दास्तान-गो : ‘हमारा बैंक सुबह नौ बजे खुलेगा फिर कभी बंद नहीं होगा’!
दास्तान-गो : ‘हमारा बैंक सुबह नौ बजे खुलेगा फिर कभी बंद नहीं होगा’!
Daastaan-Go ; ATMs Story : एक वेबसाइट है, ‘स्टेटिस्टा’. तमाम तरह के आंकड़े पुख़्ता तौर पर मुहैया कराने के लिए जानी जाती है. इसके मुताबिक, साल 2020 तक पूरी दुनिया में हर एक लाख वयस्क लोगों पर 41.24 ‘एटीएम’ काम कर रहे थे. हिन्दुस्तान भी पीछे नहीं है. इसी वेबसाइट की मानें तो हिन्दुस्तान में साल 2021 में 2.38 लाख एटीएम काम कर रहे थे. जबकि हिन्दुस्तान में एटीएम की आमद बाद में हुई.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, यह साल 1969 की बात है. सितंबर का ही महीना था. तारीख़ दो, जो कि आज है. अमेरिका के न्यू यॉर्क में एक जगह है रॉकविले सेंटर. वहां कैमिकल बैंक की ब्रांच थी. उस पर बीते एक-दो दिन से आने-जाने वाले ग्राहकों के लिए विज्ञापन टंगा हुआ था. लिखा था, ‘दो सितंबर को हमारा बैंक सुबह नौ बजे खुलेगा, फिर कभी बंद नहीं होगा’. बड़ा ‘अज़ब सा मामला था. हर किसी के लिए सोचने लायक कि ऐसा कैसे होता है कि कोई बैंक खुले और फिर कभी बंद न हो? क्या लोगों की जगह कोई मशीन-वशीन लेने वाली है? होने क्या वाला है आख़िर? ऐसे सवालों के ज़वाब जानने में तमाम लोगों की दिलचस्पी पैदा हो गई. सो, दो तारीख़ को अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हुई बैंक के सामने. बैंक अपने तय वक़्त पर खुला. वहां लोग दाख़िल होने लगे तो पाया कि दरवाज़े के बगल में छोटी सी कमरानुमा जगह निकालकर वहां एक मशीन रख दी गई है.
यहां तक भी ठीक था. क्योंकि किसी को इस बदलाव के बारे में ज़्यादा कुछ अंदाज़ा था नहीं. वे तो इस सवाल का ज़वाब जानना चाहते थे कि बैंक आज के बाद आख़िर 24 घंटे और हफ़्ते के सातों दिन खुला कैसे रहने वाला है? और जनाब, जल्द ही उन्हें भीतर इस सवाल का ज़वाब मिलने लगा. वहां बैंक के कर्मचारी आने वाले ग्राहकों को लगातार पेशकश कर रहे थे कि वे ‘अपने ख़ाते के साथ जुड़ा हुआ एक प्लास्टिक कार्ड ले लें. बैंक ही उसे उपलब्ध कराएगा. उस कार्ड की मदद से बाहर जो दरवाज़े के बगल में मशीन रखी है न, उससे 24 घंटे में जब मर्ज़ी हो, पैसे निकाल सकेंगे’. अब इस पेशकश को लेकर ग्राहकों में कई लोगों को शंका होती. तब उन्हें बताया जाता कि प्लास्टिक के ‘कार्ड में एक ख़ास क़िस्म की मैग्नेटिक-पट्टी लगी है. वह उसे पूरी तरह सुरक्षित बनाती है’. हालांकि इसके बावजूद बहुत से लोगों ने कार्ड लेने की हामी भरी नहीं तब.
मामला नया-नया था न, इसलिए. अलबत्ता, कुछ तरक़्क़ीपसंद लोग थे, वे तैयार हो गए. उन्होंने कार्ड लेकर आज़माइश की और पाया कि वाक़’ई बैंक वाले जो कह रहे हैं, वह सच है. यह तो गज़ब सुविधा हो गई. पैसे निकालने के लिए बैंक का समय देखने की ज़रूरत ही नहीं रही. जब चाहे कार्ड डालो और मशीन से पैसे निकालो. ये लोग ख़ुश थे. अपने तज़रबे दूसरों से बांट रहे थे. और प्लास्टिक के कार्ड की मदद से पैसे देने वाली मशीन अमेरिका में दिनों-दिन मशहूर हो रही थी. इस मशीन का नाम जानते हैं जनाब? जानते ही होंगे. एटीएम यानी ऑटोमैटेड टैलर मशीन. दुनिया में इस मशीन का यह पहला बड़ा तज़रबा था. हालांकि शुरुआत नहीं कहा जा सकता इसे. वह तो दूसरे तज़रबात की तरह इससे भी काफ़ी पहले हो चुकी थी, सिलसिलेवार तरीके से.
जनाब, कॉरपोरेट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूट और हिस्ट्री डॉट कॉम की वेबसाइटों की मानें तो एटीएम की पैदाइश अमेरिका में ही हुई. साल 1960 की दहाई में. उस वक़्त वहां एक बड़े आविष्कारक हुए लूथर जॉर्ज सिमजियान. उन्होंने एक मशीन बनाई, जिसे नाम दिया ‘बैंकोग्राफ’. यह मशीन आज के ‘एटीएम की अम्मा’ कही जा सकती है. यह दिन-रात कभी भी, चैक या नक़द रकम जमा करने के काम आती थी. तो जनाब, सिमजियान ने ‘बैंकोग्राफ’ बनाने के बाद न्यू यॉर्क सिटी बैंक को राज़ी किया कि वह उनकी इस मशीन पर आज़माइश करे. बैंक तैयार हो गया और उसने कुछ मशीनों के साथ तज़रबा किया. अब इन मशीनों के ज़रिए लोग कभी भी चैक, नक़दी जमा करते. मशीन में लगा माइक्रो-फिल्म कैमरा कार्रवाई को ग्राहक की शक़्ल के साथ रिकॉर्ड करता. फिर ग्राहक को उसकी तस्वीर के साथ रसीद मिल जाती. पुख़्तगी के लिए कि भई, रकम जमा हो गई.
हालांकि जनाब, न्यू यॉर्क सिटी बैंक ने छह-सात महीनों में ही इन मशीनों को हटा दिया. वज़ह उस वक़्त ये पाई गई कि आम लोग ‘बैंकोग्राफ’ में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. सिर्फ़ उन्हीं लोगों की इसमें दिलचस्पी है, जो रात में काम-धंधे करते हैं. मसलन- वेश्याएं या जुआ-घरों से कमाई करने वाले. यानी वे लोग जो बैंकों में ख़ुद अपनी सूरत दिखाकर पैसे जमा करने से हिचकिचाते थे. तो इस तरह जनाब, ‘एटीएम की अम्मा’ की कहानी वहीं ख़त्म हो गई. बावजूद इसके ज़्यादातर लोग लूथर जॉर्ज सिमजियान को ही ‘एटीएम का अब्बा’ या हिन्दी ज़बान में कहिए तो ‘एटीएम का जनक’ कहा करते हैं. इसके बाद बताते हैं कि साल 1966 के दौरान कभी, जापान में एक मशीन लगाई गई, जो नक़दी बांटती भी थी, लेकिन उधारी पर. कारोबारी ज़बान में कहें तो इस मशीन से ‘क्रेडिट अकाउंट’ का पैसा ही निकाला जा सकता था. बैंक में जमा ग्राहक के बचत खाते का नहीं.
इसके बाद जो आज के दिनों की एटीएम होती है न, उसके जैसी ही एक मशीन हुक़ूमत-ए-ब्रितानिया में लगाई गई. साल था 1967 का. वहां स्कॉटलैंड में एक आविष्कारक होते थे जॉन शेफर्ड बैरन. साल 1965 की बात है. एक रोज वे पैसे निकालने बैंक पहुंचे तो पाया कि वहां तो लेन-देन का वक़्त ही निकल चुका है. जॉन शेफर्ड को तब पैसों की सख़्त ज़रूरत थी लेकिन बैंक वाले टस से मस न हुए. कहने लगे, ‘भई, वक़्त ख़त्म हो गया है. अब जो होगा, कल होगा. आप कल आइए’. ख़ैर, तब तो जॉन शेफर्ड ने किसी तरह काम चलाया. लेकिन यह वाक़ि’आ उनके दिमाग में जाकर अटक गया कहीं. वे सोचने लगे कि भला, ‘ये भी क्या बात हुई कि आपका पैसा और आप ही उसे ज़रूरत के वक़्त, कभी भी निकाल नहीं सकते. कुछ इंतज़ाम करना होगा’. जनाब, यह सोचते-सोचते, कहते हैं, एक रोज़ उन्हें नहाते वक़्त, एटीएम जैसी मशीन बनाने का ख़्याल आया.
‘एटीएम जैसी’ इसलिए क्योंकि इस तरह की पूरी मशीन तो अमेरिका में ही सामने आई थी, जिसका शुरू में ज़िक्र किया. तो जनाब, जॉन शेफर्ड लग गए काम में. उस वक़्त गोल-मिठाई, जिसे अंग्रेजी ज़बान में कैंडी कहा करते हैं, के लिए ख़ास क़िस्म की मशीनें पश्चिम के मुल्कों में इस्तेमाल की जाने लगी थीं. इनमें इकन्नी, दुअन्नी, चवन्नी, अठन्नी डालने पर मशीन झट से उतने की ही गोल-मिठाई निकालकर दे देती थी. यहीं से जॉन शेफर्ड को सिरा मिला और उन्होंने ऐसी मशीन बना डाली जो पैसे निकालकर दे सकती थी. अब साल आ गया, 1967 का. शेफर्ड ने अपनी मशीन लंदन के बर्कलेज़ बैंक के बड़े अफसरों को दिखाई. उन्होंने इस मशीन को हाथों-हाथ लिया और आनन-फानन में शेफर्ड के साथ एक क़रार कर के इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया. उसी साल जून की 27 तारीख़ थी, जब लंदन के एनफील्ड इलाके में बर्कलेज़ बैंक का ‘एटीएम’ शुरू हो गया.
इस मशीन से पैसे निकालने के लिए बर्कलेज़ बैंक अपने ग्राहकों को एक वाउचर (रसीद जैसा) देता था. उसमें रेडियो-एक्टिव स्याही लगी होती थी. उस वाउचर के ज़रिए ग्राहक किसी भी वक़्त मशीन पर जाकर नक़द रकम निकाल सकते थे. हालांकि रकम निकालने की ऊपरी हद तय थी. ज़्यादा से ज़्यादा 10 पाउंड. पर वह भी उस ज़माने में बहुत हुआ करते थे. तो जनाब, इस तरह पहली बार दुनिया में मशीन के ज़रिए बैंक में ज़मा रकम निकालने का सिलसिला शुरू हुआ, जो आगे फिर बढ़ता ही गया. इसी वज़ह से कहीं-कहीं जॉन शेफर्ड को भी ‘एटीएम का आविष्कारक’ कहा जाता है. हालांकि, लंदन के इस वाक़ि’अे के दो बरस बाद अमेरिका में वह मशीन आई, जो प्लास्टिक के कार्ड की मदद से रकम निकालकर देती थी. डलास के इंजीनियर डोनाल्ड वैजेल ने उसे बनाया था.
जैसा कि पहले ज़िक्र किया, प्लास्टिक के कार्डों में मैग्नेटिक-पट्टी लगी हुई थी. इसके बावज़ूद एक दिक़्क़त थी कि अगर यह कार्ड कहीं गिर जाए, चोरी हो जाए तो? ग्राहक का ख़ाता तो मिनटों में साफ़ ही हो जाना था? इसी वज़ह से ज़्यादातर लोग कार्ड के ज़रिए मशीन से पैसे निकालने से हिचक रहे थे. तो जनाब, लंदन के एक इंजीनियर साहब ने उस हिचक को भी दूर करने का बंदोबस्त कर दिया. नाम ही उनका हुआ ‘गुडफैलो’, यानी ‘भले आदमी’. जेम्स गुडफैलो पूरा नाम. उन्होंने पर्सनल आइडेंटिफिकेशन नंबर का जुगाड़ जमाया, जिसे लोग अब ‘पिन’ कहा करते हैं. यह बात हुई 1970 की. इससे इंतज़ाम हो गया कि जब तक मशीन में ‘पिन’ नहीं डाला जाएगा, वह रकम नहीं देने वाली. भले, ग्राहक ख़ुद ‘पिन’ भूल जाने की सूरत में रकम दे देने की उससे मिन्नतें क्यूं न किया करे. हां, एक बार ‘पिन’ सही डाल दिया तो फिर मशीन को कोई ए’तिराज़ नहीं.
इसके बाद तो जनाब, ‘एटीएम’ ने दुनियाभर में जो मशहूरियत हासिल की है न, क्या कहने उसके. एक वेबसाइट है, ‘स्टेटिस्टा’. तमाम तरह के आंकड़े पुख़्ता तौर पर मुहैया कराने के लिए जानी जाती है. इसके मुताबिक, साल 2020 तक पूरी दुनिया में हर एक लाख वयस्क लोगों पर 41.24 ‘एटीएम’ काम कर रहे थे. हिन्दुस्तान भी पीछे नहीं है. इसी वेबसाइट की मानें तो हिन्दुस्तान में साल 2021 में 2.38 लाख एटीएम काम कर रहे थे. जबकि हिन्दुस्तान में एटीएम की आमद बाद में हुई. यहां साल 1987 में एचएसबीसी बैंक ने मुंबई में पहला एटीएम लगाया.
और जनाब, आजकल तो यह मशीन क्या कुछ नहीं करती, सब जानते ही हैं. जब मर्ज़ी, पैसे निकाल लीजिए. जब मन करे, ज़मा कर दीजिए. बिलों का भुगतान कर दीजिए. बीमा की रकम चुका दीजिए. किसी को दुनिया में कहीं भी पैसा भेजना है, भेज लीजिए. ऐसी तमाम सहूलियतें हैं इस पर. पर हां जनाब, इन सहूलियतों का लुत्फ़ लेते वक़्त एक काम तो बिल्कुल मत कीजिए. अपने ‘पिन’ की भनक किसी और को लग जाए, इस तरह की ग़लती न कीजिए. नहीं तो ‘गुडफैलो-साहब’ ने जो सहूलियत आपको दी है न, उसका फ़ायदा कोई ‘बैडफैलो’ उठा ले जाएगा.
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Tags: Bank ATM, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : September 02, 2022, 06:29 IST