दास्तान-गो : हिन्दी फिल्मों की पहली महिला संगीतकार जद्दन बाई या सरस्वती देवी
दास्तान-गो : हिन्दी फिल्मों की पहली महिला संगीतकार जद्दन बाई या सरस्वती देवी
Daastaan-Go ; Saraswati Devi Death Anniversary : सरस्वती देवी जरूर वह शख्सियत हुईं, जिन्होंने शुरुआत तो गायकी से ही की. लेकिन आगे चलकर मशहूरियत उनकी संगीत-निर्देशक के तौर पर ज़्यादा हुई. क्योंकि उन्होंने एक, दो या चार नहीं, बल्कि 30-35 फिल्मों में संगीत दिया. इस लिहाज़ से इन्हें ‘पहली फुल-टाइम महिला संगीतकार’ कहा जा सकता है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, हिन्दी फिल्मों की पहली महिला मूसीक़ार यानी संगीतकार कौन थीं? यह सवाल अगर फिल्मों के बारे में जानने वालों से पूछा जाए तो ज़वाब तीन हो सकते हैं. कुछ लोग नाम बताएंगे जद्दन बाई का. कुछ कहेंगे इशरत सुल्ताना. जबकि कुछ लोग कहेंगे सरस्वती देवी. अपनी-अपनी जगह तीनों ही ज़वाब सही कहे जा सकते हैं क्योंकि 1934 में एक फिल्म आई थी ‘अदल-ए-जहांगीर’. उसमें इशरत सुल्ताना ने संगीत दिया था. पेशे से गायिका थीं. इसके बाद 1935 में आई ‘तलाश-ए-हक़’ में मशहूर अदाकारा नरगिस दत्त की मां जद्दन बाई ने संगीत दिया. ये भी पेशे से गुलूकार यानी गायिका ही थीं. उन्होंने बाद में ‘मैडम फैशन’ (1936), ‘ह्रदय मंथन’ (1936), ‘जीवन स्वप्न’ (1937), ‘मोती का हार’ (1937) जैसी तीन-चार फिल्मों में और संगीत निर्देशन किया. इनके लिए गाने भी गाए. इस तरह शुरुआत उन्होंने कर दी थी. लेकिन पेशे के लिहाज़ से इन दोनों शख़्सियतों को अव्वल तौर पर गायक ही माना गया. क्योंकि उन्होंने संगीत-निर्देशन को ‘फुल-टाइम पेशा’ नहीं बनाया.
हालांकि सरस्वती देवी जरूर वह शख्सियत हुईं, जिन्होंने शुरुआत तो गायकी से ही की. लेकिन आगे चलकर मशहूरियत उनकी संगीत-निर्देशक के तौर पर ज़्यादा हुई. क्योंकि उन्होंने एक, दो या चार नहीं, बल्कि 30-35 फिल्मों में संगीत दिया. इस लिहाज़ से इन्हें ‘पहली फुल-टाइम महिला संगीतकार’ कहा जा सकता है. इस हैसियत से कई हिट नग़्में उनकी पहचान बने. जैसे कि फिल्मों में पहला देशभक्ति गीत इन्हीं के निर्देशन में गाया गया. इसी तरह कहा ये भी जाता है कि प्ले-बैक सिंगिंग यानी पार्श्व गायकी की शुरुआत भी इन्हीं सरस्वती देवी के साथ एक वाक़ि’अे के दौरान हुई. अलबत्ता, बड़ी तादाद आज भी उन लोगों की है, जो फिल्म डायरेक्टर नितिन बोस और संगीत निर्देशक रायचंद (आरसी) बोराल को यह श्रेय देते हैं कि उन्होंने फिल्मों में पार्श्व गायन का सिलसिला शुरू कराया, जिसकी कहानी अपन पिछली दास्तान में तफ़सील से बता ही चुके हैं.
लेकिन जनाब, सरस्वती देवी का क़िस्सा या कहें कि दावा भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. तो सुनिए. मध्य प्रदेश के बड़े अफ़सर पंकज राग की क़िताब ‘धुनों की यात्रा’ में इसका ज़िक्र है. उनके मुताबिक, सरस्वती देवी ने ही एक इंटरव्यू में ‘जवानी की हवा’ (1935) फिल्म बनने के दौरान हुए वाक़ि’अे का ख़ुलासा किया था. यह फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज़’ के बैनर तले बनी थी. मशहूर अदाकारा देविका रानी और उनके पति फिल्मकार हिमांशु राय ने यह फिल्म कंपनी बनाई थी. तो जनाब, इस फिल्म में संगीत निर्देशन का जिम्मा सरस्वती देवी के पास था. जबकि उनकी बहन चंद्रप्रभा इसमें अदाकारी कर रही थीं. उन दिनों में हर अदाकार, अदाकारा को अपने गीत ख़ुद ही गाने पड़ते थे. चंद्रप्रभा भी अच्छी गायिका थीं. अदाकारी से पहले गाने ही गाती थीं. लेकिन इस फिल्म के दौरान एक बार उनका गला ख़राब हो गया. इससे मुश्किल आ पड़ी.
सरस्वती देवी के मुताबिक, तब हिमांशु राय के ज़ेहन में एक ख़्याल आया. यह कि क्यों न चंद्रप्रभा के लिए गाना सरस्वती देवी गा दें. उसे रिकॉर्ड कर लिया जाए और फिर चंद्रप्रभा कैमरे के सामने उस गाने के बोल के मुताबिक होंठ हिला दिया करें. बात सरस्वती देवी और चंद्रप्रभा को भी जम गई और बताते हैं कि कोई गाना भी रिकॉर्ड किया गया, इस तरह से. लेकिन तारीख़ में उसका कोई निशां नहीं मिलता. जबकि दूसरी तरफ़ 1935 के ही बरस में नितिन बोस और आरसी बोराल ने गायक, अदाकार कृष्ण चंद्र डे यानी केसी डे के साथ प्ले-बैक सिंगिंग का जो तज़ुर्बा किया, उसका रिकॉर्ड आज भी है. उसका ज़िक्र भी पिछली दास्तान में किया ही गया था. तो जनाब, इसी वज़ह से नितिन बोस और आरसी बोराल के ख़ाते में यह उपलब्धि दर्ज़ हुई कि उन्होंने ही हिन्दुस्तानी फिल्मों (बांग्ला और हिन्दी दोनों ज़बानों में) में प्ले-बैक सिंगिंग का सिलसिला शुरू कराया.
लेकिन जनाब क्या इतने भर से सरस्वती देवी के ख़ाते में जो उपलब्धियां वे कमतर कहला जाएंगी? यक़ीनन नहीं. क्योंकि ये वह शख़्सियत हुईं, जिन्होंने उस दौर में गीत-संगीत को चुना, जब यह सब एक ख़ास वर्ग तक सिमटा था. इस वर्ग के लोगों को समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. और फिल्म-लाइन तो तौबा, तौबा. अच्छे घरों की औरतों का तो इसमें आना, समझिए ग़ुनाह ही होता था. और सरस्वती देवी तो एक बड़े पारसी ख़ानदान से तअल्लुक रखती थीं. ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी उनका अस्ल नाम होता था. साल 1912 में जन्मी. तारीख़ सही-सही किसी को पता नहीं. गीत-संगीत में रुझान था. संगीत-शास्त्री पंडित विष्णुनारायण भातखंडे के संगीत-विद्यालय में इनकी मां सचिव हुआ करती थीं. तो इस तरह संजोग बन गया और पिता की इज़ाज़त मिलने के बाद इन्होंने पंडित भातखंडे जी से ही संगीत की शुरुआती शिक्षा लेनी शुरू कर दी.
इसके बाद लखनऊ में मॉरिस कॉलेज में पढ़ने चली गईं. वहां भी संगीत शिक्षा ली. फिर वहीं संगीत सिखाया भी. लखनऊ में ही विष्णुनारायण भातखंडे जी का एक संगीत-विश्वविद्यालय भी था. इन्होंने कुछ समय वहां भी पढ़ाया. फिर 1927 के आस-पास जब बंबई में इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी ने रेडियो स्टेशन शुरू किया तो वहां कार्यक्रम देने लगीं. यहां बताते चलें कि इस पूरे सफ़र में ख़ुर्शीद मिनोचर के साथ उनकी बहन मानेक भी रहीं. शायद दो और बहनें भी थीं. रेडियो पर ख़ुर्शीद ऑर्गन बजाकर गाया करती थीं और उनकी बहनें सितार, दिलरुबा, मैंडोलिन बजाती थीं. इस तरह ‘होमजी सिस्टर्स’ के नाम से एक ऑर्केस्ट्रा बन गई थी, जो उस वक़्त बहुत मशहूर हुई. बताते हैं कि इसी दौरान एक बार 1933-34 में ‘होमजी सिस्टर्स’ थियोसोफिकल सोसायटी के जलसे में अपना कार्यक्रम देने आई थीं. वहीं उनका परिचय हिमांशु राय से हुआ था.
कहते हैं, हिमांशु राय ने वहीं खुर्शीद और मानेक को अपनी फिल्म कंपनी में शामिल होने का न्यौता दे डाला. थोड़ी हीला-हवाली के बाद वे भी तैयार हो गईं. लेकिन यह बात जब पारसी समाज के ‘बड़े’ लोगों को पता चली तो उन्होंने भारी बवाल किया. कहा यहां तक जाता है कि एक बार तो खुर्शीद जब हिमांशु राय की गाड़ी में सवार थीं, तो उन्हें पारसी समाज के कुछ लोगों ने घेर लिया. उस वक़्त हिमांश साहब ने उन्हें अपनी पत्नी देविका रानी बताकर किसी तरह लोगों से पीछा छुड़ाया. हालांकि वहीं से यह भी तय कर लिया गया कि ख़ुर्शीद और मानेक को उनके अस्ल नामों से फिल्मों में नहीं दिखाया जाएगा. सो, दोनों के नाम बदल दिए गए. ख़ुर्शीद हो गईं सरस्वती देवी और मानेक कहलाईं चंद्रप्रभा. हालांकि इसके बावजूद जब दोनों की पहली फिल्म ‘जवानी की हवा’ रिलीज़ हुई तो विरोध और बवाल का आलम ये था कि पुलिस की सुरक्षा लेनी पड़ गई.
बंबई के इंपीरियल सिनेमा के बाहर तब बड़े जुलूस निकाले गए थे. विरोध में. हालांकि फिल्म कंपनी ‘बॉम्बे टॉकीज’ के ट्रस्ट से जुड़े पारसी सदस्यों ने किसी तरह अपने समाज के विरोध-प्रदर्शनकारियों को समझाया, बुझाया, शांत किया. इसके बाद सिलसिला चल निकला जनाब. और यूं कि चला कि बताते हैं, देविका रानी को संगीत सिखाने का काम भी सरस्वती देवी ही करती थीं. अशोक कुमार जैसे अदाकार से गाना गवा दिया उन्होंने, ‘कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा’, (‘जीवन-नैया’ 1936). यही गाना आगे अशोक कुमार के छोटे भाई किशोर कुमार ने ‘झुमरू’ (1961) में भी गाया. इसी तरह किशोर कुमार और मन्ना डे ने ‘पड़ोसन’ फिल्म (1968) में जो गाना गया था, ‘एक चतुर नार कर के सिंगार’, उसके बारे में भी कहते हैं कि वह मूल रूप से सरस्वती देवी का ही गाना था. उन्होंने साल 1941 में ‘झूला’ फिल्म के लिए सबसे पहले इस गाने की धुन बनाई थी.
वह सरस्वती देवी थीं, जिन्होंने पहली बार ‘जन्मभूमि’ फिल्म के लिए देशभक्ति के गीतों की धुनें बनाईं. जैसे- ‘जय, जय, जय जननी जन्मभूमि’. उन्होंने अपनी धुनों में सितार, क्लैरिनेट, तबला, जलतरंग जैसे वाद्यों का तालमेल बिठाया. ‘मालकौंस’ जैसे शुद्ध रागों के साथ लोकसंगीत में इस्तेमाल होने वाले ‘मांड’ को खूबसूरती से पिरोया. इसका नतीज़ा ये हुआ कि उनकी धुनों पर गाए गए कुछ गाने तो आज तक गुनगुनाए जाते हैं. मसलन- ‘मैं बन की चिड़िया बन के बन बन डोलूं रे’ (‘अछूत-कन्या’, 1936) और ‘चने जोर गरम बाबू मैं लाया मज़ेदार’ (‘बंधन’, 1940). इस तरह साल 1949 तक सरस्वती देवी संगीत-निर्देशन के काम में लगी रहीं. फिर धीरे-धीरे फिल्मी दुनिया से दूर होती गईं. और एक वक़्त वह भी आया, जब दुनिया से ही दूर हो गईं. कोई-कोई इस दुनिया से उनके विदा होने की तारीख़ नौ अगस्त बताता है तो कोई 10 अगस्त 1980.
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