दास्तान-गो : पंडित ओंकरनाथ जिन्होंने तानाशाह मुसोलिनी को भारतीय संगीत की ताक़त दिखाई थी

Daastaan-Go ; Pandit Omkarnath Thakur Birth Anniversary : आलाप लिए अभी मुझे ज़्यादा वक़्त न हुआ था. माहौल बनता जाता था. तार सप्तक तक पहुंचा ही था कि तभी हॉल में मुसोलिनी की आवाज़ गूंजी- ठहरिए. मैंने आंखें खोलीं तो राग के भावों का उन पर असर दिखा. चेहरा तमतमा हुआ था उनका. आंखें लाल, शरीर पसीने से तर-ब-तर.

दास्तान-गो : पंडित ओंकरनाथ जिन्होंने तानाशाह मुसोलिनी को भारतीय संगीत की ताक़त दिखाई थी
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…  ———— अमेरिका की ‘सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू यॉर्क’ में एक ग्रेजुएट सेंटर है जनाब. वहां ज़खीरा रखा हुआ है. दुनियाभर के अदब (साहित्य) और मूसीक़ी (संगीत) का. उधर के लोग इसे अपनी ज़बान में ‘रैपर्ट्री इंटरनेशनल डि लिटरेचर म्यूज़िक’ कहा करते हैं. उनके इस ज़खीरे में ही एक किताब है, ‘ओंकारनाथ ठाकुर एंड बेनितो मुसोलिनी’. बीकेवी शास्त्री ने लिखी है. उसमें मई 1933 के एक वाक़िये का ज़िक्र है. उस दौर में हिन्दुस्तान के मशहूर मूसीक़ार (संगीतकार) पंडित ओंकारनाथ ठाकुर तब रोम (इटली) में थे. यूरोप की मुख़्तलिफ़ जगहों पर जाकर अपना फ़न-ए-मौसिक़ी पेश कर रहे थे. इसी सिलसिले में रोम पहुंचे हुए थे. रोम पर तब तानाशाह बेनितो मुसोलिनी की सल्तनत हुआ करती थी. वहां के राजा तीसरे-विक्टर इमैनुएल ने उन्हें वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) बनाया था. पर मुसोलिनी का बर्ताव आगे चलकर कुछ यूं हुआ गोया कि वे ख़ुद ही शाही-सुल्तान हों वहां के. तो जनाब, इन मुसोलिनी तक तब पंडित ओंकारनाथ की मूसीक़ी के चर्चे पहुंचा करते थे. सुन रखा था उन्होंने कि पंडित जी मूसीक़ी में तरह-तरह के तज़रबे (प्रयोग) किया करते हैं. किसी धुन से सुनने वालों की आंखों में आंसू ला दिया करते हैं. तो किसी राग से माहौल में गर्मी पैदा कर देते हैं. दिमाग़ को सुक़ून और दिलों की राहत का बंदोबस्त भी किया करते हैं वहीं, मौके पर ही. हालांकि मुसोलिनी को इन कही-सुनी बातों पर यक़ीन न होता था. लिहाज़ा, उन्होंने तय किया कि अपनी आंखों के सामने देखा जाए इस सबको. और यह इरादा करते ही इस पर अमल के लिए पंडित जी को बुला भेजा अपने पास. पंडित जी तक उनका जो हरकारा (संदेशवाहक) पहुंचा, उसने उन्हें यह ख़ास तौर पर बताया कि मुसोलिनी को नींद न आने की दिक़्क़त है. इससे वे बीते काफ़ी वक़्त से परेशान चल रहे हैं. यह सुनकर पंडित जी ने न जाने क्या सोचा, रज़ामंदी दे दी. पंडित ओंकारनाथ तय वक़्त पर मुसोलिनी की तरफ से सजाए स्टेज पर पहुंचे और उन्होंने ‘हिंडोलम’ (कर्नाटक संगीत का राग, हिन्दुस्तानी में ‘मालकौंस’ जैसा) पेश किया. आगे पंडित जी ख़ुद उस तज़रबे के बारे में बताते हैं, ‘आलाप लिए अभी मुझे ज़्यादा वक़्त न हुआ था. माहौल बनता जाता था. तार सप्तक तक पहुंचा ही था कि तभी हॉल में मुसोलिनी की आवाज़ गूंजी- ठहरिए. मैंने आंखें खोलीं तो राग के भावों का उन पर असर दिखा. चेहरा तमतमा हुआ था उनका. आंखें लाल, शरीर पसीने से तर-ब-तर. सुरों की तपिश को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए थे शायद. थोड़ी देर बाद वे शांत और सामान्य हुए तो कुछ और पेश करने को कहा. मैंने इस बार ‘छाया-नट’ को चुना. इसकी प्रस्तुति जब पूरी हुई तो मैंने ख़ुद देखा- मुसोलिनी की ही नहीं, वहां मौज़ूद तमाम लोगों की आंखें आंसुओं से भीगी हुई थीं. हिन्दुस्तानी संगीत का उन्हें ऐसा अनुभव पहले कभी न हुआ था.’ बताते हैं, इसके बाद ख़ुद मुसोलिनी ने पंडित जी से नींद न आने की अपनी दिक़्क़त का ज़िक्र किया. जानना चाहा कि क्या उनकी मूसीक़ी में इसका भी कोई इलाज़ है. पंडित जी ने ‘हा’ में सिर हिलाया और कहा, ‘आज रात के भोजन में आप शाकाहार लीजिएगा. इसके बाद कुछ देर के लिए संगीत की महफ़िल सजाएंगे.’ मुसोलिनी ने रज़ामंदी दी और वैसा ही किया जैसा पंडित जी ने उन्हें कहा था. रात को साग-सब्ज़ी का सादा खाना खाने के बाद वे पंडित जी की ग़ैर-रस्मी (अनौपचारिक) महफ़िल का हिस्सा बने. पंडित जी ने अबकी बार राग ‘पूरिया’ का आलाप छेड़ा. अभी उन्हें बा-मुश्किल ही 15-20 मिनट हुए थे कि मुसोलिनी जम्हाईयां लेने लगे. नींद उन पर हावी होने लगी इस क़दर कि फिर उनसे बैठा न गया. सोने चले गए और ऐसे सोए कि अगली सुबह ही नींद खुली. लेकिन अब तक वे हिन्दुस्तानी संगीत के जादू की गिरफ़्त में आ चुके थे, पूरी तरह. हालांकि पंडित जी की नींद उड़ गई थी उस रात. बताया करते थे, ‘मुझे अब तक भरोसा नहीं हुआ था कि जिन मुसोलिनी के नाम से लोग थर-थर कांपा करते हैं, उनसे मेरी इस तरह मुलाक़ात हुई है. पूरी रात सो नहीं सका यह सोच-सोचकर. और अगली सुबह दिन ज़्यादा चढ़ा भी नहीं था कि उनके दो पत्र मिले मुझे. एक में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का ऐसा अनुभव कराने के लिए मुझे शुक्रिया कहा गया था. दूसरा मेरा नियुक्ति पत्र था. मुझे उन्होंने वहां की यूनिवर्सिटी के नए बने संगीत विभाग का निदेशक नियुक्त किया था. हालांकि मैं उनके इस अनुरोध को स्वीकार न कर पाया क्योंकि मुझे हिन्दुस्तान लौटना था.’ अलबत्ता, पंडित ओंकारनाथ की मूसीक़ी से इस तरह का तज़रबा करने वाले मुसोलिनी कोई अकेले न हुए दुनिया में. बताते हैं, वे जब ‘भैरवी’ में ‘जोगी मत जा’, गाया करते तो सुनने वाले पश्चिम के हों या पुरबिया, हर कोने में सुबकते दिखते थे. बल्कि ‘थे’ क्यों, आज भी ‘हैं’ कहिए. पंडित ओंकारनाथ की एक अज़ीज़ शागिर्द हुआ करती हैं डॉक्टर एन राजम. वॉयलिन बजाती हैं. पंडित जी की मौज़ूदगी में उनके साथ स्टेज पर अक्सर नज़र आती थीं. आज के दिनों में हक़ीक़ी तौर पर उनके बिना दिखती हैं. लेकिन पंडित जी संग होते हैं उनके तब भी. ख़ास तौर पर जब वे अपनी मूसीक़ी के दौरान राग के सुरों के साथ ‘काकु-प्रयोग’ किया करती हैं, तो अक्सर आंखों से आंसू बह जाया करते हैं. ख़ुद उनके और सुनने वालों के भी. क्योंकि मूसीक़ी की किताबों से यह ‘काकु-प्रयोग’ उनके उस्ताद, उनके गुरु पंडित ओंकारनाथ ढूंढकर लाए थे. सिर्फ़ ढूंढकर नहीं लाए बल्कि इसे परवान भी चढ़ाया उन्होंने. और यह ‘काकु-प्रयोग’ जानते हैं क्या है? आवाज़ों के फ़र्क को मूसीक़ी के ज़रिए सामने लाना. कैसे? यूं समझें कि जब कोई मां अपने बच्चे को दुलारती है तो उसके दुलार की आवाज़ में उतार-चढ़ाव किस तरह के हुआ करते हैं. और जब वही मां बच्चे को फटकार लगाती है तो उसकी आवाज़ के उतार-चढ़ाव में कैसा फ़र्क आता है. कहते हैं, पंडित ओंकारनाथ ने ‘काकु-प्रयोग’ के दौरान जानवरों की आवाज़ों के फ़र्क, उनके उतार-चढ़ाव तक पता लगा लिए थे. उन्हें वे महसूस करने लगे थे और अपनी मुसीक़ी के सुरों के ज़रिए सुनने वालों को वह फ़र्क महसूस कराने भी लगे थे. और सिर्फ़ मूसीक़ी में क्यों, आम बातचीत में या स्टेज से कोई तक़रीर (भाषण) करते हुए भी आवाज़ में उतार-चढ़ाव के इस फ़न का भरपूर इस्तेमाल किया करते थे वे. मुमकिन है, यही वज़ा रही हो कि एक बार ख़ुद महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘मैं अपने कई भाषणों से जितना असर लोगों पर नहीं डाल पाता, उससे कहीं अधिक प्रभाव पंडित ओंकारनाथ अपने एक गीत या कुछ शब्दों से छोड़ देते हैं.’ हिन्दुस्तान की एक अदीब (साहित्यकार) हुईं हैं, सुशीला मिश्रा. उनकी किताब ‘ग्रेट मास्टर्स ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूज़िक’ में पंडित ओंकारनाथ का बड़ा ज़िक्र है. उसी में महात्मा गांधी से जुड़ा यह वाक़िया दर्ज़ हुआ है. और महात्मा गांधी से पंडित जी का वास्ता यूं बना कि पैदाइश उनकी बापू के गुजरात में ही जहाज क़स्बे में हुई थी. साल 1897 की 24 जून को. यही नहीं, जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो पंडित जी सीधे कांग्रेस से भी जुड़ गए. उसमें अपनी भागीदारी तय करने के लिए. फिर वे भरूच जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने और गुजरात की प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य भी रहे. बताते हैं कि कांग्रेस के साथ उनका जुड़ाव रहने के दौरान पार्टी का कोई अधिवेशन ऐसा नहीं हुआ, जिसमें उनकी आवाज़ में गाया ‘वंदेमातरम्’ न गूंजा हो. और वह ‘वंदेमातरम्’, जिसकी धुन उस वक़्त उन्होंने अपनी अलग तैयार की थी. किसी का मन करे तो आज भी सुन सकता है उसे. इंटरनेट पर मौज़ूद हैं, उस ज़माने के उनके कुछेक रिकॉर्ड्स, अब भी. भले, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ज़िस्मानी तौर पर आज हमारे बीच मौज़ूद (29 दिसंबर 1967 का निधन) न रहे हों. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : June 24, 2022, 15:46 IST