दास्तान-गो : यहां मैं अजनबी हूं मैं जो हूं बस वही हूं… आनंद बख्शी!
दास्तान-गो : यहां मैं अजनबी हूं मैं जो हूं बस वही हूं… आनंद बख्शी!
Daastaan-Go ; Anand Bakshi, Birth Anniversary : उस दौर के तमाम अज़ीम शा’इर और हिन्दी, उर्दू अदब से त’अल्लुक़ रखने वालों को बख्शी साहब के लिखे की यह आसानियत नागवार गुज़रा करती थी. वे कहा करते थे, ‘बख्शी साहब कोई कवि या शा’इर नहीं हैं. वे तो सिर्फ़ तुक-बंदी किया करते हैं.’
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, साल 1965 में एक फिल्म आई थी, ‘जब जब फूल खिले’. उसमें एक मंज़र है. कश्मीर की वादी से एक कम-ता’लीम नौजवान बंबई आया है. या यूं कहिए हालात के वश होकर ले आया गया है. फिल्म में इन हालात से त’अल्लुक़ मोहब्बत से है, जो इस नौजवान से, बंबई शहर की एक अमीर मैम साब को हुई है. उस मैम ने अपनी मोहब्बत को बंबई बुलाकर शहरी बाबू बना दिया है. शहर आकर वह शहरी हालात से वाबस्त नहीं हो पा रहा है. इस बीच, एक महफ़िल सजती है. अमीर मैम साब के ही घर पर. उस महफ़िल में वह नौजवान पहले एक शे’र पढ़ता है, ‘कभी पहले देखा नहीं ये शमां, कि मैं भूल से आ गया हूं कहां’. फिर आगे नग़्मे की शक्ल अपने जज़्बात बयां करता है, ‘यहां मैं अजनबी हूं, मैं जो हूं बस वही हूं, मैं जो हूं बस वही हूं’. फिल्म का ये किस्सा मशहूर अदाकारा नंदा और अदाकार शशि कपूर के इर्द-गिर्द घूम रहा है.
इसके बाद जनाब, एक किस्सा और. साल 1950 के बाद वाली दहाई के आख़िर का. हिन्दुस्तान के बंटवारे के बाद रावलपिंडी, पंजाब (पाकिस्तान) से पुणे, मेरठ के रास्ते दिल्ली आ ठहरे एक मुहाजिरीन (शरणार्थी) ख़ानदान का 25-26 बरस का लड़का (21 जुलाई 1930 की पैदाइश) है. फिल्म में क़िस्मत आज़माने बंबई आया है. इससे पहले उसने कोई 10 साल का वक़्त हिन्दुस्तान की फ़ौज में बिताया है. इस दौरान फ़ौजी की हैसियत से वह जब भी गांव, क़स्बे में गया, बड़ी इज़्ज़त मिली. लोग उसके लिए कुर्सी लाते. पानी लाते. साथी फ़ौजियों के बीच भी रुतबा खूब. क्योंकि उसकी ता’लीम भले आठवें दर्ज़े तक हुई लेकिन वह नग़्मे अच्छे लिखता है. अपने नग़्मों को गुनगुनाता भी सधी आवाज़ में है. सो, इस रुतबे, इज़्ज़त की आदत हो गई है उसे.
मगर जब बंबई पहुंचा तो यहां लोगों ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया. इज़्ज़त, रुतबा पीछे रह गया.
वह जा-जाकर नामी लोगों का दरवाज़ा खटखटाता है. उनसे मिन्नत करता है, ‘जनाब, मैं फ़ौजी हूं. नग़्मे लिखता हूं. मुझे काम की तलाश है.’ ज़वाब उसे अक्सर टका सा मिलता, ‘तो? हम क्या करें?’. तब उस लड़के ने अपने दिल के एहसास को इन लफ़्ज़ों में बयां किया है, ‘यहां मैं अजनबी हूं, मैं जो हूं बस वही हूं, मैं जो हूं बस वही हूं’. उस लड़के का नाम जानते हैं जनाब क्या हुआ? बख्शी आनंद प्रकाश वैद यानी आनंद बख्शी. वही आनंद बख्शी, जिन्होंने आगे चलकर बंबई तो क्या पूरे हिन्दुस्तान में ऐसी पहचान बनाई कि उनके लिखे नग़्मों के हर बोल लोगों को अपने से लगे. उसमें बयां एहसास अपने लगे. उन नग़्मों में ठहरे हालात अपने लगे. और बंबई? जिसने बख्शी को पहचानने से मना कर दिया था? वहीं एक वक़्त फिल्मों के तमाम डिस्ट्रीब्यूटर फिल्में बनाने वालों से कहने लगे, ‘गाने आनंद बख्शी ने लिखे हैं, तो हम फिल्में लेंगे’.
जनाब, हिन्दी सिनेमा के अज़ीम नग़्मा-निगार आनंद बख्शी के साहबज़ादे हैं राकेश. उन्होंने एक-दो बरस पहले ही किताब लिखी है, ‘नग़्मे, किस्से, बातें, यादें’. ज़ाहिर तौर पर ये किताब उनके वालिद के बारे में है. इसमें ऐसी तमाम बातें हैं, जो आनंद बख्शी के ख़ास जानने वालों को भी शायद पता न हों. आम आदमी की तो बात ही क्या. मसलन- राकेश एक जगह बताते हैं, ‘मेरे पिताजी हमेशा अकेलेपन से घबराते थे. घर हो या बाहर उन्हें हर वक़्त किसी न किसी का साथ चाहिए होता था. मुंबई में ‘अजनबी’ होने का एहसास शायद उनके ज़ेहन में भीतर तक जा ठहरा था. फिल्मों के लिए भी जब लिखते तो किसी ‘अजनबी’ की तरह ही. बस, फिल्म बनाने वाले प्रोड्यूसर, डायरेक्टर या संगीतकार के सामने उनकी बताई गई सिचुएशन पर गाने लिखते और घर चले जाते. बल्कि वे तो अपने नग़्मों के साथ भी ‘अजनबी’ की तरह पेश आया करते थे.’
ब-क़ौल राकेश, ‘मैं सच बताऊं. प्रोड्यूसर, डायरेक्टर या संगीतकार को गाना लिखकर दे देने के बाद वे उसे एक-दम भूल जाते थे. उसका रफ़-रिकॉर्ड भी उनके पास नहीं होता था. यानी अगर वह प्रोड्यूसर, डायरेक्टर या म्यूज़ीशियन उनके लिखे गाने का दस्तावेज़ गुमा दे, तो दोबारा वही गाना फिर नहीं मिलने वाला था. उसी हालात पर वे ख़ुद भी वह पुराना गाना नहीं लिख सकते थे. अगली बार पूरा नया गाना ही लिखा मिलेगा, ये तय होता था.’ हालांकि जनाब, अपने आस-पास गुज़रने वाले हालात से बिल्कुल भी ‘अजनबी’ नहीं थे, बख्शी साहब. इसका एक वाक़ि’आ राकेश ही बताते हैं, ‘उनके एक दोस्त को अपनी पत्नी पर शुबहा हुआ कि वह किसी और के साथ रिश्ते में है. सो, उन्होंने पत्नी को तलाक़ दे दिया. बाद में मालूम हुआ कि उनका शक ग़लत था. लिहाज़ा वे पत्नी के पास गए. उन्हें मनाया कि वे फिर उनकी ज़िंदगी में लौट आएं. पर वे नहीं मानी.’
बताते हैं जनाब कि, बख़्शी साहब के दोस्त की पत्नी ने तब ख़ाविंद के साथ जाने के बज़ाय ख़ुदकुशी कर ली थी. इस हादसे ने बख्शी साहब के दिल-ओ-दिमाग पर भीतर तक असर किया था. और ये असर लफ़्ज़ी सूरत में तब बाहर आया, जब साल 1974 में ‘आप की कसम’ फिल्म के लिए उनसे कुछ-कुछ वैसे ही हालात के लिए नग़्मा लिखने को कहा गया. तब उन्होंने लिखा, ‘जिंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते’. राकेश बताते हैं, ‘ऐसे ही एक मर्तबा अपने दोस्त हरि मेहरा (फिल्म डायरेक्टर) के साथ खार स्टेशन के पास मौज़ूद अपनी पसंदीदा दुकान पर पिताजी पान खाने जा रहे थे. बात 1968-69 की होगी. तो, रास्ते में उन्हें एक ख़ूबसूरत लड़की दिखी. गाड़ी पिताजी ही चला रहे थे उस वक़्त. उनका ध्यान शायद उस लड़की की तरफ़ गया नहीं था. लिहाज़ा, हरि मेहरा ने उनका ध्यान उसकी तरफ़ दिलाया.’
‘बख्शी साहब ने जैसे ही उस लड़की को देखा, एक नग़्मे का मुखड़ा उनके ज़ेहन में कौंध गया. उन्होंने तुरंत गाड़ी किनारे लगाई. जेब से क़लम निकाली मगर डायरी न थी. तो, सिगरेट के पैकेट पर ही वह मुखड़ा लिख लिया. वे अक्सर ऐसा ही किया करते थे. इसके बाद दोनों घर आ गए. बात आई-गई हो गई. इसके छह-सात महीने बाद दोनों दोस्त एक फिल्म का प्रीमियर देखने गए. ये ‘आराधना’ फिल्म थी. साल 1969 की. इसमें जब वह नग़्मा आया, ‘रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना’, तो बख्शी साहब ने हरि मेहरा को याद दिलाया- याद है तुझे. उस रोज़ जब हम लोग खार स्टेशन की तरफ़ जा रहे थे तो रास्ते में एक बला की ख़ूबसूरत लड़की मिली थी? हां, हां, बिल्कुल. तभी ये मुखड़ा लिखा था मैंने.’ जनाब, अपने ख़ुद के निजी हालात से भी बख्शी साहब कुछ इसी तरह की वाक़िफ़िय्यत (परिचय) रखा करते थे. उनके लिए भी वे क़त’ई अजनबी न थे.
मिसाल देते हैं राकेश आनंद बख्शी, ‘पिताजी सिगरेट, पान, तंबाकू का बहुत इस्तेमाल करते थे. इतना कि एक वक़्त वे ख़ुद इन आदतों से ‘आजिज़ आ चुके थे. उन्हें छोड़ना चाहते थे. लेकिन छोड़ नहीं पा रहे थे. ख़ुद से एक लड़ाई लड़ रहे थे वे इस बाबत. तब इस हाल को बयां करता नग़्मा निकला उनकी क़लम से, ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए, सावन जो आग लगाए उसे कौन बुझाए (फिल्म- ‘अमर प्रेम’, साल- 1972).’ इस तरह मुश्किल हाल को भी आसान और आम बोल-चाल के लफ़्ज़ों में बयां कर देते थे बख्शी साहब. उनकी इस आसानियत पर आम लोग अक्सर चौंकते. सवाल पूछते, ‘ये कमाल कैसे कर लेते हैं आप?’, तो वे उतनी ही सहूलियत से ज़वाब दिया करते, ‘कमाल कुछ नहीं है जनाब. मुझे हिन्दी नहीं आती. सो, उसके जो चंद लफ़्ज़ मुझे आते हैं, उन्हीं को इधर-उधर करके लिख दिया करता हूं. शुक्रिया कि आप लोगों को पसंद आता है.’
अलबत्ता, उस दौर के तमाम अज़ीम शा’इर और हिन्दी, उर्दू अदब से त’अल्लुक़ रखने वालों को बख्शी साहब के लिखे की यह आसानियत नागवार गुज़रा करती थी. वे कहा करते थे, ‘बख्शी साहब कोई कवि या शा’इर नहीं हैं. वे तो सिर्फ़ तुक-बंदी किया करते हैं.’ ऐसा कहने वालों में तब के एक बड़े शा’इर और नग़्मा-निगार साहिर लुधियानवी के चाहने वाले भी शुमार होते थे. अलबत्ता दिलचस्प ये कि ख़ुद साहिर साहब एक वक़्त पर फिल्म बनाने वालों, डायरेक्टरों और मूसीक़ारों को मशवरा देने लगे थे, ‘आप मुझसे ही क्यों लिखवाते हैं. आनंद बख्शी से नग़्मे लिखवाइए. वह फिल्म की कहानी के मुताबिक अच्छे नग़्मे लिखा करता है’. जी जनाब, कहानी के मुताबिक नग़्मे लिखना. बख्शी साहब की ये भी एक ख़ासियत थी. ख़ुद कहा था उन्होंने, ‘मै शा’इर तो नहीं, मगर ऐ हसीं, जब से देखा, मैंने तुझको, मुझको शा’इरी आ गई’ (फिल्म- ‘बॉबी’, साल- 1973).
सच में जनाब, बख्शी साहब बातचीत के दौरान भी अक्सर कहा करते थे, ‘मैं शा’इर या कवि नहीं हूं. मैं नग़मे लिखता हूं. और फिल्म की कहानी देखने के बाद ही मेरा दिमाग़ चलना शुरू होता है. नग़्मे के बोल फिल्म की कहानी में ही होते हैं’. और जानते हैं जनाब, बख्शी साहब को हुनर किसने सिखाया था? सचिन देब बर्मन. उस ज़माने के अज़ीम मूसीक़ार. अक्सर कहा करते थे, ‘कहानी सुना करो बख्शी. कहानी ध्यान से सुना करो. कहानी में ही लिरिक्स (गाने के बोल) हैं. लिरिक्स कहीं बाहर से नहीं आते’. एसडी बर्मन साहब की इस बात को भी कभी भूले नहीं आनंद बख्शी. इसी तरह आसान लफ़्ज़ों में नग़्मे लिखने का हुनर उन्हें सिखाया डीएन मधोक ने. दीनानाथ मधोक, जो 1940 से 1960 के बीच की दहाइयों में हिन्दी फिल्मों के बड़े गीतकार हुआ करते थे. शुरू-शुरू में जब बख्शी साहब से मधोक साहब का त’अर्रुफ़ हुआ, तभी उन्होंने समझा दिया था उन्हें, ‘उर्दू में नहीं, हिन्दी में लिखा करो. सीधी-सादी भाषा में. ऐसे कि आम लोगों को समझ आ जाए.’
फिर इसी तरह का मशविरा उस ज़माने के एक और गीतकार शैलेंद्र ने भी दिया बख्शी साहब को. शैलेंद्र ख़ुद भी यही करते थे. इन सबकी बातों को बख्शी साहब ने गांठ बांध लिया. इसका मिला-जुला नतीज़ा ये हुआ कि 1958 में शुरुआत (फिल्म- ‘भला आदमी’) के बाद महज़ चार सालों के भीतर बख्शी साहब ने अपनी जगह बना ली. वह भी साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायुंनी, हसरत जयपुरी, जैसे नग़्मा-निगारों, शा’इरों के बीच. और फिर वह सिलसिला जो शुरू हुआ, तो साल 2001 तक चलता रहा. एसडी बर्मन, कल्याण जी-आनंद जी, आरडी बर्मन, बप्पी लाहिड़ी, एआर रहमान तक 96 संगीतकारों के लिए नग़्मे लिखे उन्होंने. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ तो जोड़ी ऐसी जमी कि उनके लिए 300 से ज़्यादा नग़्मे लिख डाले. इस तरह 30 मार्च 2002 को इंतिक़ाल होने तक 635 फिल्मों के लिए 3,000 के क़रीब नग़्मे लिखकर वे अपने चाहने वालों की नज़र कर गए.
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Tags: Birth anniversary, Hindi news, up24x7news.com Hindi OriginalsFIRST PUBLISHED : July 21, 2022, 18:23 IST