दास्तान-गो: ‘यहां इतना सन्नाटा क्यूं है भाई’… याद आए न एके हंगल
दास्तान-गो: ‘यहां इतना सन्नाटा क्यूं है भाई’… याद आए न एके हंगल
Daastaan-Go ; AK HAngal Death Anniversary : अपने सपोर्टिंग रोल के मसले पर हंगल साहब अक्सर कहा करते थे, ‘मैं कोई हीरो नहीं हूं. मैं कुछ और मटेरियल रहा. मैं, जो काम होता है, एक्टिंग का, उसका हीरो था’. या दूसरे लफ़्ज़ों में कहें, तो ‘छोटे किरदारों के बड़े अदाकार हंगल साहब’.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, एके हंगल साहब याद हैं क्या? मुमकिन है, बहुत से लोग, जो फिल्मों से ज्यादा त’अल्लुक नहीं रखते, महज़ इतना पूछने पर ज़वाब ‘न’ में दे दें. लेकिन अगर उन्हें ये डायलॉग सुना दिया जाए, ‘यहां इतना सन्नाटा क्यूं है भाई’, तो यक़ीन जानिए ‘शोले’ फिल्म के बुज़ुर्ग ‘इमाम साहब’ का चेहरा उनकी आंखों के सामने भी झूल जाएगा. रामगढ़ गांव के लोग जिन्हें ‘रहीम चाचा’ बुलाया करते हैं. उनके लड़के को डाकू गब्बर सिंह ने मार दिया है. लाश घोड़े पर लादकर गांव में भिजवाई है. मौके पर गांव के तमाम लोगों का झुंड लगा हुआ है. जय, वीरू, बसंती, ठाकुर सब हैं. सन्नाटा खिंचा हुआ है. तभी इमाम साहब आते हैं. सब को चुप देखकर ऐसे पुर-असर तरीके से यह सवालिया डायलॉग बोलते हैं कि वह अमर हो जाता है. आने वाले कई सालों में, तमाम मौकों पर, बार-बार उसे दोहराया जाना, गोया उस डायलॉग का मुस्तक़बिल हो जाता है.
सिर्फ़ यही एक क्या. फिल्म के इसी सीन में गांव वाले जब जय और वीरू के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो ‘इमाम साहब’ फिर उतने ही असरदार तरीके से कहते हैं, ‘जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा बोझ क्या होता है? बाप के कंधों पर बेटे का जनाज़ा. इससे भारी बोझ कोई नहीं…’, इसे भी आगे अस्ल ज़िंदगी में तमाम लोगों को दोहराते हुए कई मर्तबा सुना जा सकता है. आज भी. इसी तरह, सीन में ‘इमाम साहब’ गांव वालों को समझाते हुए आगे जो कहते हैं, वह भी, कि ‘…इज्ज़त की मौत ज़िल्लत की ज़िंदगी से कहीं अच्छी है’. यानी जनाब, एक छोटे से सीन में भी दमदार अदाकारी से इतनी यादग़ार चीजें छोड़ जाने वाले का नाम है, एके हंगल. अवतार किशन हंगल, पूरा नाम. आज ही की तारीख़ थी, 26 अगस्त. साल 2012 की था. जब 98 बरस की उम्र में एके हंगल इस दुनिया से दूर हुए. लेकिन अदाकारी के क़द्र-दानों की याद से शायद ही दूर हुए हों.
अवतार किशन हंगल, पूरा नाम. आज ही की तारीख़ थी, 26 अगस्त. साल 2012 की था. जब 98 बरस की उम्र में एके हंगल इस दुनिया से दूर हुए.
क़माल शख़्सियत थे हंगल साहब. एक बार किसी ने इंटरव्यू के दौरान उनसे ‘हंगल’ लफ़्ज का मतलब पूछ लिया. तो हंसते हुए बोले, ‘हमारे कश्मीर की ज़बान में हंगल का मतलब होता है बारहसिंगा. जिसके माथे पर बारह सींग हुआ करते हैं’. सच ही कहा उन्होंने. आज़ादी से पहले वाले हिन्दुस्तान के सियालकोट (पंजाब) में एक फरवरी 1914 को अपने मामू के घर पर पैदा हुए इस कश्मीरी पंडित के सिर में सच्ची, बारह सींग ही थे जैसे. वालिद हरि किशन हंगल अंग्रेजों की सरकार में आला अफ़सर थे. और दादा तो, जैसा वे ख़ुद बताते हैं, बंगाल में पहले हिन्दुस्तानी जज हुए. लेकिन अवतार किशन साहब को बचपन से ही अंग्रेजों से नफ़रत हो गई. इसलिए मैट्रिक से आगे पढ़ाई नहीं की. और तय कर लिया कि अंग्रेजों की चाकरी नहीं करनी है. बल्कि उन्हें खदेड़ने के लिए मुल्क में चल रही लड़ाई में हिस्सा लेना है. सो, आज़ादी की लड़ाई में कूद गए.
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दो बार गोली खाई. मगर बच गए. लाठियां कितनी बार खाईं, इसकी तो गिनती ही नहीं. इनके यही तेवर आज़ादी के बाद बने पाकिस्तान की सरकार को खटक गए. अब तक इनका परिवार कराची आ गया था, जहां इन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया गया. दो साल के करीब जेल में रहे. छूटे तो मुल्क से ही बाहर कर दिए गए. ख़ुद उन्हीं के लफ़्ज़ों में ‘तड़ीपार कर दिया गया’. सो, हिन्दुस्तान आ गए, बंबई. ये साल हो गया 1949 का. यहां हिन्दुस्तान में परिवार समेत आए तो मुसीबत खाना खर्चा चलाने की आन पड़ी. ‘सरकार’ नाम के तो लफ़्ज़ से ही दिक़्क़त रही. बावज़ूद ये कि आज़ाद हिन्दुस्तान में सरकार अब हिन्दुस्तानियों की थी. और मुल्क के पहले वज़ीर-ए-आज़म पंडित जवाहर लाल नेहरू इनके रिश्ते में मौसा लगते थे. नेहरू जी पत्नी कमला और एके हंगल साहब की माता जी रागिया हुंडू कुछ चचेरी, मौसेरी बहनें थीं.
पर अब बड़ा सवाल कि भई करें क्या? परिवार का ख़र्च तो चलाना है. तभी किसी ने सवालिया लहज़े में मशवरा दिया, ‘अरे, तुमने दर्ज़ी-गिरी सीखी हुई है. वही क्यों नहीं कर लेते?’ मशवरा जंच गया और दर्ज़ी-गिरी करने लगे. वह भी कैसे सीखी, हंगल साहब की ज़ुबानी ही जान लें, ‘मुझे अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ था. अब भी है. इसीलिए सीख ली. पर वह काम आ गई. अच्छे टेलर बन गए. आज से 50 साल पहले, उस ज़माने में मेरी टेलरिंग की तनख़्वाह 500 रुपए थी.’ ग़ौर करें जनाब, ये इंटरव्यू 2012 में हंगल साहब के निधन से कोई चार-पांच बरस पहले लिया गया था. यानी 2008 या 2007 के आस-पास. तब वे तबीयत से दुरुस्त हुआ करते थे. तो जनाब, इस तरह टेलरिंग करते-करते ही थिएटर से भी जुड़ गए हंगल साहब. बताते हैं, बचपन में इनके वालिद इन्हें अक्सर पारसी थिएटर में नाटक दिखाने ले जाया करते थे. वहीं से शौक़ लगा.
शौक़िया थिएटर तो 18 साल की उम्र से शुरू हो गया था. लेकिन संजीदगी से थिएटर में अदाकारी की मुंबई आने के बाद, जब इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े. फ़नकारों के इस ठिकाने पर भी ‘सींगवालों’ का जमावड़ा हुआ करता था. सब के सब सरकार और हिटलरशाही की मुख़ालिफ़त करने वाले. हंगल साहब ने ही बताया, ‘कई मर्तबा तो ऐसा होता था कि हम भीतर नाटक खेल रहे हैं और बाहर पुलिस खड़ी है, हमें गिरफ़्तार करने. नाटक ख़त्म होते ही पकड़कर ले जाती थी. कभी-कभी तो नाटक के बीच में ही’. जनाब, ध्यान में लाइए कि ‘इप्टा’ में सब लोग हंगल साहब जैसे तेवर वाले ही होते थे. मसलन- बलराज साहनी, उनके भाई भीष्म साहनी, शा’इर कैफ़ी आज़मी और उन्हीं के जैसी तमाम नामवर शख़्सियतें. तो जनाब, नाटक खेलते-खेलते और टेलरिंग करते-करते हंगल साहब की उम्र हो गई 50 के पार. यही कोई 51-52 बरस के लगभग.
अमोल पालेकर की ‘पहेली’ (2005) हंगल साहब की आखिरी फिल्म रही.
उम्र का ये ऐसा मक़ाम होता है जनाब, जब लोग अपने रिटायरमेंट की तैयारी करना शुरू कर देते हैं. लेकिन हंगल साहब ने यहां से कुछ और ही शुरुआत की. फिल्मों में अदाकारी के ज़ौहर दिखाने की. साल 1965 की बात है, जब फिल्म डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे. वे हंगल साहब की अदाकारी के हुनर से तो वाक़िफ़ थे ही. लिहाज़ा उन्होंने अपनी फिल्म में एक किरदार उन्हें भी दे दिया. हालांकि, 1966 में जब फिल्म रिलीज़ हुई तो हंगल साहब के किरदार के तमाम सीन छांट दिए गए, फिल्म से. लेकिन हंगल साहब का फिल्मों में अदाकारी का जो सिलसिला शुरू हुआ यहां से, वह नहीं छांटा जा सका. बल्कि इसके बाद तो उन्होंने 225 के आस-पास फिल्में कर डालीं. अगले 40-45 सालों के दौरान. अमोल पालेकर की ‘पहेली’ (2005) हंगल साहब की आखिरी फिल्म रही. इसके बाद 2006 में उन्हें पद्म-विभूषण से भी नवाज़ा गया.
हालांकि उम्र चूंकि ज़्यादा हो चुकी थी इसलिए हंगल साहब को ज़्यादातर चरित्र भूमिकाएं ही मिलीं. लेकिन उन्होंने उनमें भी जान फूंक दी. ऐसी कि कहते हैं, एक मर्तबा दिल्ली में किसी लड़की ने उनके साथ जाने से मना कर दिया था. दरअस्ल, हंगल साहब वहां किसी कार्यक्रम में आए थे. रात के खाने के बाद उन्हें एक दोस्त के घर जाना था. लिहाज़ा आयोजकों ने उस लड़की को ज़िम्मा सौंपा कि वह उनके साथ चली जाए लेकिन उसने मना कर दिया. यह कहते हुए कि उसने ‘शौक़ीन’ फिल्म देखी है. इसके बाद एक पुरुष सहयोगी को हंगल साहब के साथ भेजा गया. यहां याद दिला दें जनाब, कि ‘शौक़ीन’ में हंगल साहब ने बुज़ुर्ग इंदरसेन उर्फ एंडरसन का किरदार अदा किया है, जो बड़ा रंगीन-मिज़ाज क़िस्म का इंसान है. यक़ीनी तौर पर यह किरदार उन्होंने इस असरदार तरीके से निभाया कि लड़कियां अस्ल ज़िंदगी में भी वाक’ई उनसे घबराने लगीं.
अपने सपोर्टिंग रोल के मसले पर हंगल साहब अक्सर कहा करते थे, ‘मैं कोई हीरो नहीं हूं. मैं कुछ और मटेरियल रहा. मैं, जो काम होता है, एक्टिंग का, उसका हीरो था’. या दूसरे लफ़्ज़ों में कहें, तो ‘छोटे किरदारों के बड़े अदाकार हंगल साहब’.
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