दास्तान-गो : परंपरा वाले शास्त्रीय संगीत में जो लकीर छोड़कर चलें वे हैं प्रभा अत्रे

Daastaan-Go ; Classical Singer Prabha Atre Birth Anniversary : प्रभा ताई ने रेडियो छोड़कर जब मुंबई के एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया तो वहां भी ख़ास तौर पर शिष्याओं को समझाया, ‘संगीत का मतलब सिर्फ़ संगीत पेश करना नहीं होता. बल्कि खुली आंखों से यह देखना, समझना होता है कि हम क्या काम कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? कैसे कर रहे हैं? फिर इन्हीं बातों को दूसरों को समझाना भी सांगीतिक-कर्म है’. इस तरह, ‘प्रभा ताई’ ने शागिर्दों, शिष्य-शिष्याओं की अगली पीढ़ी तैयार की. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में योगदान दिया. अपनी राह, अपनी जगह बनाई. इसके लिए उन्हें इसी साल ‘पद्म विभूषण’ जैसा बड़ा सम्मान भी मिल चुका है.

दास्तान-गो : परंपरा वाले शास्त्रीय संगीत में जो लकीर छोड़कर चलें वे हैं प्रभा अत्रे
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…  ———– जनाब, हिन्दुस्तान का शास्त्रीय संगीत परंपराओं से चलता है, ऐसा मानते हैं. शास्त्रीय संगीत की इस दुनिया में घराने होते हैं. घरानेदार होते हैं. इनके अपने तरीके, अपनी शैलियां हुआ करती हैं. घराने के उस्ताद, गुरु उसे अपने शागिर्दों को, शिष्यों को सिखाते, बताते हैं. यह ताकीद करते हैं कि ये तरीके, यह शैलियां इसी तरह आगे बढ़नी चाहिए. अगली पीढ़ी के शिष्यों, शागिर्दों में जानी चाहिए. ताकि घराने की अपनी ख़ासियत बनी रहे. और यह होता भी है, बड़े अनुशासन के साथ. हालांकि चुनिंदा संगीतकार ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने समझ बढ़ जाने के बाद इस तरह की खिंची हुई लकीरों पर चलने से इंकार कर दिया. संगीत की ख़ूबसूरती जहां से भी मिली, वह ली उन्होंने. उसका अपने संगीत में उतनी ही सुंदरता के साथ इस्तेमाल किया. तार्किक तरीके से सोचते हुए और राग संगीत की विशिष्टता बनाए रखते हुए अपनी अलग राह बनाई. अलहदा पहचान स्थापित की. ऐसे चुनिंदा संगीतकारों में इन दिनों बड़ा नाम है प्रभा अत्रे जी का. जानने वाले ‘प्रभा ताई’ कहकर बुलाते हैं उन्हें. उन्होंने आज, 13 सितंबर को अपनी उम्र के 90 साल पूरे कर लिए हैं. बहुत दिलचस्प है इनकी कहानी क्योंकि ये उन चुनिंदा लोगों में भी शुमार होती हैं, जो अपने ख़ानदानी पेशे से भी अलग राह पकड़कर चले और उसमें बलंदी को छुआ. जी जनाब, अमूमन होता तो यही है न कि डॉक्टर की औलाद डॉक्टर बन जाए और इंजीनियर की इंजीनियर. नेताओं की औलादों को सियासत आसान लगती है और अगर कोई शिक्षक, शिक्षिका है तो उसकी संतान को वह पेशा खींचता है. लेकिन ‘प्रभा ताई’ इस मामले में भी लकीर छोड़कर ही चलीं. पुणे में इनके पिता आबासाहेब अत्रे एक स्कूल में हेडमास्टर होते थे. मां इंदिराबाई शिक्षिका थीं. और जब साल 1932 में ‘प्रभा ताई’ का जन्म हुआ, तब तक परिवार में संगीत से किसी का कोई वास्ता नहीं था. तभी, जब ‘प्रभा ताई’ की उम्र आठ बरस के आस-पास रही होगी कि घर में एक वाक़ि’आ हो गया. मां की तबीयत कुछ इस तरह ख़राब हुई कि उनका पूरा ध्यान अब अपनी बीमारी की तरफ़ ही लगा रहता. उस सूरत में इनके पिताजी को किसी जानने वाले ने मशवरा दिया, ‘आप भाभी जी को संगीत क्यों नहीं सिखवाते. उनका ध्यान उसमें लग जाएगा तो वे बीमारी के बारे में सोचना कम कर देंगी. और धीरे-धीरे बंद भी’. पिताजी को बात ठीक लगी और उन्होंने पत्नी के लिए हारमोनियम की शिक्षा का बंदोबस्त कर दिया. एक गुरुजी घर आकर उन्हें हारमोनियम सिखाने लगे. लेकिन अभी हफ़्ता भी ब-मुश्किल बीता था कि माताजी ने हाथ खड़े कर दिए. अपने पति से वे बोलीं, ‘मुझे नहीं सीखना यह हारमोनियम वग़ैरा. आप बोल दीजिए गुरुजी को’. तब ‘प्रभा ताई’ के पिताजी कुछ असमंजस में पड़ गए क्योंकि हारमोनियम सिखाने वाले गुरुजी उनके अच्छे परिचित थे. गुरुजी से साफ मना कर पाने में पिताजी को मुश्किल महसूस की तो उन्होंने ‘प्रभा ताई’ को आगे कर दिया. गुरुजी से यह कहते हुए कि ‘आप इसे सिखाइए’. इस तरह ‘प्रभा ताई’ की संगीत-शिक्षा शुरू हुई. धीरे-धीरे ‘प्रभा ताई’ संगीत में कुशल हो रहीं थीं. उनका गाना, उनकी आवाज़ सुनने वालों का ध्यान खींचने लगी थी. हालांकि अब तक किसी ने यह नहीं सोचा था कि संगीत ही ‘प्रभा ताई’ का हमराह बनने वाला है. तो ऐसे ही, एक रोज़ संगीत के कोई अच्छे जानकार ‘प्रभा ताई’ के घर आए. उस वक़्त वे रियाज़ कर रहीं थीं. उसे सुनकर उन साहब ने ‘प्रभा ताई’ के पिताजी से कहा, ‘बिटिया तो अच्छा गाने लगी है. इसे आप विधिवत् संगीत की शिक्षा क्यों नहीं दिलवाते’. तब पिताजी बोले, ‘मशवरा तो अच्छा है. मगर मैं ऐसे किसी गुरु को जानता नहीं हूं’. ‘अरे मैं जानता हूं न. आप चलिए मेरे साथ’. वे साहब किराना घराने के गायक सुरेशबाबू माने के मित्र हुआ करते थे. लिहाज़ा, वे ‘प्रभा ताई’ और उनके पिताजी को सुरेशबाबू के पास ले गए. सुरेशबाबू सिर्फ़ घरानेदार नहीं, खानदानी गवैये थे. उनकी बहन हीराबाई बडोदेकर भी किराना घराने की ही नामी गायिका होती थीं. ऐसे लोगों के सामने ‘प्रभा ताई’ जब पिताजी के साथ पहुंची तो कुछ घबराई सी थीं. लेकिन जल्द ही उनके लिए माहौल सहज हो गया. सुरेशबाबू जी ने ‘प्रभा ताई’ से कुछ सुनाने के लिए कहा. उन्होंने एक राग और एक ठुमरी गाकर सुनाई, ‘का करूं सजनी, आए न बालम’. और इस इम्तिहान में वे कामयाब रहीं. सुरेशबाबू जी ने उन्हें अपना शागिर्द बनाने की हामी भर दी. इस तरह अब कुछ संजीदगी से ‘प्रभा ताई’ की संगीत-शिक्षा शुरू हुई. हालांकि अब तक भी उनके ज़ेहन में ये बात कहीं नहीं थी कि पूरी तरह उन्हें संगीतकार ही बनना है. इसीलिए पढ़ाई के तौर पर उन्होंने बायोलॉजी से ग्रेजुएशन की डिग्री ले ली. फिर पुणे यूनिवर्सिटी से ही कानून की डिग्री भी. इधर, संगीत का जहां तक त’अल्लुक़ रहा तो उसमें उन्होंने डिप्लोमा ही किया. गंधर्व महाविद्यालय मंडल मुंबई से. जबकि संगीत की औपचारिक शिक्षा सुरेशबाबू जी के साथ-साथ अब हीराबाई से भी चल रही थी. फिर भी, अब तक यह सोच नहीं बनी थी संगीत को करियर बनाना है. अलबत्ता, ये तय हो चुका था कि वकील की हैसियत से सच को झूठ और झूठ को सच करने का काम नहीं हो पाएगा. मेडिकल साइंस की फील्ड में बढ़ते हैं, तो चीर-फाड़ का काम मुश्किल होने वाला है. तो फिर अब करें तो क्या? इसी बीच, साल 1960 में ऑल इंडिया रेडियो में एक जगह निकली, असिस्टेंट प्रोड्यूसर के लिए. सो, फॉर्म भर दिया. इस ओहदे के लिए चुन भी ली गईं और आकाशवाणी रांची में काम शुरू कर दिया. यहां, आकाशवाणी में काम के दौरान जो माहौल मिला, उसने यह पुख़्ता कर दिया कि अब ‘प्रभा ताई’ का अस्ल हमसफ़र सिर्फ़ और सिर्फ़ संगीत ही होने वाला है. रेडियो में काम करते हुए ‘प्रभा ताई’ की वाक़िफ़ियत तमाम संगीतकारों से हुई. जैसे- उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली, रोशन आरा बेगम, उस्ताद अमीर खां, वग़ैरा. इनमें से उस्ताद अमीर खां ने तो खींच ही लिया अपनी तरफ़ ‘प्रभा ताई’ को. ग़ौर कीजिए, ये वही उस्ताद अमीर खां हैं, जिनसे शास्त्रीय संगीत का इंदौर घराना शुरू होता है. जिन्हें ‘तराने का तानसेन’ कहा जाता है. जिन्होंने खंड-मेरु की 5,040 तानें बचपने में ही याद कर ली थीं. इसके बाद आगे चलकर ‘सरगम’ के रूप में इन तानों का उन्होंने अपने संगीत में ख़ूबसूरती से इस्तेमाल भी किया. उनकी यही ख़ासियत ‘प्रभा ताई’ को भा गई थी. लिहाज़ा जब उन्होंने संगीत में पीएचडी की तो उसका विषय यही चुना, ‘सरगम’. इसी बीच जनाब, बात आई शादी की. लेकिन यहां भी ‘प्रभा ताई’ का फ़ैसला वही, ‘पहले से खिंची लकीर पर नहीं चलना है’. सो, शादी नहीं की. वैसे, संगीत तो हमराह, हमसफ़र हो ही चुका था अब. फिर जनाब, जब बतौर संगीतकार ‘प्रभा ताई’ स्थापित हो गईं, देश-दुनिया में उनका नाम हो गया, तब भी उनमें लगातार यह झलक मिलती रही कि ‘लकीर छोड़कर चलना है’. यानी शास्त्र में, किताबों में, घरानों की परंपराओं वग़ैरा में जो कहा, बताया जा रहा है, उसे आंख बंद कर के नहीं मानना है. उस पर विचार करना है. तर्क की कसौटी पर कसना है. खरा उतरे तो मानना है. नहीं तो वह राह पकड़नी है, जो संगीत की ख़ूबसूरती बढ़ाने में मददग़ार हो. सुनने वालों के आनंद में बढ़ोत्तरी करने में काम आती हो. अपनी इस सोच को उन्होंने ख़ुद की लिखी किताबों के जरिए भी ज़ाहिर किया. जैसे- ‘स्वारांगिनी’ और ‘स्वरांजनी’. ये उनकी रची हुई बंदिशों की किताबें हैं. इनमें कई नए राग मिलेंगे. मसलन- ‘अपूर्व-कल्याण’, ‘दरबारी-कौंस’, ‘पटदीप-मल्हार’, ‘तिलंग-भैरव’, ‘रवि-भैरव’, वग़ैरा. इस तरह के राग ‘प्रभा ताई’ ने ख़ुद बनाए हैं. उनका आविष्कार किया है. इसके अलावा ‘प्रभा ताई’ की एक और किताब है, ‘एनलाइटनिंग द लिसनर- कंटेंपररी नॉर्थ इंडियन क्लासिकल वोकल म्यूज़िक परफॉरमेंस’. इसमें वे कुछ बड़े सहज से सवाल उठाती हैं. मसलन- संगीत सुनने वाले को अक्सर ये पता नहीं होता कि कौन सा राग दिन, रात के किस प्रहर का है. हालांकि, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों का समय तय है. जैसे- ‘भैरव’, सुबह के वक़्त का राग है, तो ‘भूप’ या ‘भूपाली’ शाम का. ऐसे ही ‘भीमपलाश’ को दोपहर बाद गाते-बजाते हैं तो ‘बागेश्री’ को रात में दूसरे पहर के बाद. लेकिन सुनने वालों को अक़्सर इस बारीक़ी से मतलब नहीं होता. उन्हें तो जब जो अच्छा लगे, सुन लेते हैं. सुनकर वह उस राग का आनंद भी पूरा लेते हैं. तो फिर गाने, बजाने वाले फ़नकारों के लिए ही समय का यह नियम क्यों? ऐसी और भी गुत्थियां मिलती हैं उनकी इस किताब में. साथ ही, ऐसी गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश भी नज़र आती है. इन कोशिशों के बीच ‘प्रभा ताई’ अक्सर कहती हैं, ‘कला हमेशा पहले होती है. शास्त्र बाद में आता है. समय के साथ कला में तब्दीलियां आती हैं तो उसके मुताबिक शास्त्र भी बदलने चाहिए. शास्त्र को कला पर हावी नहीं होना चाहिए’. प्रभा ताई ने रेडियो छोड़कर जब मुंबई के एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया तो वहां भी ख़ास तौर पर शिष्याओं को समझाया, ‘संगीत का मतलब सिर्फ़ संगीत पेश कर देना नहीं होता. बल्कि खुली आंखों से यह देखना, समझना होता है कि हम क्या काम कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? कैसे कर रहे हैं? फिर इन्हीं बातों को दूसरों को समझाना भी सांगीतिक-कर्म का हिस्सा है’. इस तरह, ‘प्रभा ताई’ ने अपने शिष्य-शिष्याओं की अगली पीढ़ी तैयार की है. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अपना योगदान दिया है. अपनी राह, अपनी जगह बनाई है. इसके लिए उन्हें इसी साल ‘पद्म विभूषण’ जैसा बड़ा सम्मान भी मिल चुका है. हालांकि इससे बड़ी बात ‘प्रभा ताई’ के लिए यक़ीनन वह हुई होगी, जब किराना घराने के ही दिग्गज ‘भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी’ ने उन्हें अपनी परंपरा आगे बढ़ाने के लिए चुना. ये साल 2006 की बात है. पंडित भीमसेन जोशी तब पुणे में होने वाले संगीत के सालाना जलसे ‘सवाई गंधर्व संगीत महोत्सव’ को बंद करने के बारे में सोच रहे थे. यह जलसा उन्होंने ही 1953 में अपने गुरु सवाई गंधर्व की याद में शुरू किया था. इसकी मशहूरियत ऐसी है कि कहते हैं, कई लोग तो रात के वक़्त ही टिकट खिड़कियों के बाहर आकर जमा हो जाते हैं. ताकि सुबह-सवेरे उन्हें सबसे पहले टिकट मिल सकें. हालांकि पंडित जी की सेहत ने जब उनका साथ देने से मना किया तो जलसे को चलाते रहना उनके लिए मुश्किल होने लगा. मगर तभी ‘प्रभा ताई’ तस्वीर में नुमायां हुईं और उन्होंने यह ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. इसके बाद वह सिलसिला रुका नहीं फिर. बल्कि साल 2011 में पंडित जी के निधन के बाद से तो अब यह ‘सवाई गंधर्व भीमसेन महोत्सव’ के नाम से आयोजित होने लगा है. ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें up24x7news.com हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट up24x7news.com हिंदी | Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 13, 2022, 06:50 IST