दास्तान-गो : ‘द्रौपदी मुर्मू के पुरखे’ थे जिन्होंने 1857 से पहले ही अंग्रेजों के ख़िलाफ हथियार उठा लिए
दास्तान-गो : ‘द्रौपदी मुर्मू के पुरखे’ थे जिन्होंने 1857 से पहले ही अंग्रेजों के ख़िलाफ हथियार उठा लिए
Daastaan-Go ; Draupadi Murmu and Contribution of Santhali in India;s Freedom Fight : अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ़ रूरल बंगाल’ (ग्रामीण बंगाल का क्रमिक इतिहास) में वे लिखते हैं, ‘अंग्रेजी फ़ौज का तब कोई सिपाही ऐसा न रहा, जिसे क़बीलाई-बाशिंदों के क़त्ल-ए-आम पर शर्मिंदगी न हुई हो.’ मगर जनाब हिन्दुस्तान में शायद ही कुछेक लोगों को इस बात का अफ़सोस होता हो कि मुल्क के लिए मर मिटने वाले ऐसे अहम तारीख़ी-किरदारों को यूं ही भुला दिया गया.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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साल 1774 के आस-पास का वाक़्या है यह. अंग्रेज अभी हिन्दुस्तान में अपनी जड़ें ठीक से जमा नहीं पाए थे. लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तान की जड़ों यानी जल, जंगल ज़मीन के रिवायती निज़ामों (परंपरागत व्यवस्थाओं) पर चोट करना शुरू कर दिया था. बंगाल से शुरुआत हुई थी इसकी, जहां बड़ी तादाद में क़बाइली-इलाके (आदिवासी क्षेत्र) फैले हुए थे. जल, जंगल, ज़मीन ही उनके माई-बाप, उनका ख़ुदा थे. ज़ाहिरन इन पर चोट हुई तो वे बर्दाश्त न कर सके. बताते हैं, तब संथाल परगना में अमरापाड़ा के इर्द-गिर्द इलाकों से कुछ क़बाइली-सरदार हुए- तिलका मांझी उर्फ़ जबरा, करिया पुजहर और रमना अहाड़ी. इन सभी ने मिलकर अपने कबीलों को लाम-बंद किया और अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ सीधी लड़ाई छेड़ दी. हथियारबंद लड़ाई. हिन्दुस्तान की तारीख़ (इतिहास) में अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ पहली ऐसी बग़ावत. आज के झारखंड की पहाड़ियों के बीच की एक बसाहट रामगढ़ में अंग्रेजों ने तंबू गाड़ लिया था तब. संथालियों ने अंग्रेजों के इस खेमे पर धावा बोल दिया.
अंग्रेज शायद इस औचक हमले के लिए तैयार न थे. बड़ी तादाद में मारे गए. जो बच रहे, वे भाग निकले. साल 1778 का वाक़्या बताते हैं इसे. तब अंग्रेज अफ़सर ऑगस्टस क्लीवलैंड उस इलाके में कलेक्टर हुआ करते थे. उन्होंने सख़्ती का फ़रमान निकाला तो क़बाइली-सरदारों ने 1784 में उन्हें ही ठिकाने लगा दिया. इससे अंग्रेज-सरकार बौखला गई. उसने अपने तेज-तर्रार लड़ाका अफ़सर लेफ्टिनेंट जनरल आइर कूट की अगुवाई में बड़ी फ़ौज क़बाइली-सरदारों से मुक़ाबले के लिए भेजी. इस फ़ौज ने भारी क़त्ल-ए-आम मचाया. तिलका मांझी को ग़िरफ़्तार कर लिया गया. उन्हें रस्सियों से बांधा गया. और चार घोड़ों के पीछे बांधकर घसीटते हुए भागलपुर तक लाया गया, जहां इन लोगों ने क्लीवलैंड को मारा था. मगर बताते हैं कि मीलों इस तरह घसीटे जाने के बा-वजूद तिलका मांझी की मौत न हुई. बल्कि भागलपुर पहुंचने के बाद जब अंग्रेजों ने उन्हें देखा तो उनका खून से लथपथ ज़िस्म पहले सी अकड़ के साथ ज़मीन से लगा हुआ था. खून से सने चेहरे पर उभरी सुर्ख़ लाल आंखें अपने दुश्मन दिकुओं (बाहरी, अंग्रेज) को घूर रही थीं. घूरना क्या, डरा रहीं थीं.
अंग्रेज बे-शक बुरी तरह डर गए थे. लिहाज़ा उन्होंने आनन-फ़ानन में तिलका को उठाया और एक बड़े बरगद के सहारे टिका दिया. उन्हें सर-ए-आम फ़ांसी पर लटकाने की तैयारियां शुरू हो गईं. लेकिन तिलका अब भी दुश्मन दिकुओं को घूरे जा रहे थे. बल्कि अब तो मुस्कुरा भी रहे थे. लरज़ती सी आवाज़ में बुदबुदा रहे थे, ‘हांसी-हांसी, चढ़बो फ़ांसी’ यानी ‘हंसते-हंसते फ़ांसी चढ़ेंगे.’ फ़ंदे को चूमकर ऐसा वे कहते रहे, हंसते रहे और अंग्रेजों ने उन्हें फ़ांसी पर चढ़ा दिया. तारीख़ 17 जनवरी 1785 की बताई जाती है ये. कहते हैं, इसके बाद अंग्रेजों ने तमाम क़बाइली-बाशिंदों को इसी तरह फ़ांसी पर लटकाया और सब अपने तिलका सरदार की तरह यही कहते हुए फ़ंदे पर झूले कि ‘हांसी-हांसी, चढ़बो फ़ांसी.’ अंग्रेज जीतकर भी क़बाइली-बाशिंदों को हरा न सके. क्योंकि उनके सरदार उन्हें जीतने और आगे भी इसी तरह जीतते रहने की राह दिखाकर चले गए थे.
आज मुअर्रिख़ों (इतिहासकारों) में इस बात को लेकर बहस हुआ करती है कि तिलका मांझी अस्ल में पहाड़िया थे या संथाली. मगर ज़्यादातर उन्हें संथाली ही बताया करते हैं. और उनका गोत्र मुर्मू. वही समाज, जिसे हिन्दुस्तान अब बड़ी इज़्ज़त देने जा रहा है. क्योंकि इसी समाज की मौज़ूदा पीढ़ी की नुमाइंदगी करने वाली द्रौपदी मुर्मू जल्द ही हिन्दुस्तान की सद्र-ए-मुल्क (राष्ट्रपति) होने वाली हैं. इस हैसियत से अपने पुरखों की शान में चार चांद लगाने वाली हैं.
अलबत्ता, द्रौपदी मुर्मू के ऐसे पुरखों में तिलका मांझी अकेले नहीं हुए. तारीख़ में कुछ और नाम भी आते हैं. मसलन- सीदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू. तारीख़ी-किताबों में इन्हें भी अहमियत कम ही मिली है. जबकि वे ऐसे मक़ाम पर खड़े पाए जाते हैं, जहां उन्हें 1857 की बग़ावत से भी पहले का हथियार-बंद बाग़ी कहना चाहिए. क्योंकि क़रीब दो बरस पहले 1855 में इसी जून महीने की 30 तारीख़ से इन सरदारों की अगुवाई में संथाल क़बीलाई-इलाकों से एक और आंधी उठी थी. ‘हूल’ कहते हैं उसे, मतलब भाले, डंडे या छुरे की नोक से किसी को ठेलना. अंग्रेजों के ख़िलाफ यही किया गया था इस ‘हूल’ के दौरान. सीदो और कान्हू के साथ चांद, भैरव और उनकी बहनें फूलो, झानो थीं. और 400 गांवों के 40,000 के आस-पास क़बीलाई-बाशिंदे भी. कहते हैं, इन्हीं के बीच पहली बार ‘करो या मरो’ का नारा गूंजा था. यही से आवाज़ें उठी थीं, ‘अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो’. वे नारे, जो हिन्दुस्तान की आज़ादी तक गूंजते रहे फिर.
बताते हैं, अंग्रेजों ने इस बग़ावत को ताक़त के ज़ोर पर बुरी तरह कुचला था. सीदो और कान्हू को भोगनाडीह गांव में सर-ए-आम फ़ांसी पर चढ़ा दिया गया. उनकी बहनों को मार डाला गया. क़रीब 20,000 क़बाइली-बाशिंदों का क़त्ल किया गया. इस क़त्ल-ए-आम का ज़िक्र अंग्रेजों के ही मुअर्रिख़ विलियम विल्सन हंटर ने भी किया है. आला-अफ़सर की हैसियत से हिन्दुस्तान में तैनात रहे वे लंबे समय तक. अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ़ रूरल बंगाल’ (ग्रामीण बंगाल का क्रमिक इतिहास) में वे लिखते हैं, ‘अंग्रेजी फ़ौज का तब कोई सिपाही ऐसा न रहा, जिसे क़बीलाई-बाशिंदों के क़त्ल-ए-आम पर शर्मिंदगी न हुई हो.’ मगर जनाब हिन्दुस्तान में शायद ही कुछेक लोगों को इस बात का अफ़सोस होता हो कि मुल्क के लिए मर मिटने वाले ऐसे अहम तारीख़ी-किरदारों को यूं ही भुला दिया गया. बड़ी देर तक उन्हें उनके हिस्से का रुतबा (महत्ता) नहीं दिया गया.
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