दास्तान-गो : महबूब खान… ‘गोरे अमेरिकियों’ को ‘मदर इंडिया’ की ताक़त दिखाने वाले
दास्तान-गो : महबूब खान… ‘गोरे अमेरिकियों’ को ‘मदर इंडिया’ की ताक़त दिखाने वाले
Daastaan-Go ; Mahboob Khan Birth Anniversary : बताते हैं, महात्मा गांधी ने इस किताब को किसी ‘नाली निरीक्षक की रिपोर्ट’ जैसा बता दिया था. बापू का इतना कहना तो बहुत बड़ी बात थी जनाब. इसके बाद तो कैथरीन के कारनामे पर हिन्दुस्तान के तमाम जवां मर्दों का खून खौलने लगा था. इनमें यक़ीनी तौर पर 21-22 बरस का वह नौजवान भी शामिल था, जो गुजराती कारोबारी नूर मोहम्मद अली मोहम्मद शिप्रा की घुड़साल में घोड़ों की नाल ठोकने का काम करता था. जरूरत पड़ने पर फिल्मों की शूटिंग के लिए घोड़े, इन्हीं नूर मोहम्मद की घुड़साल से जाया करते थे. और वह लड़का जो इन घोड़ों की नाल ठोकता था, ख़ुद भी फिल्मी दुनिया में जाने कोशिशों में लगा था.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, बहुत कम लोगों को पता होगा यह क़िस्सा शायद. साल 1927 की बात है ये. मतलब वह दौर जब महात्मा गांधी की अगुवाई में हिन्दुस्तान ने अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद होने के लिए निर्णायक लड़ाई छेड़ने का मंसूबा बांध लिया था. उसे सरअंज़ाम तक पहुंचाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं. वहीं, दूसरी तरफ़, ‘गोरे अंग्रेज’ हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों को नीचा दिखाने के लिहाज़ से कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. और उनकी कोशिशें सिर्फ़ हिन्दुस्तान की सरहदों तक ठहरी नहीं थीं. बल्कि वे अपने असर वाले बाहरी मुल्कों से भी इसी तरह की कोशिशें किया करते थे. क्योंकि उनके ज़ेहन में सदियों से ‘गोरी चमड़ी की श्रेष्ठता’ (नस्लवाद) का ग़ुरूर ठहरा हुआ था. मुमकिन है, अब भी रहा करता हो. तो जनाब, उस ग़ुरूर के असर में ही शायद तब हिन्दुस्तानियों की इज़्ज़त-ए-नफ़्स (स्वाभिमान) पर एक हमला अमेरिका से हुआ था. अदबी (साहित्यिक) सूरत में.
दरअस्ल, तब अमेरिका में एक मुसन्निफ़ा (लेखिका) होती थीं, कैथरीन मेयो. ख़ास तौर पर तारीख़ी (इतिहास) क़िताबें लिखती थीं. गोरी चमड़ी वालों को ही अव्वल दर्ज़े का इंसान मानने की वकालत किया करती थीं. गोया कि इस नस्ल के अलावा दूसरे लोग इंसान ही न हों कोई. तो जनाब उन्होंने एक किताब लिखी. नाम दिया उसे ‘मदर इंडिया’. मगर यह इस किताब का सिर्फ़ नाम भर था क्योंकि इसके हर लफ़्ज़ में ‘भारत माता’ यानी ‘हिन्दुस्तान की औरत’ को नीचा दिखाने की कोशिश की गई थी. कोई पढ़ना चाहे तो यह किताब आज भी मिल जाएगी. अमेज़ॉन पर तो इस किताब को बेस्ट-सेलर का दर्ज़ा हासिल है. यानी सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताबों में शुमार होती है ये. यह किताब जब पहली बार बाज़ार में आई, साल 1927 में ही, तो हिन्दुस्तान में इसके ख़िलाफ़ गुस्सा फूट पड़ा. हिन्दुस्तानियों ने इसकी कॉपियां जलाईं और कैथरीन के पुतले.
बताते हैं, महात्मा गांधी ने इस किताब को किसी ‘नाली निरीक्षक की रिपोर्ट’ जैसा बता दिया था. बापू का इतना कहना तो बहुत बड़ी बात थी जनाब. इसके बाद तो कैथरीन के कारनामे पर हिन्दुस्तान के तमाम जवां मर्दों का खून खौलने लगा था. इनमें यक़ीनी तौर पर 21-22 बरस का वह नौजवान भी शामिल था, जो गुजराती कारोबारी नूर मोहम्मद अली मोहम्मद शिप्रा की घुड़साल में घोड़ों की नाल ठोकने का काम करता था. जरूरत पड़ने पर फिल्मों की शूटिंग के लिए घोड़े, इन्हीं नूर मोहम्मद की घुड़साल से जाया करते थे. और वह लड़का जो इन घोड़ों की नाल ठोकता था, ख़ुद भी फिल्मी दुनिया में जाने कोशिशों में लगा था. क्योंकि उसे अव्वल तो बचपन से ही फिल्मों का शौक़ आ लगा था. तिस पर उसके ज़ेहन में कहीं ये ख़्याल भी रहा होगा कि फिल्में ही वह ज़रिया हो सकती हैं, जिनकी मदद से वह गोरे अंग्रेजों को पुर-असर तरीके से ज़वाब दे सकता है.
जनाब इस लड़के का नाम था महबूब खान रमज़ान खान. फिल्मी दुनिया से वाबस्त लोग इसे महबूब खान कहा करते हैं. महबूब खान, जिन्होंने ‘गोरे अमेरिकियों’ को उन्हीं के दरवाज़े पर जाकर ‘मदर इंडिया’ की ताक़त दिखाई. उन्हें बताया कि कैथरीन ने जो तस्वीर अपने लफ़्ज़ों के जरिए पेश की, वह झूठ है. अस्ल ‘मदर इंडिया’ कुछ और ही हुआ करती हैं. अलग ही मिट्टी की बनी होती हैं. यह ‘मदर इंडिया’ अपने बच्चों को बचपन से पढ़ाती, सिखाती है कि ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा’. मतलब कि हालात कैसे भी हों, कितने भी उलट हों, उनके सामने हार नहीं माननी है. घुटने नहीं टेकने हैं. यह ‘मदर इंडिया’ बच्चों को हौसले की जन्म घुट्टी देती है, ‘गिर गिर के मुसीबत में संभलते ही रहेंगे, जल जाएं मगर आग पे चलते ही रहेंगे’. यह ‘मदर इंडिया’ किसी लालची सूदख़ोर की बेजा शर्तों के सामने झुकती नहीं.
यह ‘मदर इंडिया’ अपनी आबरू के सौदे में फ़ायदा लेने के बजाय बैल की तरह अपने कंधों पर हल खींचना पसंद करती है. मेहनत, मशक़्क़त करने को तरज़ीह देती है. संघर्ष और स्वाभिमान का रास्ता अपनाती है. यह ‘मदर इंडिया’ नाइंसाफ़ी के सामने झुकती नहीं है और किसी को अन्याय, अत्याचार के रास्ते पर चलने भी नहीं देती. फिर भले वह उसकी अपनी औलाद क्यों न हो. अत्याचारी, अन्यायी को यह ‘मदर इंडिया’ पहले समझाती, बुझाती है. विरोध जताती है और जब इससे काम न चले तो ख़ुद बंदूक उठाकर नाइंसाफ़ी करने वाले को रास्ते से हटा देती है. तब यह ‘मदर इंडिया’ ये भी नहीं सोचती कि जिस पर उसने बंदूक तानी है, गोली चलाई है, उसे ही कभी छाती से लगाकर दूध पिलाया था उसने. पालकर बड़ा किया था. सो, जाहिर तौर पर यह ‘मदर इंडिया’ जब उन्हीं ‘गोरे अमेरिकियों’ की दहलीज़ पर क़दम रखती है, तो वे उसके सज़दे में झुक जाते हैं.
जी जनाब, ‘मदर इंडिया’ (1957 की फिल्म) की यह आला तस्वीर उसी महबूब खान की जानिब से निखरी, जिसने छुटपन में फिल्मों के जरिए अपनी बात कहने का मंसूबा बांध लिया था. गुजरात के नवसारी जिले में एक क़स्बा है, बिलिमोरा. वहीं महबूब खान की पैदाइश हुई. साल 1907 के सितंबर महीने की नौ तारीख़ को. वालिद इनके पुलिस में हुआ करते थे. लेकिन महबूब खान को फिल्मों का चस्का लग गया. घर से भागकर फिल्में देखने का हुनर बहुत कम उम्र में ही आ गया था. इस चक्कर में पढ़ाई भी नहीं हो पाई. उल्टा पिटाई ज़रूर हो जाया करती थी. लेकिन इन्हें कोई फ़र्क न पड़ता. ऐसे ही चलता रहता. इसी सिलसिले के बीच में इन्हें फिर बंबई का पता भी मिल गया. माने ये कि जिन फिल्मों के पीछे ये दीवाने हुए जाते हैं, वे बंबई में बना करती हैं. सो, जब 15-16 बरस के थे, तभी एक रोज़ घर से भाग निकले, बंबई जाने के लिए.
लेकिन अभी बंबई में सही तरह से पैर टिकाते कि वालिद को पता चल गया और वे कान पकड़कर इन्हें वापस गांव ले आए. यहां लाकर शादी कर दी. यह सोचकर कि इसके बाद शायद लड़का सुधर जाएगा. मगर जनाब, इनकी बेगम भी इन्हें रोक न सकीं. दो-तीन बरस बाद ही ये फिर घर से भाग निकले और वह भी पूरी तैयारी के साथ. इन्हें अब तक नूर मोहम्मद अली मोहम्मद के बारे में पता चल चुका था. वही नूर मोहम्मद, घुड़साल वाले, जो फिल्मों की शूटिंग के लिए घोड़ों का बंदोबस्त किया करते थे. नूर मोहम्मद साहब महबूब खान के गांव, क़स्बे के ही थे. तो, दोनों की जान-पहचान बन गई और उन्होंने महबूब खान को अपने साथ लगा लिया काम पर. यहीं से महबूब खान ने रास्ता बनाया फिल्मों का और धीरे से ‘इंपीरियल फिल्म कंपनी’ में बतौर एक्सट्रा कलाकार काम करने लगे. यह कंपनी मशहूर फिल्मकार अर्देशिर ईरानी ने बनाई थी, 1926 में.
तो जनाब, ‘इंपीरियल फिल्म कंपनी’ में महबूब खान की महीने की तनख़्वाह थी 30 रुपए. यह दौर बे-आवाज़ फिल्मों का हुआ करता था. महबूब खान इस वक़्त तक अदाकारी का शौक़ रखते थे. सो, उसी का रास्ता बनाने के लिए उन्होंने साल 1927 की फिल्म ‘अली बाबा और 40 चोर’ में एक्सट्रा के तौर पर काम शुरू कर लिया. इसके बाद 1929 की फिल्म ‘शिरीन खुसरो’ में उन्हें मुख्य अदाकार की तरह भी काम मिल गया. फिर जब अर्देशिर ईरानी हिन्दुस्तान की पहली बोलती फिल्म ‘आलम-आरा’ बनाने की तैयारी कर रहे थे, तो बताते हैं कि उन्होंने उसमें महबूब खान को बतौर अदाकार लेने का फ़ैसला कर लिया था. लेकिन उन्हें जानने वालों ने मशवरा दिया कि एक तो बोलती फिल्म बनाने का जोख़िम, ऊपर से नया अदाकार. ऐसा करना ठीक न होगा. सो, ‘आलम आरा’ में फिर ले लिया गया मास्टर विट्ठल को, जो उस वक़्त अदाकारी में नाम बना चुके थे.
जनाब, इसके बाद तीन-चार साल और महबूब खान ने फिल्मों में अदाकारी की. लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हो गया कि वे अदाकारी के बजाय फिल्मों के डायरेक्शन में कहीं ज़्यादा बेहतर कर सकते हैं. लिहाज़ा वे आ गए फिल्मों के निर्देशन में. पहली फिल्म बनाई, साल 1935 में, ‘अल-हिलाल’ यानी अल्लाह का इंसाफ़. इस पहली फिल्म में ही उन्होंने हॉलीवुड की फिल्म ‘द साइन ऑफ़ द क्रॉस’ की जो झलक दिखाई, उसकी काफ़ी तारीफ़ की गई. इसके बाद तो महबूब पूरी तरह फिल्मों के निर्देशन में ही लग गए. साल 1930 के बाद की दहाई के आख़िरी सालों में इन्होंने नेशनल स्टूडियो के साथ काम शुरू कर दिया था. यहां इन्होंने पहली फिल्म निर्देशित की ‘औरत’. साल 1940 की बात है. यही वह फिल्म थी जनाब, जो 17 बरस बाद ‘मदर-इंडिया’ की सूरत में ‘गोरे अमेरिकियों’ के सामने उन्हें उनकी ग़लती का एहसास कराने उनकी चौखट तक पहुंची थी.
अमेरिका में दुनियाभर की चुनिंदा फिल्मों को जो अकादमी अवॉर्ड दिया जाता है न, उसे फिल्म जगत का सबसे बड़ा तमगा कहा जाता है. लोग इसे ‘ऑस्कर अवॉर्ड’ के नाम से जानते हैं. उसी के लिए पहली बार हिन्दुस्तान से जो फिल्म भेजी गई, वह थी महबूब खान की ‘मदर इंडिया’. साल 1957 की ही बात है. इस फिल्म को विदेशी ज़बान की सबसे अच्छी फिल्म के तौर पर अवॉर्ड के लिए शामिल किया गया था. हालांकि अवॉर्ड इसे मिला नहीं. बताते हैं, एक वोट से चूक गई थी ‘मदर इंडिया’ और किसी इतालवी फिल्म को अवॉर्ड मिला था. हालांकि अपने मक़सद से बिल्कुल नहीं चूकी ‘मदर इंडिया’. इस फिल्म को ‘भारत की माता’ का जो रुतबा दुनिया भर में जमाना था, वह जमा दिया इसने. और इसी के साथ महबूब खान को भी अमर कर दिया, हमेशा के लिए. भले वे ज़िस्मानी तौर पर इस दुनिया को बहुत पहले (28 मई 1964 को) ही क्यों न छोड़ गए हों.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 09, 2022, 06:38 IST