कुछ सप्ताह पहले, जवाहरलाल नेहरू ने आंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में अपने नए मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. मंत्रिमंडल के अधिकांश अन्य सदस्यों के विपरीत, आंबेडकर कांग्रेस पार्टी का हिस्सा नहीं थे. न ही आंबेडकर, नेहरू और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य वरिष्ठ नेताओं के मूल्यों को साझा करते थे. आंबेडकर इस विभाग के लिए नेहरू की पसंद बिल्कुल नहीं थे. लेकिन महात्मा गांधी मानते थे कि यह देश का मामला है इसलिए राजनीतिक झुकाव वाले अन्य लोगों को भी सरकार चलाने में सहयोग करने के लिए कहा जाना चाहिए, खासकर आंबेडकर को.
आंबेडकर-कांग्रेस का रिश्ता था उतार-चढ़ाव भरा
पहले मंत्रिमंडल का हिस्सा होने के बावजूद, आंबेडकर का कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं के साथ रिश्ता काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. गांधी के साथ आंबेडकर के विवादास्पद संबंधों के बारे में काफी कुछ लिखा गया है. इसके विपरीत, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनके संबंधों के बारे में बहुत कम जानकारी है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने तो यहां तक आरोप लगाया, “नेहरू-आंबेडकर के रिश्ते को गुमनामी में डाल दिया गया है. इस बारे में कोई प्रामाणिक किताब नहीं है, और न ही, मेरी जानकारी के अनुसार, कोई अच्छा विद्वत्तापूर्ण लेख है.”
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नेहरू के मन में था आंबेडकर के लिए सम्मान
नेहरू और आंबेडकर विचारधारा के मामले में बहुत अलग नहीं थे, लेकिन उनके इम्पीमेंटेशन के बारे में उनके विचार काफी अलग थे. खासकर जाति आरक्षण, हिंदू कानून के संहिताकरण और विदेश नीति पर उनके विचार अलग थे. कश्मीर भी एक ऐसा मुद्दा था जिस पर आधुनिक भारत के इन दो बड़े नेताओं के बीच काफी मतभेद थे. हालांकि, नेहरू आंबेडकर के प्रति गहरा सम्मान रखते थे. 1956 में उनकी मृत्यु के बारे में सुनने के बाद, नेहरू ने एक श्रद्धांजलि लिखी थी. जिसमें कहा गया कि आंबेडकर “भारतीय राजनीति में एक बहुत ही विवादास्पद व्यक्ति थे, लेकिन उनकी विद्धता के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता है.”
अलग- अलग पृष्ठभूमि से आए थे दोनों
नेहरू और आंबेडकर दो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए थे. नेहरू का जन्म एक उच्च वर्गीय, महानगरीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था और आंबेडकर का जन्म सामाजिक रूप से बहिष्कृत, महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र के एक छोटे से गांव में रहने वाले दलित परिवार में हुआ था. नेहरू का बचपन धनाढ्य परिवार में गुजरा था इसलिए उनका धर्म को लेकर झुकाव अलग तरह का था. उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी और बुद्धिजीवी के रूप में अधिक वर्णित किया जा सकता है. जीवन के प्रति उनका नजरिया व्यवस्थित था. वह अतीत के आदर्शों की तुलना में आधुनिकीकरण को प्राथमिकता देते थे. इस मामले में, उनमें और आंबेडकर में कई समानताएं थीं. युवावस्था में भेदभाव को देखने के बाद आंबेडकर उस समय आरएसएस द्वारा प्रस्तुत हिंदू धर्म की अवधारणा से भी निराश थे. जहां आंबेडकर ने सामाजिक अन्याय को करीब से देखा था, वहीं नेहरू, इन सबसे सुरक्षित थे. इसलिए, नेहरू ने जाति की राजनीति के हानिकारक प्रभावों के बारे में लिखा था. वे आंबेडकर के अनुसार इस व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करने के पक्ष में नहीं थे.
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दलितों की आरक्षित सीटों पर मतभेद
आंबेडकर के अनुसार पिछड़े वर्गों को कुछ राहत देने का एक तरीका पृथक निर्वाचन मंडल के माध्यम से था. उनके अनुसार इससे न केवल दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षित सीटें मिलेंगी, बल्कि वे दलित-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में दलित उम्मीदवारों को वोट देने में सक्षम होंगे. अंग्रेजों के समय में यह अधिकार मुसलमानों को भी दिया गया था. इससे हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए आरक्षित सीटें आवंटित की गईं. 1947 में, कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने आरक्षित सीटों को पूरी तरह से समाप्त करने का प्रस्ताव रखा. इस विचार से नाराज होकर, आंबेडकर ने संविधान सभा से बाहर निकलने की धमकी दी, और बाद में, पटेल की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
नेहरू पर मुसलमान हितैषी होने का आरोप
कई साल बाद आंबेडकर ने नेहरू पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपना पूरा समय और ध्यान मुसलमानों के हितों की सुरक्षा में लगाया. उन्होंने कहा कि वे भी मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित थे, लेकिन वे अन्य हाशिए पर पड़े समूहों को ऊपर उठाने में भी विश्वास करते थे. उन्होंने नेहरू से पूछा, “उन्होंने इन समुदायों के लिए क्या चिंता दिखाई है? जहां तक मुझे पता है, कोई भी नहीं, और फिर भी ये ऐसे समुदाय हैं जिन्हें मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक देखभाल और ध्यान की आवश्यकता है.” इन मतभेदों के बावजूद, नेहरू पिछड़े वर्गों की मुक्ति में बाबासाहेब के प्रभाव से इनकार नहीं कर सके, बाद में उन्होंने आंबेडकर को “हिंदू समाज की सभी दमनकारी विशेषताओं के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक” बताया.
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हिंदू संहिता पर आंबेडकर से सहमत थे नेहरू
आंबेडकर संविधान का मसौदा तैयार करने में अपनी भूमिका के लिए जाने जाते हैं. लेकिन मसौदा तैयार करने से पहले ही उन्होंने हिंदू कोड बिल पर काम करना शुरू कर दिया था, जिसमें पारंपरिक हिंदू कानून के कई खंडों को आधुनिक बनाने का प्रयास किया गया था. यह बिल अप्रैल 1947 में संसद में पेश किया गया था, जिसमें संपत्ति, विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार के आदेश से संबंधित कानूनों को संबोधित किया गया था. आंबेडकर ने इस कानून को “अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक सुधार उपाय” बताया. नेहरू कई मायनों में उनसे सहमत थे. जैसा कि उन्होंने कहा, “देश की वास्तविक प्रगति का मतलब सिर्फ राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, सिर्फ आर्थिक स्तर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक स्तर पर भी प्रगति है.”
आंबेडकर ने दिया मंत्री पद से इस्तीफा
नेहरू ने हिंदू संहिता को चार अलग-अलग भागों में विभाजित करने का फैसला किया ताकि उन्हें पारित करना आसान हो सके. हालांकि, 1951 तक, विधेयक पारित नहीं हुए थे. इससे निराश और हतोत्साहित आंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. दोनों व्यक्तियों के बीच मतभेद विचारधारा के स्तर पर नहीं बल्कि क्रियान्वयन को लेकर था. नेहरू ने सदन में घोषणा की थी कि हिंदू विधेयक के मामले में, “मैं कानून मंत्री द्वारा कही गई हर बात पर कायम हूं.” लेकिन आंबेडकर ने प्रधानमंत्री के “वादों और कामों” के बीच अंतर के बारे में बात करते हुए कहा कि विधेयक के पारित न होने का कारण नेहरू की अपनी विफलताएं हैं. जब आंबेडकर ने इस्तीफा दिया, तो नेहरू ने उन्हें किसी और तरह से मनाने की कोशिश नहीं की.
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नेहरू की विदेश नीति के कटु आलोचक
आंबेडकर ने नेहरू और कांग्रेस को एक दूसरे के समान माना और लिखा, “कांग्रेस पंडित नेहरू है और पंडित नेहरू कांग्रेस है.” इस तरह, कांग्रेस पार्टी के साथ उनकी कई लड़ाइयों को नेहरू के प्रति व्यक्तिगत असंतोष के रूप में देखा जा सकता है. आंबेडकर और कांग्रेस के बीच शिकायतों की सूची लंबी होती जा रही था. आंबेडकर का प्रधानमंत्री के साथ एक और मुद्दा उनकी वैश्विक रणनीति को लेकर था. नेहरू की उनकी काल्पनिक विदेश नीति के लिए घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत प्रशंसा की गई, लेकिन आंबेडकर उनके कुछ आलोचकों में से एक रहे.
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कश्मीर पर नेहरू के रुख के विरोधी
आंबेडकर ने कश्मीर पर नेहरू के रुख का भी विरोध किया और एक क्षेत्रीय जनमत संग्रह की वकालत की, जिसमें क्षेत्र में रहने वाले गैर-मुस्लिमों की भावनाओं को ध्यान में रखा जा सके. 1951 के एक साक्षात्कार में, आंबेडकर ने कांग्रेस की नीति का विरोध करते हुए कहा: “मुझे डर है कि जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह भारत के खिलाफ जा सकता है. जम्मू और लद्दाख की हिंदू और बौद्ध आबादी को पाकिस्तान जाने से बचाने के लिए, ऐसी स्थिति में, जम्मू, लद्दाख और कश्मीर में क्षेत्रीय जनमत संग्रह होना चाहिए.” कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के संदर्भ में आंबेडकर नेहरू की कूटनीति के आलोचक थे. उन्हें लगता था कि यह प्रावधान भारत के भीतर एक और संप्रभुता का निर्माण करेगा जो देश की एकता के लिए विनाशकारी होगा. नेहरू और आंबेडकर हमेशा एक-दूसरे से सहमत नहीं होते थे, लेकिन वे दोनों एक-दूसरे के असहमत होने के अधिकार का सम्मान करते थे. इसका एक प्रमाण यह है कि शासन और नीति के प्रति विपरीत दृष्टिकोण होने के बावजूद, नेहरू ने आंबेडकर के मतभेदों में इतना महत्व देखा कि उन्हें अपने मंत्रिमंडल में स्थान देने की पेशकश की. आंबेडकर ने दोनों के बीच पर्याप्त समानताएं पहचानीं और इसे स्वीकार कर लिया.
Tags: Article 370, Dr. Bhim Rao Ambedkar, Foreign policy, Jawaharlal NehruFIRST PUBLISHED : December 20, 2024, 13:21 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें Note - Except for the headline, this story has not been edited by Jhar Khabar staff and is published from a syndicated feed