दास्तान-गो : ‘देवदास’ के 100 किस्से के 115 और बिमल रॉय के 113 साल!

Daastaan-Go; Progression of an Iconic Character Devadas and Bimal Roy : तमाम लोग भले कहा करें कि दिलीप कुमार ‘पहले फिल्मी देवदास’ हैं. मगर ऐसा है नहीं. हालांकि वे ‘पहले मशहूर फिल्मी देवदास’ ज़रूर कहे जा सकते हैं. अलबत्ता पहले ‘फिल्मी देवदास’ हुए फानी बर्मा. बांग्ला फिल्मों के अदाकार थे. साल 1928 में फिल्मकार नरेश सी मित्रा ने ‘देवदास’ नाम से पहली फिल्म बनाई. ये ख़ामोश फिल्म थी.

दास्तान-गो : ‘देवदास’ के 100 किस्से के 115 और बिमल रॉय के 113 साल!
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… ——– जनाब, कोई अगर सवाल करे कि हिन्दुस्तान के अज़ीम आशिक़-किरदारों में से एक ‘देवदास’ सबसे पहले, किसी भी सूरत में, कब नुमायां हुए? तो जवाब इसके मुख़्तलिफ़ क़िस्म के होंगे. अदबी बरादरी (साहित्यिक जगत) से तअल्लुक़ रखने वाले कहा करेंगे कि साल 1917 में. क्योंकि यही वह साल हुआ, जब पहली मर्तबा ‘देवदास’ की मोहब्बत का अफ़साना एक नॉवेल की शक्ल में सामने आया. बांग्ला ज़बान के एक बड़े मुसन्निफ़ (लेखक) हुए, शरत् चंद्र चट्‌टोपाध्याय (चटर्जी). उन्होंने इस अफ़साने को नॉवेल की सूरत दी थी. जब पहली बार यह नॉवेल आम लोगों के सामने आया तो वह तारीख़ बताई जाती है 30 जून की. इस तरह 115 साल गुज़र चुके हैं उस वाक़िए को. दूसरा जवाब फिल्म-बरदारी से जुड़े लोग दिया करेंगे. वे ‘देवदास’ की उम्र बताया करेंगे 67 बरस के आस-पास. क्योंकि उन बहुतेरे लोगों के ख़्याल में, ‘देवदास’ पहली मर्तबा नुमायां हुए 1955 में. तब एक बड़े फिल्मकार बिमल रॉय ने इस अदबी-किरदार (साहित्यिक-पात्र) को इसी नाम की हिन्दी फिल्म में पेश किया और अज़ीम-अदाकार दिलीप कुमार ने अपनी अदाकारी से उसमें जान डाली. इस तरह कि लोगों के ज़ेहन में ‘देवदास के चेहरे’ के मायने दिलीप ही हो गए. वे ‘पहले मशहूर फिल्मी देवदास’ हुए, जिनकी उम्र के 2022 में 100 बरस पूरे होते हैं. वे 11 दिसंबर 1922 को पैदा हुए थे. मौज़ूदा पाकिस्तान के पेशावर शहर में जगह है क़िस्सा-ख़्वानी बाज़ार. वहीं. अलबत्ता, फिल्मों में दिलचस्पी रखने वाले जो थोड़ी नई-सी पीढ़ी के लोग हैं, उन्हें ‘देवदास’ के तौर पर चेहरा याद आएगा, एक और मशहूर अदाकार शाहरुख खान का. उन्होंने साल 2002 में आई ‘देवदास’ फिल्म में यह किरदार अदा किया था. यह फिल्म संजय लीला भंसाली ने बनाई थी. वे ख़ूब शान-दारी दिखाने वाली फिल्में बनाया करते हैं. इसलिए उनकी फिल्मों का असर भी ख़ूब ही होता है अक्सर. भंसाली साहब की फिल्म आज, यानी 12 जुलाई को ही आई थी. आज ये जो ‘देवदास की दास्तान’ कहने-सुनने की वज़ह बनी, वह यही तारीख़ और इससे जुड़ा एक इत्तिफ़ाक़ है. यूं कि 12 जुलाई ही बिमल रॉय की पैदाइश की तारीख़ भी होती है. वही बिमल रॉय, जिन्होंने दिलीप साहब को ‘देवदास’ बनाकर ये किरदार हिन्दुस्तान के कोने-कोने में पहुंचा दिया. बिमल रॉय की उम्र के आज, 113 बरस पूरे हुए हैं. वे साल 1909 में मौजूदा बांग्लादेश के सुआपुर में जन्मे थे. हालांकि ‘देवदास की दास्तान’ में इत्तिफ़ाक़ और भी बहुत हैं. इतने कि जानकारों को भी इनके बारे में बहुत कुछ पता न हो, ये काफ़ी हद मुमकिन है. लिहाज़ा, सिलसिलेवार तरीके से इनके बारे में बात करना बेहतर. इसमें पहला तो यही कि ‘देवदास का अदबी किरदार’ 1917 से बहुत पहले ही किताबी-सफ़्हात (पन्नों) पर उतर चुका था. चटर्जी साहब ने ये अफ़साना साल 1901 में लिख लिया था, ऐसा बताया जाता है. तब वे महज़ 17 बरस के थे. मगर उन्हें उस वक़्त उनका नॉवेल छापने के लिए कोई पब्लिशर न मिला. लिहाज़ा, उन्हें इसके लिए अगले 16 बरस और इंतज़ार करना पड़ा. इस तरह 1917 में उनकी साध पूरी हुई और नॉवेल छपकर आया. बांग्ला में. आगे हिन्दी समेत दूसरी ज़बानों में ‘देवदास’ की जो तर्जुमानी (अनुवाद) हुई, उसमें यह ज़िक्र है. इसी तरह ‘फिल्मी देवदास’ का मसला भी है. तमाम लोग भले कहा करें कि दिलीप कुमार ‘पहले फिल्मी देवदास’ हैं. मगर ऐसा है नहीं. हालांकि वे ‘पहले मशहूर फिल्मी देवदास’ ज़रूर कहे जा सकते हैं. अलबत्ता पहले ‘फिल्मी देवदास’ हुए फानी बर्मा. बांग्ला फिल्मों के अदाकार थे. साल 1928 में फिल्मकार नरेश सी मित्रा ने ‘देवदास’ नाम से पहली फिल्म बनाई. ये ख़ामोश फिल्म थी. उस वक़्त ऐसी ही बना करती थीं. उसमें फानी बर्मा ने देवदास का किरदार अदा किया था. फिर साल 1931 के बाद जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो प्रमथेश चंद्र (पीसी) बरुआ ने ‘देवदास’ बनाई. बांग्ला में. ‘न्यू थिएटर’ के नाम से फिल्म कंपनी हुआ करती थी उनकी. उसी बैनर के तहत. ये साल था 1935 का. इस फिल्म में बरुआ ही ‘देवदास’ के किरदार में नज़र आए. बरुआ साहब की फिल्म ज़बर्दस्त हिट हुई तो उन्होंने हिन्दी ज़बान में भी इसे बनाने का फ़ैसला किया. लेकिन उन्हें ख़ुद इतना भरोसा न था कि वे फर्राटेदार तरीके से हिन्दी बोल सकते हैं. लिहाज़ा उन्होंने उस वक़्त के उभरते गुलू-कार (गायक), अदाकार कुंदनलाल सहगल से कहा कि वे उनकी फिल्म में ‘देवदास’ का किरदार अदा करें. सहगल राज़ी हो गए. इस तरह सहगल साहब ‘तीसरे फिल्मी देवदास’ हुए. ये साल हुआ 1936 का. कहते हैं, यह फिल्म उन शुरुआती फिल्मों में शुमार हुई, जिनके रास्ते से सहगल साहब बतौर गुलू-कार, अदाकार अपने दौर में आगे की क़तार में आ खड़े हुए. फिर बरुआ साहब ने 1937 में असमिया ज़बान में भी ‘देवदास’ बनाई. इसमें देवदास का किरदार फानी सरमा ने अदा किया था, जो असमिया थिएटर के बड़े अदाकार होते थे. इसके करीब 15-16 बरस बाद 1953 में तमिल और तेलुगु ज़बानों में वेदान्तम राघवैया ने ‘देवदास’ बनाई. तेलुगु में यह ‘देवदासु’ कही गई. इन दोनों में ‘देवदास’ बने अक्किनेनी नागेश्वर राव. इस तरह साल 1955 में दिलीप कुमार के ‘देवदास’ बनने तक छह मुख़्तलिफ़ फिल्मों में पांच अदाकार यह किरदार निभा चुके थे. हालांकि फिर कहें कि जब दिलीप कुमार ‘देवदास’ बने तो उन्होंने इस किरदार को यूं जीया, ऐसे ज़िंदा किया कि फिर उनकी तरह कोई न कर पाया कभी भी. शाहरुख खान भी नहीं. अलबत्ता, शाहरुख़ अलग दर्ज़े के अदाकार हैं. फिर भी अलमिया-अदाकारी (ट्रैजिक रोल) के मामले में दिलीप साहब के सामने उन्हें खड़ा करना निहायत ग़ैर-वाजिब होगा. जनाब, शुरू में जैसा ज़िक्र किया, दिलीप साहब को ‘देवदास’ बिमल रॉय ने बनाया था. वे बिमल रॉय, जो पीसी बरुआ के वक़्त से ही ‘देवदास’ के साथ वाबस्ता हो चुके थे. जब बरुआ साहब ‘देवदास’ बना रहे थे तो बिमल रॉय कैमरा संभाला करते थे. बरुआ साहब की बांग्ला और हिन्दी, दोनों ज़बानों की ‘देवदास’ को कैमरे में बांधने, उतारने का काम बिमल रॉय ने किया था. बताते हैं, उसी वक़्त उन्होंने मंसूबा बांध लिया था कि आगे चलकर वे भी इस किरदार पर अलग फिल्म बनाएंगे. लेकिन जब उन्होंने फिल्म बनाने की तैयारी की तब ‘देवदास’ के किरदार के लिए तो उनके सामने कोई मसला नहीं था. पहली ही नज़र में इसके लिए दिलीप कुमार तय पाए गए. मगर अदाकाराओं में से किसे लिया जाए, इसकी कहानी थोड़े वक़्त के लिए सही, उलझ गई थी. बिमल रॉय के लिए ‘देवदास’ की कहानी नब्येंदु घोष ने लिखी थी. उन्होंने एक मर्तबा ख़बरनवीसों को बताया था, ‘तब तक ‘देवदास’ की कहानी काफ़ी मशहूर हो चुकी थी. ऐसे में, जब बिमल रॉय ने इस पर फिल्म बनाने की तैयारी शुरू की तो फिल्मी-दुनिया की तमाम बड़ी अदाकाराएं पारो का किरदार अदा करने की ख़्वाहिश रखे पाई गईं. जबकि बिमल ख़ुद मीना कुमारी को पारो का किरदार देना चाहते थे. पर मीना कुमारी के शौहर कमाल अमरोही साहब की कुछ शर्तें बिमल को नागवार गुज़रीं. सो, मीना का ख़्याल छोड़ दिया गया. बिमल इसी तरह नरगिस को चंद्रमुखी के किरदार में देखना चाहते थे. लेकिन वे राज़ी न हुईं. वे पारो का किरदार चाहती थीं. बीना रॉय और सुरैया की ख़्वाहिश भी इसी तरह की हुई. आख़िरकार सुचित्रा सेन पर आकर बात ठहरी. वहीं, वैजयंती माला ने चंद्रमुखी के किरदार के लिए रज़ामंदी दी. तब कहीं जाकर बात बनी फिर.’ नब्येंदु इसी तरह का एक और क़िस्सा बताते हैं. दिलीप कुमार का, कि किस शिद्दत से वे ‘देवदास’ को जी रहे थे. कहते हैं, ‘एक रोज़ हमने उन्हें इधर-उधर भटकते पाया. बहुत परेशान हाल लग रहे थे. हमारे पास नहीं आ रहे थे. न जाने किन ख़्यालों में खोए हुए थे. ऐसे में, मैं उनके पास गया. पूछा- यूसुफ़ भाई, आप बहुत परेशान लग रहे हैं. आख़िर हुआ क्या है? तो वे बोले- नब्येंदु बाबू वे तीनों मेरे कांधे पे बैठे हुए हैं. मैंने पूछा- कौन तीनों? तो कहने लगे- सरत बाबू, प्रमथेश बरुआ और कुंदनलाल सहगल.’ इस हद संज़ीदगी से दिलीप साहब ने निभाया था ‘देवदास’ को. यही तो वज़ह रही कि बाद वक़्त ‘देवदास’ बहुत हुए. लेकिन कोई दिलीप साहब जैसा न हुआ. बिमल रॉय और दिलीप साहब की ‘देवदास’ के बाद उर्दू ज़बान में भी यह फिल्म आई, 1965 में. ख्वाजा सरफराज ने बनाई थी. हबीब तालिश इसमें ‘देवदास’ बने. इस तरह साल 2018 तक यही कोई 20 फिल्में ‘देवदास’ के किरदार को मुख़्तलिफ़ ज़बानों में अपने तईं समेट चुकी हैं. कुछ वक़्त पहले आई फिल्म ‘दास-देव’, चटर्जी साहब की ही कहानी का जदीद (आधुनिक) तर्जुमा कही जाती है. इनके अलावा कई फिल्में ‘देवदास’ के असर से वाबस्त पाई गईं. मसलन, ‘प्यासा’ (1957) ‘मुक़द्दर का सिकंदर’ (1978) वग़ैरा. हालांकि इस लंबे सिलसिले में भी मील के पत्थर सी यादगार तो बेशक, भंसाली साहब की ‘देवदास’ ही ठहरी है, जो इस दास्तान की वज़ह बनी है. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Birth anniversary, 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