दास्तान-गो : सावन का महीना पवन करे शोर… ‘राज कपूर की आवाज़’ मुकेश का!
दास्तान-गो : सावन का महीना पवन करे शोर… ‘राज कपूर की आवाज़’ मुकेश का!
Daastaan-Go ; Singer Mukesh Birth Anniversary : बड़े सीखे हुए गवैयों की तरह मुश्किल तानें, तिहाइयां, मुरकियां नहीं लेते थे वे. सुरों को गमक देकर झिंझोड़ते नहीं थे. मींड देकर उन पर चढ़ते-उतरते नहीं थे. बल्कि उन्हें आहिस्ता से छूते थे, बस. वैसे ही जैसे उन्होंने ख़ुद कहा है, ‘फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं’. गोया, सुर भी फूल ही तो हैं, नाज़ुक से. ज़ोर-ज़बरदस्ती से बिखर जाया करते हैं. और बिखरे हुए फूल न तो सिर पर चढ़ने के क़ाबिल होते हैं और न अपनी महक से दिलों में उतरने के.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, पहले एक वाक़ि’आ बताते हैं. साल 1968 के आस-पास किसी वक़्त का होगा. हिन्दी फिल्मों के बड़े नग़्मा-निगार आनंद बख्शी के साहबज़ादे राकेश ने अभी दो बरस पहले किताब लिखी है, ‘नग़्मे, किस्से, बातें, यादें’. उसमें इस वाक़ि’अे का ज़िक्र है. बख्शी साहब ने भी एक इंटरव्यू के दौरान इसका ज़िक्र किया था. हिन्दी फिल्म ‘मिलन’ (1967) को रिलीज़ हुए कुछ ही अरसा हुआ था. बख्शी साहब ‘फ्रंटियर मेल’ से बंबई से दिल्ली जा रहे थे. रास्ते में उनकी ट्रेन रात के वक़्त किसी छोटे, सून-सान से स्टेशन पर रुकी. वहां न लाइट का बंदोबस्त था और कोई दूसरी सहूलियतें नज़र आती थीं. फिल्में वहां लगती होंगी, ऐसे आसार न आते थे. अलबत्ता, रेडियो किसी के पास रहा हो, ये मुमकिन है. तो जनाब, उस स्टेशन पर ट्रेन में ऊंघते बैठे आनंद बख्शी साहब के कानों में तभी एक आवाज़ पड़ी. उसे सुनकर बख़्शी साहब एकदम चौकन्ने हो गए.
कोई गा रहा था, ‘सावन का महीना पवन करे शोर,’ (‘मिलन’ के सभी नग़्मे बख्शी साहब ने लिखे थे). बख्शी साहब से रहा न गया. उन्होंने ट्रेन से नीचे उतरकर वहां मौज़ूद कुछ लोगों से तस्दीक़ की, ‘कौन गा रहा ये गाना?’. ज़वाब मिला, ‘कोई फ़कीर है साहब. स्टेशन के बाहर बैठा गाने गाकर भीख मांगता है.’ ये ज़वाब मिलना था कि बख्शी साहब को भरोसा हो गया कि अब वे अवाम के नग़्मा-निगार बन चुके हैं. ऐसे नग़्मे लिख सकते हैं, जो सीधे लोगों के दिलों में उतर जाने वाले हैं. हालांकि, उसी दौर में, उधर बंबई में एक और शख़्स बख्शी साहब के जैसी ही ख्वाहिश लिए हुए था. बल्कि ख़्वाहिश क्या, वह तो लोगों के दिलों में उतर ही चुका था. अपनी रूमानी आवाज़ के मार्फ़त. वह शख़्स था, मुआफ़ कीजिएगा ‘थे’. वह शख़्स थे, मुकेश चंद्र माथुर. वही जिनकी आवाज़ को अपनी समझकर, स्टेशन के बाहर बैठा वह फ़कीर गा रहा था.
मुकेश, जिनकी आवाज़ आज भी तमाम हिन्दुस्तानियों को अपनी-सी ही लगा करती है. आज भी लोग, स्टेशन वाले उस फ़कीर की तरह ही मुकेश की आवाज़ को अपनी ही समझकर सावन का महीना आते ही गुनगुनाया करते हैं, ‘सावन का महीना पवन करे शोर’. किसी अपने को सुकून देने के लिए गाया करते हैं, ‘राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निंदिया तोहे लग जाए’. अपनी महबूबा से चोट खाने पर कह देते हैं, ‘मुबारक हो सब को शमां ये सुहाना, मैं ख़ुश हूं मेरे आंसुओं पे न जाना’. किसी अपने से दग़ा मिलने पर उलाहना देते हैं, ‘दोस्त दोस्त न रहा’. कभी मिज़ाज फ़लसफ़ा हो तो कह दिया करते हैं, ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई’. महबूब को असर में लाना हो तो ‘क्या खूब लगती हो, बड़ी सुंदर दिखती हो’. या ‘महबूब मेरे, महबूब मेरे, तू है तो दुनिया कितनी हसीं है’. या फिर ‘चांद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था’.
और सिर्फ़ हिन्दुस्तान ही नहीं जनाब. समंदर के पार, दूर मुल्क के लोगों को भी मुकेश की आवाज़ अपनी ही लगा करती है. आज भी. इसीलिए तो वे अब भी गुनागुनाया करते हैं, ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिश्तानी’. या ‘आवारा हूं, आवारा हूं’. या ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में’. या ‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां’. या फिर ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’. ऐसी लंबी फेहरिश्त है, जनाब. और ऐसी लंबी फेहरिश्त फिल्मी दुनिया में उन अदाकारों की भी है जो मुकेश को ही अपनी आवाज़ मानते थे. मसलन- राज कपूर तो मुकेश को ‘अपनी ही आवाज़’ कहा करते थे. एक नहीं कई मर्तबा सबके सामने कहा उन्होंने, ‘मेरा तो सिर्फ़ ज़िस्म है. मेरी आवाज़, मेरी आत्मा तो मुकेश है’. सही कहा उन्होंने, क्योंकि फिल्मों में सबसे ज़्यादा मुकेश ने राज कपूर को अपनी आवाज़ दी. यही कोई 110 नग़्मों के लिए.
इसी तरह, मनोज कुमार के लिए भी क़रीब 46 नग़्मे गाए, मुकेश ने. और इस तरह कि फिल्म में जब मनोज कुमार ने अपनी महबूबा (सायरा बानो) से कहा, ‘कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये’, तो किसी को भी हैरत न हुई. बावज़ूद इसके कि जब, साल 1970 में, मनोज कुमार की ये ‘पूरब और पश्चिम’ फिल्म आई, तब तक सुनने वालों के कान मुकेश की आवाज़ को राज कपूर के चेहरे पर देखने के आदी थे. इतना ही नहीं जनाब, हिन्दी सिनेमा में पहली मर्तबा बिल्कुल अस्ल-सी अदाकारी करने के लिए पहचाने गए दिलीप कुमार की आवाज़ भी बने मुकेश. करीब 19 नग़्मों में. इस बाबत एक दिलचस्प वाक़ि’आ है जनाब. साल 1949 का. उस वक़्त एक फिल्म बनी थी ‘अंदाज़’. उसमें दिलीप कुमार के लिए मुकेश ने नग़्मे गाए और उसी में राज कपूर के लिए मोहम्मद रफ़ी साहब ने.
हालांकि बाद में, सब जानते ही हैं कि ये जोड़ियां उलट गईं. और राज कपूर के हिस्से में आए मुकेश. जबकि दिलीप कुमार के जानिब रफी साहब ठहरे. लेकिन मुकेश का दायरा यहां भी न ठहरा. थोड़ा पीछे चलें. साल 1944-45 का वाक़ि’आ. एक फिल्म बन रही है, ‘पहली नज़र’. उस ज़माने के मशहूर अदाकार और गायक मोतीलाल को उसमें लिया गया है. मजहर खान ये फिल्म बना रहे हैं. अनिल बिस्वास जैसे मूसीक़ार को नग़्मों की धुनें तैयार करने के लिए चुना गया है. इन्हीं नग़्मों में एक है, ‘दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा, फ़रियाद न कर’. मोतीलाल यहां शर्त रख देते हैं कि उनका ये नग़्मा मुकेश गाएंगे. बावज़ूद इसके कि इससे पहले तक मोतीलाल ख़ुद अपने नग़्मे गाते थे. क्योंकि उस दौर में ज़्यादातर अदाकार ऐसा ही किया करते थे. तो साहब, मजहर खान कुछ पस-ओ-पेश (असमंजस) में पड़े. इसकी वज़ह थी.
दरअस्ल, फिल्म में मोतीलाल जो किरदार अदा कर रहे थे, वह अलमिया (दुखद) न था. जबकि नग़्मा इसी क़िस्म का ठहरा. तिस पर मुकेश का फिल्मी दुनिया में कोई नाम न था. अब तक उनकी एक फिल्म आई थी, ‘निर्दोष’. साल 1941 की बात है ये. इसमें उन्होंने अदाकारी और गुलू-कारी दोनों की थी. मगर ये फिल्म चली नहीं. इसके नग़्मे भी नहीं चले. इसके बावज़ूद मोतीलाल जी कह रहे थे, तो उनकी बात ख़ारिज़ भी नहीं की जा सकती थी. लिहाज़ा, मजहर खान साहब ने भी एक शर्त रख दी, ‘ठीक है. हम नग़्मे को मुकेश से गवाएंगे. लेकिन फिल्म की रिलीज़ के पहले हफ़्ते तक इस पर नज़र रखेंगे कि सुनने वाले इसे किस तरह से लेते हैं. अगर उन्हें पसंद न आया तो फिर इसे हटा दिया जाएगा’. तो जनाब, मोतीलाल जी और मुकेश ने भी मजहर खान की बात पर एतिराज़ न किया. मुकेश ने गाना गाया, जो पहले ही हफ़्ते हिट हो गया.
ज़ाहिर बात है कि फिर फिल्म से उन नग़्मे को हटाने की नौबत न आई. अलबत्ता, मुकेश का सिक्का चल पड़ा. हालांकि, यहीं इसी नग़्मे से जुड़ा दूसरा वाक़ि’आ पेश आया उसी वक़्त. उस दौर में एक और मशहूर अदाकार और गुलू-कार हुआ करते थे कुंदन लाल सहगल. उन्होंने जब मुकेश का नग़्मा सुना, ‘दिल जलता है तो जलने दे’, तो पास मौज़ूद लोगों से उन्होंने अचरज में सवाल किया, ‘ये तो मेरा गाना है. लेकिन मैंने ये कब गाया? मुझे याद क्यूं नहीं आता?’ तब सहगल साहब को उनके जानने वालों ने बताया, ‘जनाब, ये आपका गाना नहीं है. नया लड़का आया है, मुकेश. हू-ब-हू आपकी आवाज़ में गाता है. उसी ने गाया है इसे’. तो, इस तरह जनाब, मुकेश शुरू में केएल सहगल और मोतीलाल की आवाज़ भी हुए एक वक़्त. यूं कहें तो कोई बुरा न मानेगा शायद. बल्कि, सच ये है कि उनकी यही अदा मोतीलाल के दिल में उतरी थी.
ये बात ज़ाहिर तौर पर 1940 से पहले की है. तब मुकेश बंबई नहीं आए थे. दिल्ली में रहते थे. पिता ज़ोरावर चंद्र माथुर इंजीनियर थे. लेकिन मुकेश का पढ़ाई-लिखाई में मन न लगता था. महज़ 10वें दर्ज़े तक पढ़ने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी. इसके बज़ाय गाने और अदाकारी में उनका मन लगता था. घर में कुल 10 भाई-बहन थे. उनमें से मुकेश का नंबर छठवां ठहरा. उन दिनों उनकी बड़ी बहन सुंदर प्यारी को संगीत सिखाने एक उस्ताद आते थे. जब वे उन्हें सिखाते तो मुकेश दूसरे कमरे में कान लगाकर सुना करते. फिर, उस्ताद के चले जाने के बाद अपने ही अंदाज़ में बाक़ायदा रियाज़ किया करते. इस तरह, बचपन से एक सिलसिला चल रहा था. तभी बहन की शादी का मौका आ गया. अब तक जानने वाले मुकेश के गाने की तारीफ़ें करने लगे थे. लिहाज़ा शादी-ब्याह के मौके पर उन्हें भी कुछ सुनाने के लिए कहा गया.
इस शादी के मौके पर जो हुआ, उसे ख़ुद मुकेश ने ही बीबीसी-रेडियो को दिए इंटरव्यू में एक मर्तबा बताया था, ‘मेरी सिस्टर की शादी के अंदर साहब, गाना गा रहे थे. उसमें दो साहेबान फिल्म के आए थे. बरात को एंटरटेन के करने के लिए लड़की वाले करते ही कुछ न कुछ. हमने गाना-वाना गा दिया साहब. मैंने सहगल साहब का गाना गाया. अगले दिन साहब, वो दो साहेबान सबेरे मेरे घर पर आ गए. वालिद साहब से मिलने. कहने लगे- साहब, आपके साहबज़ादे तो बहुत अच्छा गाना गाते हैं. हमारे फादर को तो पता ही नहीं था कि गाना किसे कहते हैं. फादर को त’अज्जुब हुआ. कहने लगे- कौन हैं ये, कौन लोग हैं. मैंने कहा- जी, फिल्मों के बड़े मशहूर आदमी हैं ये. तो फादर बोले- मशहूर, वशहूर तो ठीक है. ये क्या चाहते हैं तुमसे. तब ज़वाब उन्हीं साहेबान में से एक ने दिया- जी इन्हें फिल्म में भेज दीजिए, ये सहगल से भी बड़ा नाम कमाएंगे.’
और जनाब, जिन दो साहेबान का ज़िक्र मुकेश साहब ने किया उनमें एक जानते हैं कौन थे? ख़ुद मोतीलाल. मुमकिन है ये तब लड़के वालों की तरफ़ से शादी में आए हों. क्योंकि बाद वक़्त, जब भी इन दोनों की चर्चा हुई या होती है, तो इन्हें दूर का रिश्तेदार कहा जाता है. तो जनाब, इस तरह ‘मोतीलाल जी की खोज’ यानी मुकेश का बंबई आना हुआ. और फिर हिन्दुस्तान ही नहीं, उसके बाहर भी लोगों के कानों के रास्ते से दिलों में बस जाना हुआ. और ये मुमकिन कैसे हुआ, जानते हैं? बे-पनाह सादगी की वज़ह से. उनकी आवाज़, उनकी गायकी, उनकी शख़्सियत सब एकदम सादा होती थी. बड़े सीखे हुए गवैयों की तरह मुश्किल तानें, तिहाइयां, मुरकियां नहीं लेते थे वे. सुरों को गमक देकर झिंझोड़ते नहीं थे. मींड देकर उन पर चढ़ते-उतरते नहीं थे. बल्कि उन्हें आहिस्ता से छूते थे, बस. वैसे ही जैसे उन्होंने ख़ुद कहा है, ‘फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं’. गोया, सुर भी फूल ही तो हैं, नाज़ुक से. ज़ोर-ज़बरदस्ती से बिखर जाया करते हैं. और बिखरे हुए फूल न तो सिर पर चढ़ने के क़ाबिल होते हैं और न अपनी महक से दिलों में उतरने के.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, Mukesh, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 22, 2022, 18:23 IST