लोकसभा का वो स्पीकर जिसने विपक्ष का भरोसा जीतने के लिए पार्टी से दिया इस्तीफा

लोकसभा स्पीकर का पद संसदीय परंपरा में बेहद अहम है. सरकार और विपक्ष दोनों के बीच यह सेतु का काम करता है. लेकिन, बीते कुछ वर्षों में इस पद की गरिमा कमतर हुई है. लेकिन, अपने ही देश में कुछ स्पीकर ऐसे हुए हैं जिनकी निष्पक्षता के आगे विपक्षी सांसद भी सरेंडर कर देते थे.

लोकसभा का वो स्पीकर जिसने विपक्ष का भरोसा जीतने के लिए पार्टी से दिया इस्तीफा
18वीं लोकसभा में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर पद को लेकर पक्ष और विपक्ष के बीच तलवारें खींच गई हैं. इस कारण स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार स्पीकर का चुनाव होने जा रहा है. एनडीए ने 17वीं लोकसभा के स्पीकर रहे अपने सांसद ओम बिड़ला को फिर से मैदान में उतारा है. वहीं इंडिया गठबंधन की ओर से कांग्रेस के सांसद जी सुरेश स्पीकर का चुनाव लड़ रहे हैं. दोनों सांसदों ने नामांकन दाखिल कर दिया है. ये तो हुई आज की बात. लेकिन, हम आपको आज से करीब छह दशक पहले के वक्त में लिए चलते हैं. उस वक्त देश में लोकतंत्र की जड़ें जम रही थीं. पूरी दुनिया की निगाहें भारतीय संसद पर टिकी रहती थी. इस सबसे बड़ी पंचायत की पवित्रता को बनाए रखने के लिए सभी दलों के नेता उच्च मापदंडों का परिचय देते थे. उसी समय एक ऐसे नेता भी थे जिन्होंने राजनीतिक मापदंडों के मामले में बेहत उच्च मानक स्थापित किए. हम बात कर रहे हैं डॉ. नीलम संजीवा रेड्डी की. रेड्डी देश की आजादी से पहले ही 1946 में जनप्रतिनिधि चुने गए थे. वह 1946 के प्रांतीय चुनाव में मद्रास लेजिस्लेटिव असेंबली के लिए चुने गए थे. फिर वह 1949 में संविधान सभा के सदस्य चुने गए.  वह 1956 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उनका राजनीतिक कद बढ़ता चला गया. वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बन गए. 1959 में वह सीएम की कुर्सी छोड़कर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बन गए. उस वक्त देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे. हालांकि वह फिर 1964 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए. चौथी लोकसभा के स्पीकर loksabhadocs.nic.in वेबसाइट के मुताबिक 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद रेड्डी 1967 के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश के हिंदपुर सीट से सांसद निर्वाचित हुए. फिर वह चौथी लोकसभा के स्पीकर चुने गए. रेड्डी एक सम्मानित नेता थे और वह लोकतंत्र को समर्पित थे. सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह स्पीकर के पद को बेहद अहम मानते थे. ऐसे में स्पीकर चुने जाने के तुरंत बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया. वह 34 सालों से कांग्रेस के सदस्य थे. संजीवा रेड्डी का मानना था कि स्पीकर पूरे सदन का होता है न कि वह किसी पार्टी या गठबंधन का. विपक्ष ने कभी नहीं किया वाकआउट स्पीकर पद को निष्पक्ष बनाने के लिए संजीवा रेड्डी ने जो मानक स्थापित किए उसकी मिसाल आज भी दी जाती है. उन्होंने सदन की कार्यवाही इतने प्रभावी तरीके से चलाई कि उनके कार्यकाल में कभी भी विपक्ष  किसी मुद्दे पर वॉकआउट नहीं कर पाया. उन्होंने गंभीर से गंभीर मसलों को सदस्यों के साथ मिलकर सुलझाने का काम किया. स्पीकर रहते उन्होंने कई अहम फैसले किए. इसमें एक सबसे अहम फैसला था राष्ट्रपति के अभिभाषण के दिन ही अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा. उन्होंने कहा कि जरूरी मसलों को किसी परंपरा का हवाला देकर रोका नहीं जा सकता है. दोबारा बने स्पीकर 19 जुलाई 1969 को संजीवा रेड्डी ने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए स्पीकर पद से इस्तीफा दे दिया. हालांकि वह इस चुनाव में बहुत कम अंतर से हार गए. फिर वह स्वेच्छा से राजनीति से दूर हो गए. हालांकि, 1977 में वह फिर लोकसभा के लिए चुने गए और 26 जनवरी 1977 को फिर से सर्वसहमति से स्पीकर चुने गए. हालांकि इस बार भी वह कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. चार माह बाद ही उन्होंने स्पीकर पद से इस्तीफा देकर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा और फिर 25 जुलाई 1977 को देश के राष्ट्रपति बने. सोमनाथ दादा को पार्टी ने निकाला संजीवा रेड्डी के बाद एक स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की भी खूब चर्चा होती है. 2004 में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के वक्त वह लोकसभा के स्पीकर बनाए गए थे. वह माकपा के सदस्य थे. माकपा यूपीए का हिस्सा थी. लेकिन, अमेरिका से परमाणु डील की वजह उसने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया. पार्टी ने सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर पद छोड़ने के लिए कहा. लेकिन, चटर्जी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. फिर माकपा ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया. बावजूद वह स्पीकर पद पर बने रहे. Tags: Lok Sabha Speaker, Om BirlaFIRST PUBLISHED : June 25, 2024, 16:37 IST jharkhabar.com India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें
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